Bangladesh Crisis: 1975 से लेकर 2024 तक, बांग्लादेश में कब-कब सेना ने किया तख्तापलट, क्या रही आर्मी की भूमिका

Bangladesh Crisis: बांग्लादेश के हालातों पर पूरी दुनिया की नजर है. आपको बता दें कि बांग्लादेश की स्थापना के बाद से ही लगातार सेना का देश की राजनीति में दखल रहा है. साल 2008 में शेख हसीना के सत्ता संभालने के बाद यह दखल कम हुआ लेकिन अब एक बार फिर कमान सेना के हाथ में है.

Bangladesh Army (Representational: Wikipedia/@Shadman Samee. Dhaka, Bangladesh)
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 06 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 1:40 PM IST

बांग्लादेश में बढ़ते तनाव के बीच सोमवार (5 अगस्त) को पीएम शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद सेना ने कमान अपने हाथ में ले ली. मीडिया से बात करते हुए बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वेकर-उज़-ज़मान ने कहा कि देश को चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी. सरकारी नौकरियों में स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों के लिए आरक्षण को लेकर शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों के बीच प्रधान मंत्री शेख हसीना ने हाल ही में इस्तीफा दे दिया था और देश छोड़कर चली गईं थीं. इसके बाद, हजारों लोग सड़कों पर जश्न मनाते दिखे और बहुत से लोगों ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के आधिकारिक आवास पर धावा भी बोला. 

सेना ने किया राजनीति को कंट्रोल 
महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यूज चैनल्स पर प्रदर्शनकारियों को स्वतंत्र बांग्लादेश के जनक, बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की एक बड़ी मूर्ति के सिर पर हमला करते हुए दिखाया गया है. पाकिस्तान से देश की आजादी के ठीक चार साल बाद अगस्त 1975 में सेना ने तख्तापलट में मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी थी. इसके बाद, सेना ने बांग्लादेश में अगले 15 सालों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति को नियंत्रित किया. आज हम आपको बता रहे हैं कि बांग्लादेश में सेना की क्या भूमिका रही है. 

1971 का मुक्ति संग्राम
1970 में पाकिस्तान (तत्कालीन पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान) के आम चुनावों में, मुजीबुर रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान में 162 में से 160 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत दर्ज किया और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की पीपीपी ने पश्चिमी पाकिस्तान में 138 में से 81 सीटें जीतीं. अवामी लीग की जीत के बावजूद, पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल याह्या खान (जो उस समय मार्शल लॉ के माध्यम से देश पर शासन कर रहे थे) ने मुजीबुर रहमान को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. इससे पूरे पूर्वी पाकिस्तान में अशांति फैल गई. यहां पर पहले से ही लोगों पर उर्दू थोपने के खिलाफ एक आंदोलन चल रहा था. 

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, 7 मार्च, 1971 को मुजीब ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों से अपील की कि वे बांग्लादेश की आज़ादी के संघर्ष के लिए खुद को तैयार कर लें. जवाब में, पाकिस्तानी सेना ने अपना ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया और विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए अभियान चलाया, जिसके चलते बड़े पैमाने पर हत्याएं, अवैध गिरफ्तारियां और बलात्कार और आगजनी की घटनाएं हुईं. इसके तुरंत बाद, पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, जिससे बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन छिड़ गया और इसमें भारत ने हस्तक्षेप किया. इन सैनिकों ने नागरिकों के साथ मिलकर मुक्ति वाहिनी का गठन किया और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध चलाया. 

आज़ादी के बाद सेना में भेदभाव
एक बार जब बांग्लादेश को आज़ादी मिल गई, तो मुक्ति वाहिनी के सदस्य बांग्लादेश सेना का हिस्सा बन गए. हालांकि, आज़ादी के बाद कई सालों तक उन बंगाली सैनिकों के साथ भेदभाव हुआ, जिन्होंने मुक्ति संग्राम की अगुवाई में पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था. इस कारण सेना के भीतर तनाव उभरने लगा. 

पहला सैन्य तख्तापलट: 15 अगस्त, 1975 को तनाव इतना बढ़ गया कि मुट्ठी भर युवा सैनिकों ने ढाका में बंगबंधु और उनकी बेटियों शेख हसीना (5 अगस्त की शाम को भारत पहुंची पूर्व प्रधान मंत्री) और शेख रेहाना (जो सोमवार को हसीना के साथ भारत आईं) को छोड़कर उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी. यह बांग्लादेश में पहले सैन्य तख्तापलट था, जिसे मेजर सैयद फारूक रहमान, मेजर खांडेकर अब्दुर रशीद और राजनेता खोंडाकर मुस्ताक अहमद ने लीड किया था. तब एक नया शासन स्थापित किया गया - मुस्ताक अहमद राष्ट्रपति बने और मेजर जनरल जियाउर रहमान को नए सेना प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया. 

महीनों बाद, दूसरा तख्तापलट: हालांकि, नए शासक लंबे समय तक सत्ता में नहीं रहे. 3 नवंबर को, ब्रिगेडियर खालिद मोशर्रफ ने एक और तख्तापलट को लीड किया और खुद को नया सेना प्रमुख नियुक्त किया. मोशर्रफ को मुजीब के सपोर्टर के रूप में देखा जाता था. उन्होंने जियाउर रहमान को घर में नजरबंद कर दिया, क्योंकि उनका मानना ​​था कि बंगबंधु की हत्या के पीछे जियाउर रहमान का हाथ था.

तीसरा तख्तापलट: और फिर 7 नवंबर को तीसरा तख्तापलट हुआ. इसे वामपंथी सेना के जवानों ने जातीय समाजतांत्रिक दल के वामपंथी राजनेताओं के सहयोग से शुरू किया था. इस घटना को सिपॉय-जनता बिप्लोब (सैनिक और जन क्रांति) के नाम से जाना जाता था. मोशर्रफ़ की हत्या कर दी गई और ज़ियाउर रहमान राष्ट्रपति बन गए. ज़ियाउर रहमान ने 1978 में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) का गठन किया, जिसने उस साल का आम चुनाव जीता. लेकिन 1981 में, मेजर जनरल मंज़ूर के नेतृत्व में एक विद्रोही सेना यूनिट ने उन्हें उखाड़ फेंका. इन विद्रोहियों ने राष्ट्रपति ज़ियाउर रहमान पर उन सैनिकों का पक्ष लेने का आरोप लगाया जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भाग नहीं लिया और जो आजादी के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आए थे.

जनरल इरशाद का तख्तापलट: 24 मार्च, 1982 को, तत्कालीन सेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद ने तख्तापलट करके सत्ता संभाली, संविधान को निलंबित कर दिया और मार्शल लॉ लागू कर दिया. उन्होंने राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार (बीएनपी के) को उखाड़ फेंका, जो जियाउर रहमान के उत्तराधिकारी बने थे. हालांकि, इस बार कोई खून-खराबा नहीं हुआ था. इरशाद ने 1986 में जातीय पार्टी की स्थापना की और 1982 के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश में पहले आम चुनाव की अनुमति दी. उनकी पार्टी ने बहुमत हासिल किया और इरशाद 1990 तक राष्ट्रपति बने रहे - देश में लोकतंत्र के समर्थन में हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा.

2008 तक रहा सेना का दखल 
साल 1991 में बांग्लादेश में संसदीय लोकतंत्र लौट आया, लेकिन सेना की दखलअंदाजी नहीं रुकी. 2006 में बीएनपी-जमात सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद राजनीतिक उथल-पुथल मच गई. नए चुनाव होने से पहले जरूरी कार्यवाहक सरकार का नेतृत्व करने के लिए एक उम्मीदवार को चुनने को लेकर बीएनपी और अवामी लीग के बीच खींचतान चल रही थी. उस साल अक्टूबर में, राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद ने खुद को कार्यवाहक सरकार का नेता घोषित किया, और घोषणा की कि चुनाव अगले साल जनवरी में होंगे.

हालांकि, 11 जनवरी, 2007 को सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मोइन अहमद ने एक सैन्य तख्तापलट का नेतृत्व किया, जिससे एक सैन्य समर्थित कार्यवाहक सरकार का गठन हुआ. इकोनॉमिस्ट फखरुद्दीन अहमद को सरकार का प्रमुख नियुक्त किया गया, जबकि राष्ट्रपति इयाजुद्दीन अहमद को अपना राष्ट्रपति पद बनाए रखने के लिए मजबूर किया गया.

मोईन ने सेना प्रमुख के रूप में अपना कार्यकाल एक साल और कार्यवाहक सरकार का शासन दो साल के लिए बढ़ा दिया. दिसंबर में राष्ट्रीय चुनाव होने के बाद 2008 में सेना का शासन समाप्त हो गया और शेख हसीना सत्ता में आईं. साल 2008 के बाद अब एक बार फिर बांग्लादेश की सत्ता सेना के हाथों में पहुंच गई है. अब देखना यह है कि कैसे और कब तक देश में शांति बहाल होगी.

 

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