रूस और यूक्रेन युद्ध की कगार पर खड़े हैं. सीजफायर पर दोनों की ही अपनी सहमती बन गई हो, लेकिन पूरी दुनिया को पता है कि ये केवल एक अस्थायी सीजफायर है. ऐसे में भारत ने भी इस सप्ताह अपना पहला आधिकारिक बयान दे दिया है. विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता अरिंदम बागची ने शुक्रवार को साप्ताहिक ब्रीफिंग में कहा, "हम रूस और अमेरिका के बीच चल चर्चा सहित यूक्रेन से संबंधित घटनाक्रमों पर बारीकी से नजर रख रहे हैं. कीव में हमारा दूतावास भी स्थानीय घटनाक्रम की निगरानी कर रहा है. हम शांतिपूर्ण समाधान का आह्वान करते हैं.”
वैसे तो साल 1991 के बाद से ही रूस और यूक्रेन के बीच तनाव लगातार जारी है, लेकिन अब ये युद्ध के मुहाने तक पहुंच गया है. इससे तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका तक जताई जाने लगी है. ऐसा इसलिए क्योंकि रूस दुनिया के सबसे ताकतवर देशों में से एक है और यूक्रेन का उसके आगे टिकना काफी मुश्किल होगा, ऐसे में यूक्रेन को समर्थन देने के लिए अमेरिका को आगे आना होगा, और वह आ भी गया है.
पूरा मामला कैसे शुरू हुआ?
दरअसल, ये पूरा मामला दिसंबर के मध्य में शुरू हुआ जब रूस ने अमेरिका सहित पश्चिमी देशों को अपनी कुछ मांगों की एक लिस्ट दी. इसमें रूस ने पश्चिम के देशों से कहा कि वह ‘लिखित रूप में’ गारंटी चाहता है कि नाटो (NATO) पूर्व की ओर विस्तार न करे, इसके साथ पोलैंड और बाल्टिक राज्यों से नाटो सैनिकों को हटाने और यूरोप से अमेरिकी परमाणु हथियारों की संभावित वापसी को रोक दे. इसकी सबसे जरूरी मांगों में यह शामिल था कि यूक्रेन को नाटो में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.
हालांकि, अमेरिका और पश्चिम ने इससे इंकार किया है. दोनों पक्ष फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और रूस के वार्ताकारों की उपस्थिति में पेरिस में बातचीत कर रहे हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संकट के समाधान के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात की है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी पुतिन के साथ वीडियो कॉल कर इसपर चर्चा की है.
रूस ऐसा क्यों कर रहा है?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, न्यू यॉर्कर के संपादक डेविड रेमनिक, जो 1987 और 1991 के बीच रूस में वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता थे, ने एक किताब लिखी है, ‘लेनिन टॉम्ब’. इसमें उन्होंने व्लादिमीर-लेनिन को यह कहते हुए हाईलाइट किया है, "हमारे, लिए, यूक्रेन को हारने का मतलब है हमारा सिर खोना.”
आपको बता दें, 1991 में सोवियत संघ के पतन के समय रूस ने जिन 14 गणराज्यों का नियंत्रण खो दिया था, उनमें से यूक्रेन सबसे महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी और उनमें से दूसरी सबसे अधिक आबादी वाला क्षेत्र है.
क्या है यूक्रेन की पूरी कहानी?
इतिहासकारों के मुताबिक, रूस और यूक्रेन 9वीं शताब्दी से साथ थे, जब कीव रूस की राजधानी बना था. 1654 से, दोनों रूसी ज़ार के शासन के तहत संधि द्वारा एकजुट हो गए थे. हार्वर्ड विश्वविद्यालय में यूक्रेनी इतिहास के प्रोफेसर इतिहासकार सेरही प्लोखी ने द फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा है कि यह 19 वीं शताब्दी के मध्य में, जब यूक्रेनी राष्ट्रीय आंदोलन बढ़ गया था तब इसे बढ़ाने के लिए, रूसी साम्राज्यवादी विचारकों ने त्रिपक्षीय रूसी राष्ट्र की अवधारणा तैयार की थी.
जब लेनिन के नेतृत्व में क्रांति के बाद ज़ार का साम्राज्य ध्वस्त हो गया, तो यूक्रेनियन ने अपना एक राज्य बनाया और जनवरी 1918 में स्वतंत्रता की घोषणा की. हालांकि, 1920 में बोल्शेविकों ने अधिकांश रूसी यूक्रेन पर नियंत्रण कर लिया था.
ऐसे में ज़ार और बोल्शेविकों से लेकर पुतिन तक, सदियों से मॉस्को के शासकों का यही रवैया रहा है. पुतिन ने सोवियत संघ के विघटन को "पिछली सदी की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक तबाही" कहा था. अपने अब तक के 22 साल के शासन के दौरान, उन्होंने उन देशों में रूस के प्रभाव को बहाल करने की मांग की है जो तत्कालीन सोवियत संघ का हिस्सा थे.
क्रेमलिन की वेबसाइट पर एक लेख में, पुतिन लिखते हैं कि रूसी और यूक्रेनियन एक ऐसे लोग थे जिन्होंने एक "ऐतिहासिक और आध्यात्मिक स्थान" साझा किया है. बाद में, यूक्रेन ने न केवल यूएसएसआर (USSR) के निर्माण में बल्कि इसके विघटन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
तो, पश्चिम तस्वीर में कैसे आया?
आपकोे बताते चलें, यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं है, लेकिन 2008 में उसे आश्वासन दिया गया था कि जल्द ही उसे इसमें शामिल किया जाएगा. 2014 में एक रूसी समर्थक राष्ट्रपति को हटाए जाने के बाद, यूक्रेन राजनीतिक रूप से पश्चिम के करीब आ गया. इसने नाटो के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास किया है और अमेरिकी टैंक रोधी मिसाइलों सहित हथियार भी वितरित किए हैं. कीव के अनुसार, यह यूक्रेन की रक्षा को बढ़ावा देने के लिए किया गया है.
ऐसे में पुतिन का कहना है कि नाटो रूस पर हमला करने के लिए यूक्रेन को लॉन्चपैड के रूप में इस्तेमाल कर सकता है.
भारत का क्या स्टैंड है?
अमेरिका और यूरोप दोनों ही भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं. भारत-चीन सीमा पर टोही और निगरानी के लिए कई अमेरिकी प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया गया है. 50,000 सैनिकों के लिए सर्दियों के कपड़े इन्हीं पश्चिमी देशों से मंगवाए गए हैं. साथ ही साथ यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में भारत के ज्यादातर छात्र हैं. सरकारी अनुमानों के अनुसार, 2020 में 18,000 भारतीय छात्र यूक्रेन में थे, लेकिन हो सकता है कि कोविड लॉकडाउन और कक्षाओं के ऑनलाइन होने के कारण संख्या कम हो गई हो.
अब भारत आगे क्या करेगा?
एकबार जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था, तब भारत ने चिंता व्यक्त की थी. पुतिन ने संयमित और उद्देश्यपूर्ण रुख अपनाने के लिए भारत को धन्यवाद दिया था, और आभार व्यक्त करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फोन किया था.
रूस के साथ अपने संबंधों को ध्यान में रखते हुए, सूत्रों ने कहा है कि भारत ने कोई निंदात्मक बयान जारी नहीं किया है जैसा कि पश्चिमी शक्तियों द्वारा किया जा रहा है. अभी के लिए, उम्मीद की जा रही है कि दोनों पक्षों के द्वारा बातचीत करके स्थिति का समाधान निकाला जाए.