भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीति समीक्षा बैठक आज से शुरू हो रही है. और यह बैठक 10 फरवरी तक चलेगी. हालांकि, यह समीक्षा बैठक सात फरवरी से नौ फरवरी तक की जानी थी, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने लता मंगेशकर के सम्मान में सात फरवरी को सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की.
जिसके कारण आरबीआई ने अपनी बैठक आठ फरवरी तक टाल दी थी. लेकिन आज से यह बैठक शुरू हुई है और 2022-23 के बजट के बाद यह पहली मौद्रिक नीति समीक्षा है.
मौद्रिक नीति समिति क्या है?
आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (मोनेटरी पॉलिसी कमिटी/एमपीसी) सरकार द्वारा गठित किया गया निकाय है. इसकी जिम्मेदारी रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, बैंक रेट आदि जैसे टूल का उपयोग करके देश की मौद्रिक नीति तैयार करना है. एमपीसी में छह सदस्य हैं- तीन सदस्य सरकार नामित करती है और तीन आरबीआई के सदस्य होते हैं. आरबीआई गवर्नर समिति के पदेन अध्यक्ष होते हैं.
मौद्रिक नीति समिति की बैठक आज से हो रही है. इस बैठक में क्या निर्णय लिए जायेंगे यह 10 फरवरी के बाद ही पता चलेगा. लेकिन कहा जा रहा है कि इस बार रिवर्स रेपो रेट में 0.25% की बढ़ोतरी हो सकती है. अब सवाल है कि आखिर रेपो रेट या रिवर्स रेपो रेट होती क्या है?
रेपो रेट:
रेपो रेट यानी कि ‘रिपर्चेजिंग ऑप्शन रेट.’ हम सब जानते हैं कि जब कमर्शियल बैंकों के पास पैसे की कमी पड़ती है या उन्हें जरूरत होती है तो वे रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से ऋण लेते हैं. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया जिस इंटरेस्ट रेट यानी कि ब्याज दर पर इन बैंकों को ऋण देता है, उसी दर या रेट को ‘रेपो रेट’ कहते हैं.
इसी ऋण के पैसे से कमर्शियल बैंक आगे ग्राहकों को लोन या ऋण देते हैं. और जिस ब्याज की दर से बैंक ग्राहकों को ऋण देते हैं उसे ‘बेस रेट’ कहते हैं. यह बेस रेट हमेशा ही रेपो रेट से ज्यादा होती है. ऐसे में अगर आरबीआई रेपो रेट बढ़ा दे तो सामान्य लोगों को बैंकों से मिलने वाले ऋण की ब्याज दर में भी बढ़ोतरी होती है.
लेकिन अगर रेपो रेट कम रहती है तो सामान्य लोगों को भी कम ब्याज दर पर कमर्शियल बैंकों से लोन मिलता है. अब सवाल है कि रिवर्स रेपो रेट क्या है.
रिवर्स रेपो रेट:
इतना मतलब है ‘रिवर्स रिपर्चेजिंग ऑप्शन रेट.’ हम सब जानते हैं कि रिवर्स का मतलब है ‘उल्टा.’ हालांकि, यह भी आरबीआई और कमर्शियल बैंकों के बीच ब्याज दर ही है. लेकिन अब कमर्शियल बैंक आरबीआई से ऋण नहीं ले रहे हैं.
बल्कि बहुत बार कमर्शियल बैंक अपने पैसे को आरबीआई के पास रखते हैं. ऐसे में, आरबीआई जब कमर्शियल बैंकों के पैसे को अपने पास रखता है तो वह बैंकों को इसका ब्याज देता है. अब जिस दर पर आरबीआई बैंकों को ब्याज देता है, उसे कहते हैं ‘रिवर्स रेपो रेट.’
इसका इस्तेमाल बाजार में कैश फ्लो को रोकने के लिए किया जाता है. क्योंकि अगर आरबीआई रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है तो बैंक ज्यादा से ज्यादा पैसा आरबीआई को देकर ब्याज से कमाना चाहते हैं. ऐसे में बैंकों से पैसा सामान्य लोगों के पास न जाकर आरबीआई के पास जाता है. जिससे बाजार में कैश-फ्लो रुकता है.
और अगर कभी बाजार में कैश-फ्लो को बढ़ाना हो तो आरबीआई रिवर्स रपो रेट को घटा देता है, जिससे कमर्शियल बैंक अपना ज्यादा पैसा ग्राहकों को ब्याज दर पर देते हैं.
इकॉनमी पर पड़ता है क्या असर:
अब सवाल है कि एमपीसी जो रेपो रेट व रिवर्स रेपो रेट निर्धारित करती है. उसका हमारे देश की इकॉनमी पर क्या असर पड़ता है. दरअसल आरबीआई की निर्धारित दरें देश में जमा खातों के साथ-साथ ऋणों पर ब्याज दरों को निर्धारित करती हैं.
अगर आरबीआई चाहता है कि बढ़ती मुद्रास्फीति (इन्फ्लेशन) नियंत्रित किया जाए तो वह रेपो रेट बढ़ा देता है. जिससे कमर्शियल बैंकों को उच्च ब्याज दरों पर कर्ज मिलता है. और इस कारण बैंक भी बहुत ऊंची ब्याज दर पर ग्राहकों को ऋण देते हैं.
अगर बैंक लोन पर ब्याज की दर अत्यधिक रखते हैं तो लोग कम लोन लेंगे और कम इन्वेस्टमेंट होगी. वहीं, मुद्रास्फीति गिरने की स्थिति में, आरबीआई ब्याज की दरों को घटाता है ताकि लोगों को अधिक पैसा खर्च करने के लिए मिले.
कोविड -19 महामारी के बाद से, आरबीआई और दुनिया भर के अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा इस रुख का पालन किया जा रहा है. ताकि जिन लोगों का रोजगार छीन गया है या बिज़नेस में घाटा हुआ है, उन्हें कम ब्याज दर पर लोन मिल जाए और वे एक बार फिर अपने पैरों पर खड़े हो सकें.
अब बजट 2022 के बाद पहली बार एमपीसी की बैठक हो रही है और यह देखना जरूरी है कि आरबीआई अब क्या रुख अपनाता है. ब्याज दरों का भारतीय शेयर बाजारों पर भी असर पड़ता है. उच्च ब्याज दरों की अवधि के दौरान, निवेशक अपना पैसा बैंकों में रखना पसंद करते हैं क्योंकि यह सुरक्षा और सुनिश्चित रिटर्न प्रदान करता है.