देशभर में जलकुंभी काफी मात्रा में पाई जाती है. अब इसी को देखते हुए जमशेदपुर के पर्यावरण वैज्ञानिक गौरव आनंद ने जलकुंभी के अच्छे इस्तेमाल का तरीका खोज निकाला है. वह साड़ी बनाने के लिए इस पौधे से फाइबर निकालते हैं. इसकी वजह से आज लगभग 500 परिवारों की आजीविका है. गौरव आनंद जलकुंभी की बढ़ती समस्या का एक स्थायी समाधान निकालना चाहते थे ताकि लोग इसे बाधा के रूप में नहीं बल्कि एक संसाधन के रूप में देखें. 46 साल के गौरव ने 2022 में अपना कॉर्पोरेट करियर छोड़कर खुद को पूरी तरह से इसके लिए समर्पित कर दिया. जिसके बाद उन्होंने स्वच्छता पुकारे फाउंडेशन की स्थापना की.
चटाई, कागज बन रही हैं जलकुंभी से
जलकुंभी का उपयोग चटाई, कागज और दूसरी हैंडीक्राफ्ट्स बनाने में भी किया जा रहा है. गौरव आनंद ने कहा कि इस पहल से झारखंड और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में जल निकायों के पास रहने वाली महिलाओं को सशक्त बनाने में मदद मिल रही है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए उन्होंने कहा कि महिलाएं जलस्रोतों से जलकुंभी निकालती हैं, उन्हें सुखाती हैं और उसमें से पतले रेशे निकालती हैं. इन्हें जिसे आगे संसाधित करके महीन धागों में बदला जाता है.”
इसका आइडिया कैसे आया?
स्वच्छता पुकारे फाउंडेशन का आइडिया कैसे आया इसके बारे में याद करते हुए कि यह सब कैसे शुरू हुआ, गौरव आनंद कहते हैं कि वे पिछले चार साल से नियमित रूप से नदियों और जल निकायों की सफाई कर रहे हैं. इस दौरान उन्होंने देखा कि ज्यादातर समय यह जलकुंभी से भरे रहते हैं. गौरव कहते हैं, “हमने इस क्षेत्र का पता लगाया और पाया कि कुछ लोग असम और पश्चिम बंगाल में छोटे स्तर पर इस पर काम कर रहे हैं. उनसे प्रेरित होकर हमने इस पर काम करना शुरू किया और इस क्षेत्र में आजीविका पैदा करने के लिए लैंपशेड, नोटबुक और शोपीस तैयार किया.”
क्या होता है इससे फायदा?
इस बीच, गौरव ने पाया कि जलकुंभी में सेल्यूलोज होता है जो फाइबर की बुनियादी आवश्यकता है. गौरव कहते हैं, “इसका फायदा जानने के बारे में हमने ऐसे लोगों से संपर्क करना शुरू किया जो इससे तैयार सामग्री से बुनाई कर सकते हैं. हालांकि, एक साल बाद सभी ने कहा कि यह बिल्कुल भी संभव नहीं है. हमने कपड़ा उद्योग और उससे जुड़े प्रोफेसरों से भी संपर्क किया. उन्होंने भी कहा कि ये संभव नहीं है.”
अलग-अलग हिस्सों का इस्तेमाल होता है
इन सबको देखते हुए पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 23 साल की पृष्ठभूमि के साथ, गौरव ने इसपर कुछ रिसर्च करनी शुरू की. इस रिसर्च में ये पाया गया कि जलकुंभी से निकाले गए फाइबर से साड़ियों को तैयार करना वास्तव में संभव है. उन्होंने पश्चिम बंगाल के शांतिपुर में इसे बनाने की प्रक्रिया शुरू की. गौरव ने कहा कि वे कागज बनाने के लिए तने के नरम आवरण को रखते हैं और लुगदी का उपयोग फाइबर बनाने के लिए किया जाता है. गूदे से कीड़ों को दूर करने के लिए गर्म पानी से उपचारित करने के बाद तने से रेशे निकाले जाते हैं. इन रेशों का इस्तेमाल धागा बनाने में किया जाता है और इसके बाद उन पर रंग लगाया जाता है.
एक साड़ी को बनाने में लगते हैं 3-4 दिन
इन धागों को बुनकरों द्वारा साड़ियों में बदला जाता है. एक साड़ी को बनाने में लगभग 3-4 दिन का समय लगता है. गौरव का दावा है कि ये दुनिया में अपनी तरह का पहला उत्पाद है. उन्होंने कहा कि जलकुंभी से निकाले गए फाइबर का लगभग 25 प्रतिशत अन्य सामग्रियों के साथ मिलाया जाता है और साड़ियों के दूसरे प्रोडक्ट तैयार किए जा रहे हैं. गौरव के अनुसार, वे इस बात से काफी खुश हैं कि वे 450 से ज्यादा ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने में सक्षम रहे हैं.
एक साड़ी की कीमत 2000-3000 रु
स्वच्छता पुकारे फाउंडेशन के मैनेजर कौशिक मोंडल कहते हैं कि चूंकि धागे को मैन्युअल रूप से बनाना एक बोझिल काम है, इसलिए उन्होंने हैदराबाद और तमिलनाडु के इरोड में कुछ छोटे उद्योगों से संपर्क किया है, जहां टेक्नोलॉजी से धागा तैयार किया जा रहा है. अगर 100 फीसदी जल जलकुंभी की साड़ी बनाई जाती है, तो यह ताकत में बहुत कमजोर होगी, इसलिए इसे मजबूत करने के लिए कपास, पॉलिएस्टर, टसर और अन्य फाइबर जैसी सामग्री का उपयोग किया जाता है. एक साड़ी की कीमत लगभग 2,000-3,500 रुपये है.