सदियों से चला आ रहा पारले जी बिस्कुट आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है. बुजर्ग से लेकर बच्चा तक सब इसके स्वाद से वाकिफ हैं. तभी यह कंपनी बिस्कुट से सिर्फ पैसे नहीं बल्कि लोगों का अथाह प्यार भी कमाती है. लेकिन क्या आपको पता है कि बिस्कुट का बिजनेस शुरू करना बिजनेसमैन प्रकाश चौहान की पहली च्वाइस नहीं थी. जी हां, आज हम आपको इसकी कुछ बैक स्टोरी बताएंगे.
पहले क्या था बिजनेस?
Parle एग्रो के सीएमडी प्रकाश चौहान ने शेयर की पारले जी के सफर की कहानी. उन्होंने जब फैमिली बिजनेस संभाला तो उनका आइडिया बिस्कुट बनाने का नहीं बल्कि सिगार बनाने का था. उन्होंने बताया कि वो खुद भी सिगार पीते थे. जब वो अमेरिका से वापस आए तो बिजनेस में उनके भाई सॉफ्ट ड्रिंक्स का काम करते थे और पिता प्रोस्ट प्रोडक्शन का सारा काम संभालते थे, लेकिन उनका मन कुछ नया करने का था. वो तिरुच्चिराप्पल्ली गए और सिगार रोलर ढूंढ़ा और सिगार सेलेक्ट किया. इसके बाद उन्होंने बंगाल टाइगर के नाम से सिगार बनानी शुरू कर दी. उस समय सिगरेट आदि पर कोई टैक्स या एक्साइज ड्यूटी नहीं लगती थी. फिर साल 1972 में अचानक से इन चीजों पर 0% से 220% रुपये का टैक्स लगने लगा. लेकिन उस बिजनेस में इतनी ऊंच-नीच आई कि उन्होंने इस धंधे को वहीं बंद करने का सोचा.
स्वदेशी आंदोलन से जुड़े तार
पारले जी बिस्किट कितना पुराना है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके तार महात्मा गांधी के स्वदेशी आदोंलन से जुड़े हुए हैं. उस समय जब विदेशी चीजें ही भारतीय मार्केट में बेची जाती थी. उस वक्त अंग्रेज लोग कैंडी बेचा करते थे जोकि काफी महंगी हुआ करती थी और इस सिर्फ अमीर लोग ही खरीदते थे. ये बात उस वक्त के एक व्यापारी मोहनलाल दयाल को बिल्कुल पसन्द नहीं थी. स्वदेशी आदोंलन से काफी प्रभावित मोहनलाल दयाल इस भेदभाव को खत्म करना चाहते थे. यहीं से उन्होंने फैसला किया कि वो एक ऐसी कैंडी बनायेंगे जो भारत में ही बनेगी और जिसे भारत के लोग आसानी से खरीद सकेंगे.
पहले बनाते थे कैंडी
इसके बाद वो कैंडी बनाना सीखने के लिए जर्मनी चले गये. जब वो कैंडी बनाना सीख गए तो जर्मनी से ही उन्होंने 60 हजार रूपये में कैंडी बनाने की मशीन खरीद ली. साल 1929 में मोहनलाल दयाल चौहान भारत वापस आए और व्यापार करना शुरू कर दिया. वो पहले रेशम के व्यापारी थे. अपने नये व्यापार को शुरू करने के लिए उन्होंने मुंबई के पास ईलाा-पार्ला में एक पुरानी फैक्ट्री खरीदी. मोहनलाल के पास शुरुआत में सिर्फ 12 कर्मचारी ही थे और यह सब उनके परिवार वाले ही थे. उन सब ने मिलकर दिन-रात एक किए और पुरानी सी उस फैक्ट्री को एक नया रूप दिया. ये कम्पनी पार्ला में खोली गई थी इसलिए उन्होने अपनी कम्पनी का नाम पारले रख लिया.
मोहनलाल ने अपना स्वदेशी व्यापार तो शुरू कर दिया था मगर उन्हें अभी कई और चीजे लानी बाकी थी. भारत में रहने वाले अंग्रेज उस वक्त अपनी चाय के साथ जो बिस्किट खाया करते थे वो भी काफी महंगा हुआ करता था. तब मोहनलाल भारतीयों के लिए एक ऐसा बिस्किट बनाना चाहते थे जो गरीब से गरीब व्यक्ति भी खा सके. यही सोचकर उन्होंने 1939 में उन्होंने की शुरुआत पार्ले-ग्लूको की. पार्ले-ग्लूको गेहूं से बना बिस्किट था. उन्होंने इसके दाम भी काफी कम रखे थे. पारले कंपनी में दूध, चीनी और ग्लूकोज से कई चीजें बनाई जाने लगीं.