भारत में कोई भी त्योहार हो या खास मौका हो, पकवान बनने तो तय हैं. और ज्यादातर भारतीय घरों में पकवान, मिठाई जैसी चीजें बनाने के लिए आज भी देशी घी को प्राथमिकता दी जाती है. महंगी से महंगी ब्रांड का कुंकिग ऑइल भी भारतीय घरों में देशी घी की जगह नहीं ले सकता है. लेकिन आज हम आपको बता रहे हैं ऐसे वनस्पति घी के बारे में जो एक जमाने में देशी घी का विकल्प हुआ करता था.
यह कहानी है डालडा की. पीला टिन का डिब्बा और उस पर हरे रंग से बना खजूर का पेड़- अगर आप ये बात अपने दादा-दादी या नाना-नानी से कहेंगे तो उनका जवाब होगा- डालडा. जी हां, डालडा की पैकेजिंग की अपनी ही एक पहचान थी. एक जमाना था जब डालडा घी हर एक भारतीय घर, खासकर कि मिडिल क्लास परिवारों में बहुत सामान्य था. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि डालडा भारतीय नहीं बल्कि विदेशी कंपनी थी.
कैसे हुई शुरुआत
डालडा की कहानी 1930 के दशक में शुरू हुई जब डच व्यापारियों ने घी के विकल्प के रूप में हाइड्रोजनीकृत तेल (वनस्पति घी) को भारत में पेश किया. इंग्लैंड के लीवर ब्रदर्स (आज का यूनिलीवर) इस समय तक यूरोप में फूड प्रॉडक्ट्स बिजनेस में दाखिल हो चुके थे. उन्होंने भारत में हाइड्रोजनेटेड तेल में एक अवसर देखा क्योंकि देशी घी महंगा था और बहुत से लोग इसे नहीं खरीद सकते थे.
आपको बता दें कि आधुनिक भारतीय बाजारों में, वनस्पति का उपयोग के वेजिटेबल ऑयल के संदर्भ में किया जाता है जिसे हाइड्रोजनेटेड तरीके से बनाया जाता है और फिर हार्ड किया जाता है. वनस्पति घी दूध से बने घी का एक सस्ता विकल्प है.
साल 1931 के आसपास, लीवर ब्रदर्स ने भारत में हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग लिमिटेड नाम से एक कंपनी की स्थापना की. उन्होंने 1932 में सेवरी, भारत (आज का ग्रेटर मुंबई) में एक कारखाना भी स्थापित किया और डच से वनस्पति घी बनाने के मैन्यूफैक्चरिंग राइट्स खरीदे. हालांकि डच कंपनी, डाडा (DADA) की शर्त थी कि उनका नाम बिक्री में इस्तेमाल हो. ऐसे में, लीवर ब्रदर्स ने दिमाग से काम लिया और DADA के बीच लीवर का L लगा दिया और साल 1937 में जन्म हुआ DALDA का.
बुलंदी तक पहुंचने का सफर
द स्ट्रेटजी स्टोरी के मुताबिक, डालडा की शुरुआत तो लीवर ब्रदर्स कर चुके थे लेकिन अब चुनौती थी इस भारत के हर घर में पहुंचाने की. भारतीयों को यह विश्वास दिलाने की कि वनस्पति घी, देशी घी के जैसे ही स्वाद वाले पकवान बना सकता है. और सबसे अच्छी बात की यह देशी घी से सस्ता है. और इस काम को किया हार्वे डंकन ने.
हार्वे डंकन, विज्ञापन एजेंसी लिंटास से जुड़े हुए थे और उन्होंने डालडा की मार्केटिंग की कमान संभाली थी और फिर 1939 में भारत में पहला मल्टी-मीडिया विज्ञापन अभियान आया. लिंटास कंपनी ने एडवरटाइमेंट के लिए हर एक माध्यम का इस्तेमाल किया था. सिनेमाघरों में दिखाने के लिए डालडा पर बॉम्बे टॉकीज ने एक शॉर्ट फिल्म बनाई. सड़कों और ग्रामीण इलाकों में गोल टिन के आकार की वैन चलाई गई.
पढ़े-लिखे लोगों के लिए प्रिंट एड्स और लीफलेट्स छपवाए गए. सैम्पलिंग को बढ़ावा देने के लिए सड़क के किनारे स्टॉल लगाए गए, जहां पैदल चलने वाले लोग डालडा घी को देख सकते थे और स्टॉल्स पर इससे तैयार भोजन का स्वाद ले सकते हैं और पकाए जाने के दौरान इसकी सुगंध को सूंघ सकते थे.
लगातार एडवर्टाइजमेंट और सस्ती कीमतों ने डालडा की बिक्री को नए स्तरों पर पहुंचा दिया. ब्रांड सामान्य वनस्पति घी का पर्याय बन गया और 1980 के दशक तक भारतीय बाजारों में लगभग एकाधिकार बनाए रखा.
विवादों के कारण डूबी ब्रांड
डालडा की बढ़ती लोकप्रियता के कारण दूसरी कंपनियों को नुकसान झेलना पड़ रहा था. साल 1950 के आसपास डालडा को एक बड़े विवाद का सामना करना पड़ा. दरअसल, दावा किया गया था कि डालडा एक झूठ है, और यह देसी घी की नकल करता है.आलोचकों ने तर्क दिया कि डालडा देसी घी का मिलावटी वर्जन है और इसका हाई सैचुरेटेड फैट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
हालांकि, यह विवाद डालडा पर हावी न हो सका. लेकिन इसके कुछ साल बाद, फिर से डालडा पर आरोप लगे कि इस बनाने में जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल किया जा रहा है, और यह उपभोग के लिए अनुपयुक्त है. इस समय तक बाजार में कई क्लियर या रिफाइंड तेल ब्रांड आ चुके थे, जिन्हें स्वास्थ्यवर्धक माना जा रहा था. डालडा को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था और वह तेजी से अपनी बाजार हिस्सेदारी खो रहा था. और इस प्रकार, एचयूएल ने लगभग 90 करोड़ रुपये में ब्रांड को अमेरिकी भोजन और कृषि प्रमुख बंज (Bunge) को बेच दिया
एक बार फिर की मार्केट में एंट्री
Bunge के लिए बड़ी चुनौती थी इस ब्रांड को शुद्धता के प्रतीक के रूप में फिर से स्थापित करना और विश्वास (और गिरते मूल्य बिंदु) को पुनर्जीवित करना था. वर्षों से, Bunge ने ऐसा करने के लिए कई पहल की. डालडा को एक अंब्रेला ब्रांड के रूप में स्थापित किया और जियोग्राफी के आधार पर विभिन्न प्रकार के रिफाइंड तेलों (सोयाबीन, सूरजमुखी, पामोलिव, आदि) की बिक्री शरू की.
'डब्बा खाली पेट फुल कैंपेन,' 'घर का खाना' और 'भजन से भोजन तक' जैसे विज्ञापनों का मदद से फिर से डालडा की छवि पर काम किया गया.
विश्व प्रसिद्ध रेत कलाकार सुदर्शन पटनायक की सैंड आर्ट ने भी इसे प्रमोट किया. 'डायल डी' कैंपेन में डालडा ने लोगों को अपने अंदर के कुक को खोजने को लिए प्रेरित किया. और "नए ज़माने का नया डालडा" कैंपेन की मदद से यह ब्रांड एक बार फिर घरों में जगह बना रही है.