पीढ़ियों से, रूह अफज़ा बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान में मशहूर रहा है. खासकर रमजान के महीने में लाल रंग की इस ड्रिंक को किराना स्टोर और फार्मेसियों में देखा जा सकता है. हालांकि इसे वर्तमान समय में शरबत के नाम से जाना जाता है. आपको बता दें कि रूह अफजा की विरासत 100 से ज्यादा साल पुरानी है. और एक समय में, यह एक यूनानी औषधि हुआ करती थी. रूह अफजा बनाने वाली कंपनी का नाम हमदर्द है और इसका इतिहास बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान से काफी पुराना है.
हमदर्द की स्थापना मूल रूप से दिल्ली, भारत में हुई थी. हमदर्द के संस्थापक, हकीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद का जन्म 1883 में पेलिवेट, भारत में हुआ था. अपने पहले शैक्षिक जीवन में, उन्होंने पवित्र कुरान को पूरी तरह से कंठस्थ कर लिया और बाद में फ़ारसी भाषा सीखने पर ध्यान केंद्रित किया. भाषाई-संबंधी ज्ञान प्राप्त करने के बाद, उन्होंने यूनानी चिकित्सा में अपनी सर्वोच्च उपाधि अर्जित की. 1906 में, उन्होंने दिल्ली के लोगों को यूनानी उपचार प्रदान करने के लिए हमदर्द की स्थापना की.
लोगों का करते थे उपचार
हमदर्द शब्द फारसी के दो शब्दों "हम" और "दर्द" से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है "एक साथी जो दर्द को दूर करने में मदद कर सकता है." उस समय वे अनेक प्रकार की यूनानी औषधियों से अपने रोगियों को अनेक रोगों का उपचार करते थे. इसके अलावा, उन्होंने विभिन्न रोगों के लिए कई जड़ी-बूटियां और यूनानी दवाएं भी बनाईं. 1907 में इस तरह की दवाई बनाते वक्त हकीम अब्दुल मजीद ने एक नया सीरप बनाया जिसमें कई जड़ी-बूटियां और फलों का मिश्रण था.
उन्होंने इस गाढ़े लाल रंग के शरबत को हीट स्ट्रोक, डिहाइड्रेशन और डायरिया जैसी बीमारियों के इलाज के लिए यूनानी दवा के रूप में बनाने की कोशिश की और इसे "रूह अफज़ा" नाम दिया. यह पेय भारत में बहुत लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह ठंडे पानी या दूध के साथ पीने में बहुत स्वादिष्ट होता था, जो गर्मियों में तनाव को कम कर सकता है. इस वजह से हकीम हाफिज अब्दुल मजीद ने एक उचित मार्केटिंग चैनल के जरिए इस उत्पाद को बढ़ावा देने की पहल की.
बंबई में छपा था लोगो
उन्होंने 1910 में रूह अफ़ज़ा का लोगो बनाने के लिए मिर्ज़ा नूर अहमद की मदद ली. हालांकि, दिल्ली के प्रिंटिंग प्रेस तब इतने उन्नत नहीं थे, इसलिए लोगो को ठीक से प्रिंट नहीं किया जा सकता था. छपाई का काम बेहतर छपाई की गुणवत्ता के लिए बंबई से किया जाता था. इसलिए हमदर्द रूहअफजा का लोगो भी बंबई से बनकर आया. अपनी मार्केटिंग गतिविधियों के कारण रूह अफजा आम लोगों तक आसानी से पहुंच सका. साथ ही अपने स्वाद और गुणवत्ता के कारण इसने बहुत जल्दी लोकप्रियता हासिल कर ली.
खासकर 1915 में रूह अफजा दिल्ली के मुस्लिम समुदाय में काफी लोकप्रिय हो गया था. लेकिन हकीम हाफिज अब्दुल मजीद रूह अफजा की लोकप्रियता को ज्यादा दिनों तक नहीं देख पाए. 1922 में उनकी मृत्यु हो गई, केवल 34 वर्ष की आयु में, और उनकी पत्नी राबिया बेगम हमदर्द की प्रभारी बनीं. सहकीम हाफिज अब्दुल मजीद के दो बेटे थे. कार्यभार संभालने पर, राबिया बेगम ने हमदर्द को इस्लामिक चैरिटेबल ट्रस्ट या वक्फ घोषित कर दिया, जहां हमदर्द के पूरे मुनाफे का इस्तेमाल जन कल्याण के लिए किया जाएगा.
रसोई से फैक्ट्री तक का सफर
शुरुआत में रूह अफ़ज़ा को एक छोटी सी रसोई में तैयार करके बोतलबंद किया जाता था. लेकिन जैसे-जैसे इसकी लोकप्रियता और मांग बाद के समय में बढ़ती गई, 1940 में पुरानी दिल्ली के दरियागंज में एक फैक्ट्री स्थापित की गई. तब तक अब्दुल मजीद के छोटे बेटे हकीम मुहम्मद सईद ने भी पूर्वी चिकित्सा में उच्च डिग्री के साथ स्नातक की पढ़ाई पूरी कर ली थी. 1947 में बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग देश बन गए.
अब्दुल मजीद के सबसे बड़े बेटे अब्दुल हमीद भारत में रहे और हमदर्द इंडिया का प्रबंधन करते रहे. दूसरी ओर, उनका छोटा बेटा हकीम मुहम्मद सईद 1948 में पाकिस्तान चला गया, और वहाँ कराची के आराम बाग में, उन्होंने "तिब्ब-ए-यूनानी" नाम से एक क्लिनिक की स्थापना की, जो वर्तमान में हमदर्द पाकिस्तान है. हालांकि भौगोलिक कारणों से पाकिस्तान में रूह अफज़ा बनाने की सभी सामग्रियां उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए कुछ सामग्रियों में थोड़ा बदलाव करना पड़ा. हमदर्द पाकिस्तान के तहत मुहम्मद सईद द्वारा बनाए गए रूह अफजा की पहले दिन केवल 12 बोतलें बिकीं, लेकिन धीरे-धीरे रूह अफजा की लोकप्रियता और मांग पाकिस्तान में भी बढ़ गई.
भारत, पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश
इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए, मोहम्मद सईद ने बाद में 1953 में नजीमाबाद, पाकिस्तान में एक नया विनिर्माण केंद्र स्थापित किया. उसी वर्ष मोहम्मद सईद ने पूर्वी पाकिस्तान में हमदर्द की एक शाखा की स्थापना की. 1971 में, बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद, मोहम्मद सईद ने शाखा को वक्फ संस्था के रूप में बंद करने के बजाय बांग्लादेशी प्रबंधन को सौंप दिया. वर्तमान में, हमदर्द बांग्लादेश में धर्मार्थ अस्पतालों के साथ-साथ स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ सबसे बड़े वक्फ संस्थानों में से एक है.
द न्यूयॉर्क टाइम्स के एक सूत्र के मुताबिक, हमदर्द के भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का संचालन स्वतंत्र रूप से चलता है. हालांकि, तीन देशों में हमदर्द के रूह अफजा का स्वाद, मौसम और पर्यावरण के आधार पर थोड़ा अलग होता है. पिछले कुछ वर्षों में रूह अफज़ा ने पचनौल, साफी, रोगन बादाम शिरीन जैसे उत्पाद लॉन्च किए. आज रूह अफजा घर-घर की ब्रांड बन चुका है. तीनों ही देशों में लोगों के लिए यह उनकी रसोई का जरूरी हिस्सा है. भारत में आज भी गर्मियों में लोग रूह अफजा न सिर्फ खुद पीते हैं बल्कि मेहमानों को भी परोसा जाता है.