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Explainer: अमित शाह की अगुवाई वाली राजभाषा समिति ने राष्ट्रपति को सौंपी रिपोर्ट, जानिए क्यों बरपा है हंगामा

संसदीय राजभाषा समिति ने हाल ही में राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें कुछ सुझाव भी दिए गए हैं. दरअसल, उस रिपोर्ट में हिंदी भाषा के उपयोग को लेकर कुछ सुझाव दिए गए हैं. जिसे लेकर केरल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार पर निशाना साधा है. आइए जानतें हैं क्या है पूरा मामला..

अमित शाह ( फाइल फोटो) अमित शाह ( फाइल फोटो)
हाइलाइट्स
  • तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्री ने जताया विरोध

गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा समिति ने पिछले महीने ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को रिपोर्ट सौंपी थी. जिसपर अब राजनीतिक बयानबाजी तेज हो गई है. तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्रियों ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि केंद्र सरकार द्वारा गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपा जा रहा है.

हालांकि, समिति के सदस्यों ने कहा कि उनकी प्रतिक्रिया 'गलत' थी क्योंकि रिपोर्ट की कथित सामग्री पर मीडिया रिपोर्ट 'भ्रामक' थी. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति को सौंपी गई रिपोर्ट गोपनीय है.

राजभाषा समिति क्या है?

राजभाषा पर संसद की समिति की स्थापना 1976 में राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 4 के तहत की गई थी. अधिनियम की धारा 4 में कहा गया है कि 'राजभाषा पर एक समिति का गठन किया जाएगा. इस संबंध में किसी भी प्रस्ताव को या तो पेश किया जाएगा या फिर संसद का सदन राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से दोनों सदनों में पारित करेगा.

बता दें कि समिति की अध्यक्षता केंद्रीय गृह मंत्री करते हैं. 1963 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार समिति में 30 सदस्य हैं. उन सदस्यों में लोकसभा से 20 सांसद और राज्यसभा के 10 सांसद हैं. समिति का मुख्य काम आधिकारिक उद्देश्यों के लिए हिंदी के प्रयोग में हुई प्रगति की समीक्षा करना और सरकारी संचार में हिंदी के उपयोग को बढ़ाने के लिए सिफारिशें करना है.

जानिए पूरा मामला क्या है?

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने हाल ही में 9 सितंबर को अपनी 11वीं रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी है. रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं है. समिति के करीबी सूत्रों ने कहा कि रिपोर्ट में समिति ने लगभग 100 सिफारिशें की हैं, जिसमें कहा गया है कि हिंदी भाषी राज्यों के आइआइटी (IIT), केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा केंद्रीय विद्यालय जैसे तकनीकी और गैर-तकनीकी उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा का माध्यम हिंदी होनी चाहिए. देश के अन्य हिस्सों में स्थानीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए. बता दें कि पैनल में भाजपा का सबसे बड़ा प्रतिनिधित्व है. अधिकांश सदस्य सत्तारूढ़ दल के हैं. और इसमें बीजद, कांग्रेस, जदयू, शिवसेना, लोजपा, आप और टीडीपी के सांसद शामिल हैं.

एक सूत्र ने सिफारिशों का जिक्र करते हुए कहा कि, प्रशासन में संचार के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा हिंदी होनी चाहिए और पाठ्यक्रम को हिंदी में पढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए. समिति ने यह भी सिफारिश की है कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में से एक होनी चाहिए.

समझा जा रहा है कि पैनल ने केंद्र सरकार के उन अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को गंभीरता से लिया है, जो हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी का उपयोग नहीं करते हैं. सूत्रों ने कहा कि पैनल चाहता है कि राज्य सरकारें अधिकारियों को चेतावनी दें कि हिंदी का उपयोग करने में उनकी अनिच्छा उनकी वार्षिक प्रदर्शन आकलन रिपोर्ट (एपीएआर) में दिखाई देगी.

एक सूत्र ने कहा कि, 'यह समिति की जिम्मेदारी और भूमिका है कि यह देखें कि आधिकारिक संचार में हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया जाता है या नहीं. संचार का माध्यम, जिसमें पत्र और ईमेल, भर्ती परीक्षा के प्रश्न पत्र, सरकार और उसके विभागों द्वारा आयोजित कार्यक्रम शामिल हैं, वो हिंदी में होने चाहिए.

कुल मिलाकर सिफारिशों की मुख्य बाते यही हैं कि 'सरकारी संचार में अंग्रेजी भाषा के उपयोग को कम करने और हिंदी के उपयोग को बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए'.

समिति के उपाध्यक्ष ने पूरे मामले पर रखी अपनी बात

बीजद के वरिष्ठ सांसद और समिति के उपाध्यक्ष भर्तृहरि महताब ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि 'केरल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रिया भ्रामक सूचनाओं पर आधारित प्रतीत होती है'. क्योंकि समिति की सिफारिशों पर सामने आई कुछ रिपोर्टें भ्रमित करने वाली थीं'.

महताब के अनुसार, 'तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों को राजभाषा अधिनियम, 1963 और रुल और रेगुलेशन एक्ट 1976 के अनुसार छूट दी गई है. कानून केवल 'ए' श्रेणी के राज्यों में लागू किया जाता है, जिसमें आधिकारिक भाषा हिंदी है'.

हिंदी की उपयोगिता पर क्या कहता है नियम?

नियमों के अनुसार, 'ए' श्रेणी में बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्य और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं. क्षेत्र 'बी' में गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली शामिल हैं. अन्य राज्य, जहां हिंदी का उपयोग 65 प्रतिशत से कम है, वो क्षेत्र 'सी' के अंतर्गत आते हैं. समिति ने सुझाव दिया है कि 'ए' श्रेणी वाले राज्यों में 100 प्रतिशत हिंदी का उपयोग करने का प्रयास किया जाना चाहिए.

सरकारी विभागों में हिंदी के प्रयोग पर महताब ने कहा, 'रक्षा और गृह मंत्रालयों में हिंदी का प्रयोग शत-प्रतिशत है, लेकिन शिक्षा मंत्रालय अभी तक उस स्तर तक नहीं पहुंचा है. समिति के पास भाषा के उपयोग का आकलन करने के लिए कुछ मानदंड थे और उसने पाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, बीएचयू और एएमयू सहित कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, हिंदी का उपयोग केवल 25-35 प्रतिशत है जबकि इसे 100 प्रतिशत होना चाहिए था'.

क्या यह पहली बार है, जब इस तरह की सिफारिशें की गई हैं?

संविधान निर्माताओं ने तय किया था कि गणतंत्र के पहले 15 वर्षों के लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों को आधिकारिक भाषाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन दक्षिण में हिंदी को लेकर तीखे विरोध आंदोलनों के मद्देनजर, केंद्र ने घोषणा की कि अंग्रेजी जारी रहेगी. बता दें कि 18 जनवरी, 1968 को संसद ने भारत संघ द्वारा आधिकारिक उद्देश्यों के लिए हिंदी के उपयोग को बढ़ाने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम बनाने के लिए राजभाषा प्रस्ताव पारित किया था.

बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 351 द्वारा अनिवार्य रूप से हिंदी के सक्रिय प्रचार के साथ, आधिकारिक संचार में हिंदी के उपयोग की समीक्षा और प्रचार करने के लिए राजभाषा समिति का गठन किया गया था. समिति की पहली रिपोर्ट 1987 में प्रस्तुत की गई थी. 2011 में तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता वाले पैनल द्वारा प्रस्तुत नौवीं रिपोर्ट में सरकारी कार्यालयों में कंप्यूटर में हिंदी के उपयोग को बढ़ाने के सुझावों सहित 117 सिफारिशें की गई थीं.

2020 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) की घोषणा ने भी इस मुद्दे पर विवाद खड़ा कर दिया था. दक्षिण भारत के राजनेताओं ने 'हिंदी और संस्कृत को थोपने' के प्रयासों का आरोप लगाया था. हालांकि, केंद्र ने कहा था कि वह केवल क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा दे रहा है.