शुरुआती समय से बेटियों या महिलाओं को ‘घर की इज्जत’ से जोड़ा जाता रहा है. अगर आपके घर की महिला छत पर खड़ी है तो आपकी इज्जत छत पर खड़ी है, अगर आपकी बेटी बाहर है तो आपकी घर की इज्जत बाहर है. और इसका सबसे ज्यादा असर बेटियों या महिलाओं की आजादी और उनकी शिक्षा पर पड़ा. महिला साक्षरता भारत के लिए प्रमुख समस्याओं में से एक रही है. सामाजिक बेड़ियां, जाति, आर्थिक समस्या, जल्दी शादी, छेड़खानी, दुर्व्यवहार, हाइजीन की समस्या, अंधविश्वास और शिक्षार्थियों के उदासीन रवैये आदि जैसी कई चीजों ने बेटियों की पढ़ाई को बाधित किया. हालांकि, कई महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्होंने इन सभी बेड़ियों को तोड़ते हुए अपने कदम आगे बढ़ाए और दूसरी महिलाओं के लिए पुल बनाने का काम किया. उन्हीं में से एक हैं मनदीप शर्मा. जिन्होंने करनाल के एक स्कूल की प्रिंसिपल रहते हुए कैंपस में आ रहे असामाजिक तत्वों को बाहर भगाने और स्कूल की छात्राओं को सुरक्षित माहौल दिया. उन्होंने स्कूल की बच्चियों को सशक्त बनाने के लिए "बेखौफ" नाम से एक पहल शुरू की, जिसने लड़कियों को निडर और महत्वाकांक्षी बनाया.
बता दें, करनाल का ये गांव दुनिया में भारत का गौरव बढ़ाने वाली एस्ट्रॉनॉट कल्पना चावला का पैतृक गांव है. जहां जल्द ही 100 एकड़ जमीन पर कल्पना चावला मेडिकल यूनिवर्सिटी बनने जा रही है.
छात्राओं को मिली बेखौफ पहल से हिम्मत
दरअसल, कुटेल गांव हरियाणा के करनाल जिले से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां के गवर्नमेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पिछले कई साल से छात्राएं स्ट्रीट हैरेसमेंट (Street Harassment) का सामना कर रही थीं. कई बार हालात यहां तक बिगड़े की लड़कियां स्कूल आने से डरने लगी थीं. लेकिन इसे रोकने के लिए वहां की प्रिंसिपल रही मनदीप शर्मा ने ‘बेखौफ’ नाम की एक पहल शुरू की. इस पहल से स्कूल की लड़कियों को इतनी हिम्मत मिली की उन सभी ने स्कूल कैंपस में बाइकों पर आ रहे लड़कों का सामना डटकर किया और इस हर्रासमेंट को खत्म करने में साथ दिया.
स्कूल में पढ़ रहीं छात्राएं कहती हैं, ”माहौल इतना बिगड़ चुका था कि हमें स्कूल आने में डर लगने लगा था. कई बार ऐसा हुआ कि अगर हमारे साथ वाली नहीं आती थीं तो हम भी उस दिन स्कूल नहीं जाते थे. बाइक पर आ रहे लड़कों ने इस हद तक परेशान कर दिया था कि घर अकेले जाने में भी डर लगने लगा था.”
‘बाइक चलाते हुए लड़के आते थे स्कूल कैंपस में’
प्रिंसिपल मनदीप शर्मा ने GNT डिजिटल को बताया, “हमारे लिए ये काफी दर्दनाक था. जब मेरी यहां पोस्टिंग हुई तो लड़के बाइक चलाते हुए कैंपस के अंदर तक चले आते थे. जब मैंने पता किया तो मुझे बताया गया कि ये आवारा लड़के हैं और स्कूल कैंपस के अंदर तक चले आते हैं. तब मैंने सबसे शुरू में उनकी टाइमिंग नोट करनी शुरू कर दी. जब तक मैं बाहर उन्हें देखने के लिए जाती थी वो लोग भाग जाते थे, तो इसके लिए मैंने अपनी गाड़ी गेट के सामने लगानी शुरू कर दी. उनमें से कुछ की फोटोज भी ली. कई लड़कियां थीं जो दूसरे गांवों से आती हैं, ये आवारा “लड़के उन्हें उनके घरों तक छोड़ने जाते थे पीछे पीछे. इसमें सबसे बड़ी बात जो मैंने नोटिस की कि लड़कियां बहुत डरी हुई थीं. उन लड़कियों के लिए ही ये बेखौफ कैंपेन चलाया गया.”
हालांकि, ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी. इसमें ब्रेकथ्रू ने मनदीप का काफी साथ दिया. बता दें, ब्रेकथ्रू एक एनजीओ है जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर देश के अलग-अलग राज्यों में पिछले कई साल से काम कर रहा है. मनदीप कहती हैं, “मेरी मुलाकात ब्रेकथ्रू से जीएसएसएस कुटेल की प्रिंसिपल बनने के बाद हुई. स्कूल में बदलाव लाने में मुकेश, प्रदीप, दीपक, प्रीति सहित पूरी टीम ने मुझे स्कूल के माहौल में बदलाव लाने में मदद की. ब्रेकथ्रू द्वारा चलाए जा रहे कई प्रोग्राम का प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों पर पड़ा जिन्होंने न केवल स्कूल के बच्चे पर बल्कि उनके माता-पिता को भी समझाया. हमने युवा लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए "बेखौफ" नाम से एक पहल शुरू की, जो लड़कियों को निडर और महत्वाकांक्षी बनाने में सफल रही.”
कुछ इस तरह किया उन लड़कों का सामना
मनदीप शर्मा आगे कहती हैं, “हमारे स्कूल में 6 गांव की लड़कियां आती हैं. लड़कियां नाम लेने में भी डरती थीं. एक दिन एक फौजी का फोन आया उन्होंने कहा कि मैम मैं अपनी बहन को छोड़ने आ रहा था वो लड़के मेरे साथ साथ अपनी बाइक लेकर आ रहे थे. एक भाई होने के नाते मैंने उस वक्त सहन कर लिया, ऐसे में मैं अपनी बहन को स्कूल नहीं भेजूंगा. लेकिन मेरी बहन चाहती है कि मैं एक बार आप से बात करूं. वो दो रात थीं जब मैं सो नहीं पाई थी. तभी मैंने फैसला किया कि मैं ये सब बंद करवाकर ही रहूंगी.”
मनदीप शर्मा बताती हैं, “मैंने स्कूल के बाहर खड़ा होना शुरू कर दिया, ताकि लड़कियों के साथ-साथ मैं भी आई-विटनेस बनूं. मैंने उनकी शक्लें देखीं और उन्हें पहचाना भी, पर मुझे लगा कि इससे बात नहीं बनेंगी. ऐसे में मैंने आसपास के दुकानदारों से बात की और उनसे कहा कि आप बस इन लड़कों की फोटो खींच लेना. उन्होंने अगले दिन मुझे फोटो भेज दी. मैंने उनसे उनके घरों के बारे में भी पता करा और फिर उनके यहां कॉल किया. मैंने उन लड़कों के घरवालों को कहा कि मैं इन्हें अरेस्ट करवाउंगी. ऐसे में पंचायत और एमएलए ने भी साथ दिया. मैंने पूरे गांव में मुनादी करवाई, जिससे ये फायदा हुआ कि लड़कों को हमारा डर लगने लगा.”
मुझे डराने के लिए आते थे मैसेज
मनदीप आगे कहती हैं, “मेरे पास कई बार मैसेज भी आए कि तुम तो चली जाओगी, कितने दिन बचाओगी इन्हें. तब मुझे भी लगा कि हां शायद ये सही है मैं चली जाउंगी. जिसको सोचते हुए मैंने पुलिस से बात कि और अगले दिन सुबह पुलिस की जिप्सी आई हुई मिली. आज के समय में सुबह और शाम जिप्सी आ जाती है. वो दिन और आज का दिन है वो लड़के हमारे स्कूल में नहीं आए. इससे ये फायदा हुआ कि लड़कियां कभी भी हल्ला बोल सकती हैं. ये डर लड़कों का नहीं था ये डर था उन लड़कियों का अपने लिए बोलने का. आज वो डरी सहमी लड़कियां बेखौफ होकर जाती हैं अपने घरों तक. लड़कियां बेखौफ होकर गाने जाती हैं. और ये बस गाने नहीं हैं ये उन्हें हिम्मत देने का काम करते हैं. ये उन्हें हौसला देते हैं कि वे जिंदगी में कभी भी परेशान होंगी तो उनकी हिम्मत उनका साथ देगी.”
लड़कियों को आगे ना पढ़ाने का क्या कारण है?
हालांकि, लकड़ियों के स्कूल छोड़ने के और भी कई कारण हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 (2019-21) बताता है कि 2019-20 में 21,800 से ज्यादा लड़कियों ने स्कूल बीच में ही छोड़ दिए. इसमें से 13% से अधिक लड़कियों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें घर के काम करने थे. वहीं 7% ने ऐसा किया क्योंकि उनका बाल विवाह कर दिया गया था. इतना ही नहीं इसमें शहरी और ग्रामीण विभाजन भी बड़ा कारण है. रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें से 17,786 वो लड़कियां हैं जो ग्रामीण क्षेत्र से ताल्लुक रखती हैं.
इसके कारणों पर GNT डिजिटल ने कई महिलाओं से बात की. उन्हीं में से एक हैं कुटैल गांव में रहने वाली सीमा रानी, जो महिलाओं का सेल्फ हेल्प ग्रुप चलाती हैं. शादी के बाद उन्हें कुटैल गांव में लगभग 15 साल हो गए हैं. वे कहती हैं, “गांव का माहौल अलग होता है. लड़कियों के मां-बाप को चिंता होती है कि उनकी बेटियां किसी गलत संगत में न पड़ जाएं. या कोई ऊंच नीच न हो जाए. बेटियों की पढ़ाई पूरी ना करवाने के पीछे दो कारण होते हैं. पहला, घर के आर्थिक हालात के चलते मां-बाप केवल एक ही बच्चे पर पैसा लगा सकते हैं तो वो बेटे पर खर्च करना ज्यादा सही समझते हैं. दूसरा कारण, कि लड़की को दूर भेजेंगे तो वो कहीं कुछ गलत काम ना कर दे. या उसे कुछ ना कह दें या बहला-फुसलाकर अपने साथ ना ले जाएं. इसमें परिवारवाले अपनी बेइज्जती मान लेते हैं. हालांकि, अब हालात बदल रहे हैं. बच्चियों को अब लोग बाहर भी भेज रहे हैं. लोग जागरूक हो रहे हैं.”
गौरतलब है कि केंद्र और राज्य सरकार मिलकर बेटियों की शिक्षा के लिए कई स्कीम चला रही हैं, जैसे जिसमें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, आपकी बेटी हमारी बेटी, वनस्टॉप सेंटर, बेटियों को साइकिल देना, पढ़ाई पूरी करने के लिए स्कॉलरशिप प्रदान करना आदि. लेकिन, 0 प्रतिशत ड्रॉपआउट से अभी भी हम काफी दूर हैं.