साल 1962 का लोकसभा चुनाव भारत के राजनीतिक परिदृश्य में काफी अहम माना जाता है. ये वो साल था जब कई नई योजनाओं, नए शासन और प्रतिनिधित्व के एक नए युग में भारत प्रवेश कर रहा था. महीनों तक चलने वाले पिछले चुनावों के विपरीत, 1962 का चुनाव केवल एक सप्ताह से भी कम समय में आयोजित किया गया था. इसके लिए चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया गया. इस साल एकल-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली को भी देश ने अपनाया. विशेष रूप से ये वो साल रहा जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वोटों में ऐतिहासिक गिरावट देखी गई. ये संकेत था कि पूरा देश अब राजनीतिक बदलाव से गुजर रहा है.
इस राजनीतिक विकास में सबसे आगे इंदिरा गांधी का उदय था. साल 1950 के दशक में उन्होंने अपने पिता, जवाहरलाल नेहरू का अनौपचारिक रूप से समर्थन किया. जबकि 1959 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनके चुनाव ने भारतीय राजनीति में उनके आधिकारिक प्रवेश की घोषणा कर दी थी.
इस बीच, 1959 में सी. राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी की स्थापना भी बनी. कथित राज्य अतिक्रमण के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत करते हुए, इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ असहमति की आवाजों के लिए एक मंच प्रदान किया. 1974 में आखिरकार इसके विघटन के बावजूद, पार्टी का प्रभाव पूरे भारतीय राजनीति में गूंज उठा.
1962 के चुनाव ने एक और खास बदलाव को जनता के सामने उजागर किया. वो था कांग्रेस और उसकी आंतरिक दरारें. जहां एक ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपना प्रभुत्व बनाए रखा, वहीं आंतरिक दरारों ने विपक्षी ताकतों के उदय को हवा दी. कम्युनिस्ट पार्टी ने इन विभाजनों का फायदा उठाया और पिछले चुनावों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन हासिल किया.
हालांकि, फिर भी जवाहरलाल नेहरू ने अपने तीसरे और अंतिम चुनाव अभियान में एक और शानदार जीत हासिल की. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 44.7% वोट मिले और उसने 494 निर्वाचित सीटों में से 361 सीटें जीतीं. यह पिछले दो चुनावों की तुलना में थोड़ा कम था, लेकिन लोकसभा में अभी भी 70% से अधिक सीटें उनके पास थीं.
इस साल चुनाव आयोग ने मतदान प्रक्रिया को और बेहतर करते हुए अमिट स्याही की शुरुआत की. मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड द्वारा निर्मित, यह स्याही घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय चुनावों की पहचान बन गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भारी जीत के बावजूद, घटता वोट शेयर कहीं न कहीं मतदाताओं के बीच बढ़ते असंतोष का संकेत दे रहा था.
इस बीच देश के लोगों ने चुनावों के साथ कई नए बदलाव देखे. जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में देशभर में जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को शुरू किया. उन्होंने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उद्योग और संचार में प्रगति के साथ एक आधुनिक भारत की कल्पना की.
लेकिन ये इतना आसान नहीं रहा जैसे ही नेहरू अपने महत्वाकांक्षी एजेंडे पर आगे बढ़े, भूराजनीतिक तनाव बढ़ने लगा. पाकिस्तान के साथ संबंध तनावपूर्ण बने रहे, जबकि चीन के साथ "मैत्रीपूर्ण" संबंधों में अक्टूबर 1962 में सीमा युद्ध छिड़ने के साथ खटास आ गई. यह संघर्ष क्षेत्रीय विवादों से पैदा हुआ. भारतीय प्रयासों के बावजूद, अच्छी तरह से तैयार चीनी सेना ने भारत की रक्षा कमजोरियों को उजागर करते हुए बढ़त हासिल कर ली.
रक्षा तैयारियों की उपेक्षा के लिए जवाहरलाल नेहरू सरकार की आलोचना शुरू हो गई, जिसके परिणामस्वरूप रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को बर्खास्त कर दिया गया और अमेरिकी सैन्य सहायता स्वीकार कर ली गई. जवाहरलाल नेहरू का स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्होंने महीनों तक कश्मीर में अपना इलाज चलवाया. हालांकि, उनकी वापसी अल्पकालिक थी क्योंकि उन्हें स्ट्रोक और दिल का दौरा पड़ा और 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया.
इस दौरान लाल बहादुर शास्त्री के पदभार ग्रहण करने से पहले गुलजारी लाल नंदा ने कुछ समय के लिए देश का नेतृत्व किया. इसी कड़ी में 1965 में पाकिस्तान पर लाल बहादुर शास्त्री की अप्रत्याशित जीत के कारण ताशकंद में शांति संधि पर हस्ताक्षर किए गए. हालांकि, उनकी असामयिक मृत्यु ने कांग्रेस को अस्त-व्यस्त कर दिया. लेकिन जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी अब तैयार थीं. पार्टी के आंतरिक संकटों और राष्ट्रीय चुनौतियों से निपटते हुए वे अगली प्रधान मंत्री के रूप में उभरीं.
1966 में प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी की नियुक्ति कांग्रेस और राष्ट्र के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी. विरोध के बावजूद, उन्होंने अशांत समय के दौरान नेतृत्व संभाला. सामने आई मुश्किलों से निपटते हुए इंदिरा गांधी ने देश और पार्टी को आगे बढ़ाया. इस दौरान कांग्रेस आंतरिक कलह से जूझ रही थी, जबकि भारत को आर्थिक कठिनाइयों से लेकर सामाजिक अशांति तक बहुमुखी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था...
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