दिल्ली में विधानसभा चुनाव 2025 (Delhi Assembly Election 2025) नजदीक है. राजनीतिक समीकरणों की चर्चा जोरों पर है. ऐसे में अटकलें लगनी फिर से शुरू हो गई हैं कि कांग्रेस (Congress) और आम आदमी पार्टी (AAP) के बीच क्या गठबंधन हो सकता है?
हालांकि आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने इन अटकलों को खारिज कर दिया है. इसके बावजूद राजनीतिक विश्लेषकों में चर्चा इस बात को लेकर है कि आखिर धुआं निकला है तो कहीं न कहीं आग तो होगी ही. लेकिन साथ ही सवाल ये भी उठता है कि जब आप पहले ही दिल्ली विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 31 पर उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है तो गठबंधन क्या बाकी बची 39 सीटों पर ही होगा? आइए जानते हैं इस कयासबाजी में कितना दम है.
गठबंधन से किसे होगा फायदा
यदि कांग्रेस और आप एक-दूसरे के साथ लड़ने को तैयार हो भी जाएं तो गठबंधन का सबसे बड़ा सवाल यह है कि इससे किसे फायदा होगा? कांग्रेस, जो दिल्ली में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश में है, क्या वह गठबंधन चाहती है? या फिर आम आदमी पार्टी जिसके लिए बीजेपी के हाथों दिल्ली चुनाव हारना न सिर्फ परेशानी पैदा करेगा बल्कि आगे आने वाले समय में पार्टी के लिए चुनौतियों की बाढ़ आ जाएगी, जिसमें पहले से ही चल रहे कई मामलों में जांच की तेजी के साथ ही बिना सत्ता पार्टी को एकजुट रखने की चुनौती भी शामिल है. लेकिन सत्ता के समीकरणों से इतर एक सवाल और भी है कि क्या दोनों पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की सोच इस गठबंधन को लेकर एक जैसी है? नेता बेशक सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए गठबंधन के समीकरण ढ़ूंढ़ रहे हों लेकिन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्टता है कि उन्हें सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने चाहिए ताकि संघटन का ढांचा और मजबूत हो.
तो फिर गठबंधन की क्यों लगाए जा रहे कयास
चुनाव से पहले अटकलों का बजार तो गर्म होता ही है. फिर उसमें यदि किसी किस्म का सिग्नल मिल जाए तो कहानियां बनने लगतीं हैं. दरअसल, मंगलवार को ऐसा ही दो वाकया हुआ, जिसने आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच नजदीकियों की कहानियां बनने का संकेत दिया. उन्हीं संकेतों के आधार पर राजनीतिक हलकों में गठबंधन की बात आ गई. दरअसल, कांग्रेस पिछले कई दिनों से आम आदमी पार्टी को लेकर आक्रामक रही है. आलम ये रहा कि दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष देवेंद्र यादव ने पूरी दिल्ली में दिल्ली न्याय यात्रा निकाली और विशेष निशाने पर अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ही रही.
यात्रा तो 8 दिसबंर 2024 को खत्म हो गई, लेकिन कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ. उसकी कमी की भरपाई करने के लिए लोकसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का एक कार्यक्रम 11 दिसंबर 2024 को इंदिरा गांधी स्टेडियम में रखा गया. तैयारियां पूरी थीं लेकिन एक दिन पहले राहुल गांधी के न्याय चौपाल को कैंसिल कर दिया गया. राजनीति के जानकारों का मानना है कि राहुल गांधी सीधे-सीधे फिलहाल केजरीवाल पर निशाना नहीं साधना चाहते और बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहते हैं.
कयास लगने की दूसरी वजह मंगलवार शाम को शरद पवार के दिल्ली आवास पर हुई एक मीटिंग रही. उस मीटिंग में शरद पवार के घर पर आम आदमी पार्टी से अरविंद केजरीवाल और संजय सिंह मौजूद रहे. कांग्रेस की ओर से केजरीवाल के करीबी और सीनियर वकील अभिषेक मनु सिंघवी भी शामिल थे. बात सिंघवी तक रहती तो फिर भी बात नहीं बनाई जाती, लेकिन उस मीटिंग में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के सलाहकार गुरदीप सिंह सप्पल भी मौजूद थे. इसलिए ऐसी चर्चा छिड़ी कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दिल्ली चुनावों में गठबंधन के लिए बैक चैनल बातचीत कर रही है.
केजरीवाल ने खुद कयासों पर क्यों लगाया विराम?
अगला विधानसभा चुनाव अरविंद केजरीवाल की शख्सियत के इर्दगिर्द ही होना तय है. जहां आम आदमी पार्टी केजरीवाल की इमेज के दम पर ही लगातार तीसरी बार सरकार अपने दम पर बनाने के लिए आश्वस्त है, वहीं विरोधियों के लिए भी अरविंद केजरीवाल सरकार की नाकामियों से लेकर उन पर निजी भ्रष्टाचार के आरोप ही सबसे बड़ा हथियार रहने वाले हैं. यदि ये मान भी लिया जाए कि कांग्रेस के साथ गठबंधन का रास्ता खुला हुआ है. ऐसी हालत में भी जब तक डील पक्की नहीं होती तब तक ऐसा मानना या फिर इन कयासों पर चुप हो जाना आम आदमी पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल पैदा कर सकता है.
ऐसे में मैसेज ये जाएगा कि 70 में से 60 से अधिक सीटों के साथ दो बार चुनाव जीतने वाली पार्टी खुद अपनी जीत के लिए आश्वस्त नहीं है. इस पर सवाल पूछे जाते और पार्टी के नेता अपने हिसाब से जवाब देते, उससे पहले ही केजरीवाल ने खुद पार्टी की ऑफिशियल लाइन दे दी कि वो चुनाव अकेले ही लड़ेंगे. यदि गठबंधन की सुगबुगाहट भी होती है तो ये केजरीवाल के उस एडवांटेज को भी खत्म कर देता जो उन्होंने 31 सीटों पर समय से काफी पहले उम्मीदवारों की घोषणा करके हासिल करने की कोशिश की है. फिर उन 31 घोषित सीटों पर भी असमंजस की स्थिति होती और उम्मीदवार चुनाव प्रचार शुरू करें या नहीं उसपर भी भयंकर कंफ्यूजन खड़ा हो जाता.
साथ लड़ने पर समीकरण बदलेंगे क्या?
सारा खेल इसी सवाल के जवाब में छिपा है. लोकसभा चुनावों में जब आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ लड़ी तब भी दिल्ली की सात सीटों में से एक सीट भी नहीं जीत पाई. हालांकि लोकसभा चुनाव से विधानसभा चुनाव के मुद्दे, समीकरण, नेता और उम्मीदवार सब अलग होते हैं. ऐसे में जो दांव लोकसभा में नहीं चला वो विधानसभा में नहीं चलेगा, ऐसा कहना मुश्किल है. दिल्ली में बीजेपी पिछली बार 1993 में दिल्ली विधानसभा चुनाव जीती थी और तब भी जनता दल काफी मजबूत थी. उसने कांग्रेस के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाई. दिल्ली में लोकसभा से इतर विधानसभा की बात करें तो 12 अनुसूचित जाति आरक्षित सीटें और लगभग 6 मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी काफी कमजोर रही है.
ऐसी हालत में यदि मुस्लिम और दलित वोट कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच नहीं बंटे तो बीजेपी को इन सीटों पर जीत हासिल करने में नाकों चने चबाने पड़ेंगे. फिर बची सीटों में से बहुमत का आंकड़ा पाना और भी मुश्किल होगा. इसलिए सियासत से इतर यदि सिर्फ अंकगणित देखें तो लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनावों में गठबंधन ज्यादा असरदार साबित हो सकता है. लेकिन, बात फिर से कार्यकर्ताओं पर आती है कि क्या उनके बीच की केमेस्ट्री ऐसी है क्या कि वो एक-दूसरी पार्टी को जिताने के लिए जी-जान लगा दें. लोकसभा चुनाव में तो ऐसी केमेस्ट्री दूर-दूर तक नजर नहीं आई थी इसलिए विधानसभा में ऐसा होना तो और मुश्किल है क्योंकि इन चुनावों में स्थानीय नेताओं की महत्वाकांक्षा कहीं और ज्यादा होती है.
सीटों की संख्या तय करना भी बेहद मुश्किल
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने 7 में से 3 सीटों पर चुनाव लड़ा तो आम आदमी पार्टी ने 4 सीटों पर दांव आजमाया. ऐसे में तब फॉर्मूला लगभग बराबर का था. विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस यदि तालमेल की बात करेगी तो शुरुआत आधी-आधी सीटों के फॉर्मूले से ही होगा. जाहिर है आम आदमी पार्टी कांग्रेस को इतनी सीट देने पर कभी नहीं मानेगी. खास तौर पर इस वजह से क्योंकि पिछले दो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई और पिछली बार तो उसे 5% वोट भी नहीं मिला था. इसलिए सीटों की संख्या तय करना बेहद मुश्किल होगा और एक संख्या से कम पर कांग्रेस कभी भी गठबंधन में चुनाव नहीं लड़ेगी. इसलिए कांग्रेस किस न्यूनतम संख्या पर चुनाव लड़ सकती है ये तय करना बेहद मुश्किल होगा. साथ ही, सीटों की पसंद भी एक टेढ़ी खीर होगी. इसलिए गठबंधन की सुगबुगाहट दोनों पार्टियों में हो न हो, गठबंधन फायदेमंद होने की संभावना भी बन जाए लेकिन बाकी चुनौतियां इतनी बड़ी हैं कि गठबंधन की बात करना जितना आसान है, उसे धरातल पर लाना उतना ही मुश्किल है.