बीजेपी को मिले दो तिहाई जनादेश और रुझानों से साफ हो गया है कि सबसे बड़े राज्य में फिर से योगी सरकार बनने जा रही है. 2024 का सेमीफाइनल कहे जाने वाला यह विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था क्योंकि सबसे बड़े राज्य से भाजपा के जाने के कई राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं. खबर लिखे जाने तक BJP ने 273 सीटों पर बढ़त हासिल है, जबकि सपा 125 सीटों पर आगे चल रही है.
वहीं दूसरी ओर यह चुनाव समाजवादी पार्टी और उसके प्रमुख अखिलेश यादव के भविष्य के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण था, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की लड़ाई को और मजबूत कर दिया था. हालांकि 2017 के चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में पार्टी ने सीटों की संख्या में दोगुना बढ़त हासिल की, लेकिन कुछ बड़ी कमियों के कारण भगवा पार्टी की बड़ी रणनीति के खिलाफ पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ. यहां जानिए 2022 के चुनावों में अखिलेश यादव की हार के 5 प्रमुख कारण-
1. सपा जातिगत गठबंधनों के खिलाफ कट्टर हिंदुत्व का बोलबाला
इस चुनाव में जहां बीजेपी ने हिंदुत्व कार्ड खेलते हुए अयोध्या, काशी और मथुरा में मंदिरों की बात की, वहीं समाजवादी पार्टी ने ओबीसी समुदाय की लगभग सभी जातियों का एक विशाल इंद्रधनुष गठबंधन बनाया. साथ ही सपा ने शुरू में मुस्लिम उम्मीदवारों को जमकर टिकट दिया, जिससे भाजपा मतदाताओं के मन में कहीं न कहीं यह भावना भर देने में सफल रही कि अखिलेश मुस्लिम तुष्टिकरण के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं.
साथ ही, मुजफ्फरनगर दंगों और सपा के कार्यकाल में स्थानीय स्तर पर हुई कई घटनाओं ने मतदाताओं को उससे दूर रखा. अखिलेश यादव ने भाजपा के रथ पर सवार स्वामी प्रसाद मौर्य समेत कई पिछड़े नेताओं को भी अपने पक्ष में किया, इसके बावजूद पूर्वांचल में साइकिल नहीं चल पाई.
2. 'नई सपा' पर भारी पड़ा पीएम मोदी का जादू
यूपी समेत अन्य राज्यों के चुनाव नतीजों ने दिखा दिया है कि राज्य में मोदी का जादू अब भी कायम है. मौजूदा हालात में किसी भी दल का कोई भी नेता उनके मुकाबले में स्वीकार्य नहीं है. पीएम मोदी ने यूपी समेत पांच राज्यों में कई रैलियां कीं. उत्तर प्रदेश में उन्होंने लगभग हर चरण और हर क्षेत्र में चुनावी रैलियां कीं और समाजवादी पार्टी पर खुलकर हमला बोला.अंतिम चरण में मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में तीन दिनों तक डेरा डाला और न केवल वाराणसी की सभी सीटों पर बल्कि पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में भारी जीत हासिल की. इसके विपरीत सपा प्रमुख अखिलेश यादव 'नई सपा' अभियान और जनसंख्या वाले घोषणापत्र के बाद भी अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता और प्रतिबद्धता से मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सके.
3. भाजपा का विकास और कल्याण एजेंडा
भाजपा ने पूरे चुनाव में हिंदुत्व और विकास एजेंडा दोनों को साथ-साथ रखा. काशी में जहां विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन हुआ, वहीं जेवर समेत यूपी के पांच अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डों का शिलान्यास भी हुआ. इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस-वे, बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे, पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे, डिफेंस कॉरिडोर, सरयू नहर परियोजना का भी उपहार यूपी को दिया गया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन परियोजनाओं के साथ भाजपा ने न केवल अपनी विकासात्मक छवि को मजबूत किया, बल्कि विपक्ष के आरोपों की धार कुंद करने के साथ-साथ सत्ता विरोधी लहर को भी कुंद करने की कोशिश की. इसका जनता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और इसी के परिणामस्वरूप बीजेपी वोट हासिल करने में सफल रही.
4. बसपा के कोर वोट की हार भाजपा का लाभ
यूपी में दलित वोट करीब 21 फीसदी हैं. शुरुआत में यह कांग्रेस के साथ थे. बाद में बसपा की ओर चले गए. अब बसपा दलितों खासकर जाटव समुदाय का कोर वोट बैंक है और ऐसे में मायावती के स्लीपिंग मोड में जाने से दलित वोटर असमंजस की स्थिति में रहे. गौरतलब है कि मुफ्त राशन से प्रभावित होकर दलितों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के दरबार में गया और कुछ बंट गए. अखिलेश की दोस्ती नए दलित नेता चंद्रशेखर रावण से भी कुछ हफ्तों तक चली. ऐसे में सपा को दलितों का वोट तो नहीं मिला, लेकिन उसे नुकसान जरूर हुआ है.
5. मुस्लिम-यादव के अलावा कोई बड़ा वोट बैंक नहीं
उत्तर प्रदेश में, समाजवादी पार्टी की पहचान आमतौर पर एक ऐसी पार्टी के रूप में की जाती थी, जिसके मुख्य मतदाता मुस्लिम और यादव हैं. चुनावों के रुझानों को देखते हुए अखिलेश को 2022 में इन दोनों गुटों का जोरदार समर्थन मिला, लेकिन इन दोनों समुदायों में उनकी प्रमुख उपस्थिति ने भाजपा को गैर यादव ओबीसी को एकजुट करने और अपनी ओर मोड़ने का मौका दिया. लेकिन जहां तक अन्य जातियों और पंथों का सवाल है, अखिलेश आमतौर पर समाजवादी पार्टी से दूर रहे. यही कारण है कि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से पर एकमुश्त कब्जा करने के बाद भी सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का फिर से यूपी का सीएम बनने का सपना चकनाचूर हो गया.