त्रासदी और उथल-पुथल के मद्देनजर, आठवें लोकसभा चुनाव के समय भारत एक चौराहे पर खड़ा था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Prime Minister Indira Gandhi) की हत्या ने पूरे देश को सदमे में डाल दिया था. इससे 1984 के कुख्यात सिख विरोधी दंगों में सिखों के खिलाफ हिंसा की लहर भड़क उठी थी. फिर भी, अराजकता के बीच, भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय सामने आया.
अलगाववाद और उग्रवाद का खतरा पूरे देश पर मंडरा रहा था. असम और पंजाब लगातार उग्रवाद से जूझ रहा था. पूरे देश में स्वर्ण मंदिर (Golden Temple) की घटना को लेकर चर्चा चल रही थी, जिसके चलते इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी.
दरअसल, 1979 में जनता गठबंधन के पतन के बाद, भारतीय राजनीति उथल-पुथल का सामना कर रही थी. नई पार्टियों के बनने और पुरानी पार्टियों के फिर से उठने वाले इस दौर में एक अलग राजनीति देखने को मिल रही थी.
जनता गठबंधन की विफलता के बाद, जनसंघ, जो एक बार जनता पार्टी में विलय हो गया, 1980 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बनाने के लिए फिर से संगठित हुआ. हालांकि, 1984 में चुनावी राजनीति में इसका प्रवेश चुनौतीपूर्ण साबित हुआ, जिसमें पार्टी 224 में से केवल 2 सीटें जीतीं, साथ ही 108 उम्मीदवारों ने अपनी जमानत खो दी, जो नई पार्टी के लिए एक मुश्किल शुरुआत को दिखता है.
इस बीच, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 22 सीटें हासिल कीं. कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल में केंद्रित थीं, लेकिन आंध्र प्रदेश, केरल और त्रिपुरा में भी अपनी पैठ बना रही थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी विभिन्न राज्यों में 6 सीटें जीतकर मामूली प्रभाव डाला.
राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) में एक अलग समूह उभर कर सामने आया, जिसने खुद को भारतीय कांग्रेस (सोशलिस्ट) के रूप में पहचाना, जो 4 सीटें हासिल करने में कामयाब रही. जनता पार्टी और लोकदल की ताकत कम होने के बावजूद उन्हें मामूली संख्या में सीटें हासिल हुईं.
1984 के चुनावों (1984 General Elections) में उम्मीदवारों की भारी भागीदारी देखी गई, जिनमें बड़ी संख्या में निर्दलीय भी शामिल थे. अपनी संख्या के बावजूद, केवल मुट्ठी भर लोग ही लोकसभा में सीटें सुरक्षित कर पाए. विशेष रूप से, रिकॉर्ड संख्या में महिलाएं चुनी गईं, जो भारतीय संसदीय प्रतिनिधित्व में एक सकारात्मक बदलाव को दर्शा रही थी.
खुद को राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध सुधारक के रूप में पेश करने वाले राजीव गांधी एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में उभरे. अपने परिवार के प्रति उनका समर्पण मतदाताओं को पसंद आ रहा था, जिससे उनकी छवि और भी मजबूत हुई. उनके प्रभुत्व के बावजूद, विपक्ष के एक संयुक्त मोर्चे में एकजुट होने में विफलता ने उन्हें रणनीतिक फायदा दिया.
राजनीतिक पैंतरेबाजी की पृष्ठभूमि में, पंजाब तनाव से भर गया. जरनैल सिंह भिंडरावाले (Jarnail Singh Bhindranwale) का उदय, जिसे शुरू में कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, लेकिन बाद में उसने खुद को अलग कर लिया और अकाली दल के साथ जुड़ गया, जिससे हिंसा बढ़ गई. भिंडरावाले की आनंदपुर साहिब प्रस्ताव और खालिस्तान मांग ने राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल दिया था. आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में पंजाब को स्वायत्त बनाने की बात की गई थी. साथ ही अकाली दल ने ये दावा किया था कि वह सभी सिखों का प्रतिनिधि है.
जून 1984 में, ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) हुआ, जिसका उद्देश्य स्वर्ण मंदिर परिसर से भिंडरावाले और उसके अनुयायियों को हटाना था. लेकिन ये काफी चुनौतीभरा रहा. विवादों से घिरे इस ऑपरेशन की परिणति भिंडरावाले की मृत्यु के रूप में हुई, लेकिन इससे सिख भावनाएं भड़क गईं. इसके अगले ही साल इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई.
इंदिरा गांधी की हत्या से सिखों के खिलाफ हिंसा की लहर फैल गई थी. इसे सिख विरोधी दंगों के रूप में जाना जाता है. दंगों के बाद राजीव गांधी की विवादास्पद टिप्पणी ने तनाव को और बढ़ा दिया.
सहानुभूति की लहर पर सवार होकर, राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता में पहुंची थीं. राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में देश को संभालने का काम किया. राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के साथ राष्ट्र मजबूती से खड़ा रहा. 1984 के चुनाव में कांग्रेस को तीन-चौथाई से अधिक बहुमत हासिल मिला था. 514 में से 404 सीटों के साथ, कांग्रेस ने राजनीतिक परिदृश्य को फिर से परिभाषित किया.
हालांकि, जैसे-जैसे चुनावों का उत्साह कम हुआ, कांग्रेस को बढ़ते असंतोष के बीच शासन चलाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. अपने शुरुआती महीनों में नई सरकार के प्रदर्शन को काफी प्रशंसा मिली, लेकिन आत्मसंतुष्टि और अति आत्मविश्वास संभावित खतरों के रूप में सामने आया.
ये भारत के वो दौर था जब देश राजनीतिक विखंडन, सांप्रदायिक तनाव और क्षेत्रीय अशांति से जूझ रहा था. 1980 के दशक को देश के इतिहास में सबसे अशांत अध्याय के रूप में देखा जाता है. हालांकि, इस चुनाव ने कहीं न कहीं आने वाले सालों के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के लिए मंच तैयार किया था.