1960 के दशक के आखिर और 1970 के दशक की शुरुआत में, भारत एक जरूरी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था. ये वो दौर था जब देश को असंख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिसने इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे का परीक्षण किया. जहां राष्ट्र भोजन की कमी और आर्थिक स्थिरता जैसे मुद्दों से जूझ रहा था, वहीं परिवर्तन की बयार इसकी राजनीति में भी लगातार बह रही थी. पार्टियों की शक्तियां और उनका प्रभाव साफ तौर पर देखने को मिल रहा था.
भारत के राजनीतिक परिदृश्य की आधारशिला कहलाने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस असहमति के उथल-पुथल दौर से गुजर रही थी. पार्टी के भीतर दरारें उभरने लगीं थीं. 1967 के लोकसभा चुनाव से पहले ही पार्टी नेता इंदिरा गांधी के खिलाफ असंतोष की सुगबुगाहट पार्टी के गलियारों में गूंज उठी थी. जीत हासिल करने के बावजूद, पार्टी का प्रदर्शन आजादी के बाद से सबसे कमजोर था, जिससे इंदिरा गांधी के नेतृत्व पर संदेह पैदा हो गया था. बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे विवादास्पद कदमों की वजह से पार्टी में असंतोष की आग को और भड़क उठी थी.
झगड़ों और वैचारिक टकराव के बीच, 1969 में कांग्रेस बिखर गई. एस निजलिंगप्पा ने पार्टी अनुशासन का उल्लंघन करने के आरोप में इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया था. इस टूट ने के कामराज और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं के नेतृत्व में कांग्रेस (O) को जन्म दिया, जबकि इंदिरा ने कांग्रेस (R) का गठन किया. कांग्रेस में इस टूट ने राजनीति का एक नया चेहरा दिखाया. विभाजन पुराने और नए, रूढ़िवादी दिग्गजों और प्रगतिशील दूरदर्शी लोगों के बीच टकराव का प्रतीक था.
जहां कांग्रेस आंतरिक कलह से जूझ रही थी, वहीं दूसरी राजनीतिक पार्टियां को अपने प्रभाव का दावा करने का मौका मिला. 1967 के चुनावों में अपने बेहतरीन प्रदर्शन से उत्साहित स्वतंत्र पार्टी ने कांग्रेस की कमजोरियों का फायदा उठाने की कोशिश की. समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर, इसने 1971 में ग्रैंड अलायंस का गठन किया, जिसका एकमात्र उद्देश्य था: इंदिरा गांधी के प्रभुत्व को विफल करना.
कांग्रेस (आर) ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में रैली तो की लेकिन ग्रैंड अलायंस एक मजबूत चुनौती के रूप में उभर रहा था.
राजनीतिक उथल-पुथल के बीच, भारत ने अपनी गंभीर चुनौतियों से निपटने के उद्देश्य से आर्थिक पहल शुरू की. हरित क्रांति के आने से देश के कृषि क्षेत्र में एक उम्मीद जग गई थी. फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी और रिसर्च आधारित रणनीतियों की शुरुआत हुई. खाद्य आत्मनिर्भरता को लगातार बढ़ाया जा रहा था. लेकिन इतना काफी नहीं था. आलोचक लगातार इसके दूरगामी सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के बारे में चिंता जता रहे थे.
1971 के लोकसभा चुनाव में 1000 से ज्यादा स्वतंत्र उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. सभी ने प्रमुख मुद्दों को संबोधित किया और कई वादे किए. पांचवा लोकसभा चुनाव 1 मार्च से 10 मार्च के बीच हुआ. इसबार वोट प्रतिशत कुल 55.2 % ही रहा. यह आंकड़ा 1967 के लोकसभा चुनाव से 30 लाख कम था. हालांकि, इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) ने जोरदार जीत हासिल की. 43.68% वोट शेयर के साथ इंदिरा गांधी ने 352 सीटें जीतीं. कोई भी दूसरे पार्टी या गठबंधन कांग्रेस (आर) के करीब भी नहीं पहुंच सका. कांग्रेस (ओ) हिस्से महज 16 सीटें आईं. जबकि स्वतंत्र पार्टी ने केवल आठ सीटें ही हासिल की. भारतीय जनसंघ 22 सीटें जीती और डीएमके ने 23 सीटों पर जीत हासिल की.
पूरा देश इस जोरदार राजनीतिक तमाशे को देख रहा था.भारत एक नए युग की दहलीज पर खड़ा था. 1960 का दशक खत्म हो चुका था. 1970 शुरू हो गया था. राजनीतिक दरारे दिखने लगी थीं और राष्ट्र खुद को आर्थिक तौर पर मजबूत करने का प्रयास कर रहा था.