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Story of 13th General Elections: देश का वो चुनाव जब पहली बार पूरे पांच साल तक चला गैर-कांग्रेसी गठबंधन, पढ़िए कहानी 13वें आम चुनाव की

India's Thirteenth General Election: 1999 के आम चुनाव में देश की राजनीति अलग-अलग टकराव से जूझ रही थी. इस उथल-पुथल भरे दौर के केंद्र में 13वीं लोकसभा थी.

13th General Elections (Photo: India Today Archives) 13th General Elections (Photo: India Today Archives)
हाइलाइट्स
  • पूरे पांच साल तक चला गैर-कांग्रेसी गठबंधन

  • उथल-पुथल भरे दौर के केंद्र में 13वीं लोकसभा

India's Thirteenth General Election: भारतीय राजनीति के इतिहास में साल 1999 कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. ये वो दौर था जब पूरा देश सरकारों के नाटकीय उत्थान और पतन को देख रहे थे. इतना ही नहीं, देश की राजनीति अलग-अलग टकराव से जूझ रही थी. इस उथल-पुथल भरे दौर के केंद्र में 13वीं लोकसभा थी. 

सियासत के इस खेल का मंच 17 अप्रैल 1999 को तैयार किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (PM Atal Bihari Vijpayee) को लोकसभा में महत्वपूर्ण विश्वास मत का सामना करना पड़ा. बीजेपी के नेतृत्व वाला 24-पार्टी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) काफी अस्थिर था, ये आंतरिक कलह से जूझ रहा था और प्रमुख गठबंधन सहयोगियों से समर्थन डगमगा रहा था. अटल बिहारी वाजपेयी के कई प्रयासों के बावजूद, बीजेपी जरूरी वोट हासिल करने में असफल रही, जिसके कारण उनकी सरकार को इस्तीफा देना पड़ा. 

(फोटो: इंडिया टुडे)
(फोटो: इंडिया टुडे)

एनडीए के बिखराव का सबसे बड़ा कारण जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक का समर्थन वापस लेना था. अपने राजनीतिक भविष्य पर गहरी नजर रखने वाली जयललिता ने भ्रष्टाचार के आरोपों के जाल में फंसी तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त करने और दबाव बनाने के लिए अपनी पार्टी के प्रभाव का इस्तेमाल किया. हालांकि, बीजेपी ने उन पर कानूनी जांच से बचने के लिए इन मांगों को एक आड़ के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया, जिससे गठबंधन में अव्यवस्था पैदा हो गई.

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जैसे ही सियासी हालात बदले, प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अपनी आंतरिक कलह से जूझने लगी. सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद पर आसीन होने से विवाद खड़ा हो गया जब दिग्गज नेता शरद पवार ने उनके इटली मूल का मुद्दा उठाते हुए उनके नेतृत्व को चुनौती दी. बीजेपी को कांग्रेस के भीतर मची इस अंदरूनी कलह का फायदा उठाने का मौका मिल गया. चुनावों में देशी और विदेशी मूल के नेताओं का मुद्दा बहस का विषय बन गया. 

(फोटो: इंडिया टुडे)
(फोटो: इंडिया टुडे)

राजनीतिक पैंतरेबाजी और गठबंधन की अस्थिरता के बीच 26 अप्रैल 1999 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने मौजूदा संसद भंग किए जाने और नए सिरे से चुनाव कराए जाने के निर्देश दिए. पांच सप्ताह तक चले चुनावों में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष के बीच भीषण सियासी जंग देखी गई. 543 सीटों वाली लोकसभा में 45 पार्टियां वर्चस्व के लिए अपनी लड़ाई लड़ रही थी. 

जैसे-जैसे चुनावी लड़ाई बढ़ती गई, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी. उन्होंने कारगिल युद्ध और भारत के आर्थिक पुनरुत्थान के दौरान देश को संभाला था. इतना ही नहीं कश्मीर सीमा संकट को चतुराई से संभालने और उनके नेतृत्व में देश की मजबूत आर्थिक स्थिति ने मतदाताओं को प्रभावित किया. 

(फोटो: इंडिया टुडे)
(फोटो: इंडिया टुडे)

6 अक्टूबर 1999 को जनता का फैसला सुनाया गया, जिसमें एनडीए को लोकसभा में 298 सीटों का निर्णायक जनादेश हासिल हुआ. कांग्रेस और उसके सहयोगी दल 136 सीटों के साथ पिछड़ गए. 13 अक्टूबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. इसी के साथ भारत के राजनीतिक सफर में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई.