गजल की मल्लिका कही जाने वाली बेगम अख्तर के लिए संगीत वह दवा थी जो उन्हें उनके जीवन के संघर्षों और दर्द से निजात दिलाती थी. संगीत के प्रति उनकी रुचि को देखते हुए उनकी मां ने उन्हें संगीत की शिक्षा देने का फैसला किया. बेगम अख्तर की मां उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत में परंपरागत बनाना चाहती थी, लेकिन बेगम अख्तर की दिलचस्पी गजल और ठुमरी सीखने में थी जिनमें वह खुद को अच्छे से व्यक्त कर पाती थीं. उन्होंने कई उस्तादों से संगीत की शिक्षा ली. बेग़म अख़्तर की गायन शैली अद्वितीय है जिसकी वजह से ही उन्हें आज भी ‘मल्लिका -ए- गज़ल’ कहा जाता है.
गजल और ठुमरी-दादरा की सबसे मशहूर गायिका
बेगम अख्तर वो शख्सियत हैं जिन्हें मल्लिका-ए- गज़ल के नाम से जाना जाता है. उनका जन्म 7 अक्टूबर 1914 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में अख़्तरी बाई के रूप में हुआ था. संगीत के श्रुति उनकी रुचि को देखते हुए उनकी मां ने उन्हें संगीत की शिक्षा देने का फैसला किया और उन्होंने कईं उस्तादों से शिक्षा ली. वह 20वीं सदी के भारत में ग़ज़ल और ठुमरी-दादरा की सबसे मशहूर गायिका रह चुकी हैं.
संगीत ही उनका एकमात्र सहारा था
बेगम अख्तर और उनकी जुड़वा बहन जब मात्र 4 साल की थीं, तब उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया था. एक बार बेगम अख्तर और उनकी बहन ने जहरीली मिठाइयां खा ली जिसके बाद बेग़म अख़्तर तो बच गई लेकिन उनकी बहन का निधन हो गया. इसके बाद बेगम अख्तर एकदम अकेली हो गई थी, तब संगीत ही उनका एकमात्र सहारा बना. उनके लिए संगीत वह दवा थी जो उन्हें उनके जीवन के संघर्षों और दर्द से निजात दिलाती थी.
15 साल की उम्र में पहला कार्यक्रम
साल 1934 में पहली बार 15 साल की उम्र में उन्होंने नेपाल-बिहार भूकंप पीड़ितों के लिए रखे गए एक संगीत कार्यक्रम में प्रदर्शन किया. इस कार्यक्रम में सरोजिनी नायडू भी उपस्थित थीं और उन्होंने उनकी गायकी की प्रशंसा की. इस कार्यक्रम के बाद उनका जीवन एकदम बदल गया. उन्होंने सिनेमा में अभिनय भी किया. अमीना (1934), जवानी का नशा (1935), नसीब का चक्कर (1936), जलसाघर (1958) जैसी फिल्मों में काम किया और प्रसिद्ध संगीत निर्देशक मदन मोहन के साथ भी गाना गाया था.
संगीत ने दिया दूसरा जीवन
अपनी मां की मृत्यु के बाद वह काफी बीमार पड़ गई. उन्होंने 8 साल के लिए संगीत भी छोड़ा था. डॉक्टरों ने यह महसूस किया कि केवल संगीत के माध्यम से ही वह इस दुख से उभर सकती हैं. वह पहली महिला थीं जिन्होंने खुद को उस्ताद घोषित किया और उन्होंने अपने शिष्यों के साथ “गंडा बंद” समारोह में प्रदर्शन भी किया. उनका निधन 30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद में हुआ. उन्हें पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और मरणोपरांत उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया था. बेग़म अख़्तर की गायन शैली अद्वितीय है जिसकी वजह से ही उन्हें आज भी ‘मल्लिका-ए- गज़ल' कहा जाता है.