यह बॉम्बे टॉकीज ही था जिसने दिलीप कुमार, अशोक कुमार और मधुबाला जैसे अभिनेताओं को लॉन्च किया. बॉम्बे टॉकीज वह स्टूडियो भी था जिसने भारत को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म निर्माण तकनीक से परिचित कराया. इसके संस्थापक थे देविका राय और उनके पति हिमांशु राय, जिनकी एक ही प्रेरणा थी- भारतीय फिल्मों को वेस्टर्न फिल्मों के बराबर लाना.
देविका रानी को भारतीय सिनेमा की फर्स्ट लेडी भी कहा जाता है. और यह न केवल सिनेमा में उनके अविश्वसनीय योगदान के कारण है, बल्कि उनके बोल्ड, आत्मविश्वासी और मुखर व्यक्तित्व के कारण भी है. देविका 1930 के दशक में सबसे लोकप्रिय नामों में से एक थी.
बड़े घराने की बेटी थीं देविका
देविका रानी का जन्म 1908 में कर्नल डॉ. मन्मथनाथ चौधरी और लीला देवी चौधरी के एक समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था. उनके माता-पिता अच्छे पढ़े-लिखे और समृद्ध थे और इस कारण उन्होंने अपनी बेटी देविका को बंदिशों में रखने की बजाय उन्हें एक नई उड़ान दी. स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद देविका ने लंदन में रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट और रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक में दाखिला लिया.
कला और सौंदर्य की दुनिया से उन्हें उतना प्यार था कि उन्होंने आर्किटेक्चर से लेकर टेक्सटाइल डिजाइन तक के अन्य कोर्सेज में दाखिला लिया. साल 1928 में, देविका अपने होने वाले पति हिमांशु राय से मिलीं, जिनके जरिए उन्होंने भारतीय सिनेमा में कदम रखा. देविका ने सबसे पहले कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग और कला निर्देशन जैसी फिल्म मेकिंग प्रोसेस में हिमांशु राय की मदद की और कुछ समय बाद उन्होंने अभिनय में कदम रखा.
भारतीय सिनेमा की फर्स्ट लेडी
देविका ने साल 1933 में फिल्म "कर्मा" के साथ भारतीय सिनेमा की पहली महिला के रूप में अपने अभिनय की शुरुआत की. उनके अभिनय की लंदन मीडिया में तारीफ हुई और अच्छी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया मिली. उन्हें पहली फिल्म से ही एक स्टार के रूप में देखा गया. आपको बता दें कि यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसमें किसिंग सीन दिखाया गया और वह भी चार मिनट का.
और यह किसी भारतीय द्वारा बनाई गई पहली अंग्रेजी भाषा की टॉकी भी थी. इसके अलावा, इस फिल्म में देविका रानी ने अंग्रेजी और हिंदी, दोनों भाषाओं में एक गीत गाया था. इस गीत को बॉलीवुड फिल्म में पहला अंग्रेजी गीत होने का श्रेय दिया जाता है. हालांकि "कर्मा" को भारतीय दर्शकों के बीच ज्यादा अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिला, लेकिन यह बात देविका रानी जैसी उभरती हुई स्टार को नहीं डिगा सकी.
साथ मिलकर आगे बढ़ाया बॉम्बे टॉकीज
"कर्मा" की महत्वपूर्ण सफलता के बाद, देविका रानी और हिमांशु राय ने शादी कर ली और भारत लौट आए. उन्होंने निरंजन पाल और फ्रांज ओस्टेन के साथ मिलकर बॉम्बे टॉकीज नाम से एक फिल्म स्टूडियो शुरू किया. उस समय बॉम्बे टॉकीज को देश के सबसे सुसज्जित फिल्म स्टूडियो में से एक के रूप में श्रेय दिया जाता था. दिलीप कुमार, राज कपूर, मुमताज़ आदि जैसे कई सितारों को लॉन्च करते हुए इसने आधुनिक बॉलीवुड की कुछ बेहतरीन फिल्मों को सफलतापूर्वक रिलीज़ किया.
बॉम्बे टॉकीज ने देविका रानी को खुद को एक अभिनेता के रूप में स्थापित करने में मदद की. यहां उन्हें यह चुनने की आज़ादी मिली की वह किस फिल्म का निर्माण करना चाहती हैं और किस फिल्म में अभिनय. देविका ने ऐसे किरदार निभाए जिन्हें उस जमाने में महिलाएं सोच भी नहीं सकती थीं. उनकी फिल्में ज्यादातर सामाजिक विषयों पर केंद्रित होती थीं. बर्लिन में यूनिवर्सम फिल्म एजी स्टूडियो में प्रशिक्षण के कारण वह जर्मन सिनेमा से अत्यधिक प्रभावित थीं. लेकिन उनकी अभिनय शैली की तुलना हमेशा स्वीडिश-अमेरिकी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो से की जाती थी. इस प्रकार, उन्हें "इंडियन गार्बो" नाम भी दिया गया.
पति के बाद संभाला स्टूडियो
देविका को सिर्फ परदे पर अपने काम के लिए ही नहीं बल्कि निजी जिंदगी में भी बोल्ड फैसले लेने के लिए जाना जाता है. बताया जाता है कि वह एक फिल्म की शूट के दौरान नजमुल नामक एक्टर के करीब आ गई थीं और उसके साथ भाग गईं. बाद में, जब हिमांशु राय ने उन्हें ढूंढा तो वह अपनी शर्तों पर उनके साथ वापस आईं. हालांकि, इस घटना ने दोनों के बीच दरार ला दी लेकिन इसके बाद दोनों साथ रहे. साल 1940 में हिमांशु राय की मृत्यु के बाद बॉम्बे टॉकीज की कमान देविका ने संभाली.
पांच वर्षों में जब उन्होंने स्टूडियो चलाया, तो इसने नया संसार (1941) जैसी हिट फ़िल्में बनाईं, जो पत्रकारिता की भूमिका के इर्द-गिर्द थी; और उन्होंने किस्मत (1943) भी बनाई, जिसमें भारतीय दर्शकों को अशोक कुमार की एंटी-हीरो छवि देखने को मिली. उन्होंने जिन टैलेंट्स को चुना, उनमें "एक शर्मीला युवा लड़का" था जिसमें उन्होंने एक चिंगारी देखी और निर्देशक अमिय चक्रवर्ती से उन्हें ज्वार भाटा (1944) में मुख्य भूमिका निभाने के लिए कास्ट करने को कहा. वह "लड़का" दिलीप कुमार था.
लोग कहते थे ड्रैगन लेडी
उनके प्रयासों के बावजूद स्टूडियो नहीं चल पा रहा था. और ऐसे में, एक बार फिर देविका ने कुछ ऐसा किया कि लोग बस सोचते ही रह गए. एक दिन, बॉम्बे टॉकीज के सेट पर क्रू मेंबर्स अपनी सबसे बड़ी स्टार का इंतजार कर रहे थे, जो स्टूडियो की बॉस भी थीं. लेकिन देविका की जगह एक नोट आ गया. जिसमें लिखा था, “आज से, मुझे कंपनी से कोई लेना-देना नहीं है. अपने निर्णय स्वयं लें... यह कंपनी के लिए मेरा अनुरक्षण है,” यह साल था 1945. 10 साल में 15 फिल्में करने के बाद और पांच साल तक कंपनी की कमान संभालने के बाद देविका रानी ने बिना किसी शोशा के सिनेमा की दुनिया को अलविदा कह दिया.
उन्होंने अपने शेयर बेच दिए, और प्रसिद्ध रूसी चित्रकार निकोलस रोएरिच के बेटे पेंटर स्वेतोस्लाव रोरिक से शादी कर ली. उन्होंने अपना शेष जीवन अपने पति के साथ बेंगलुरु, कर्नाटक में बिताया. तिलक ऋषि ने अपनी किताब "ब्लेस यू बॉलीवुड !: ए ट्रिब्यूट टू हिंदी सिनेमा ऑन 100 ईयर्स" में लिखा है, "धूम्रपान, शराब पीने, डांटने और गर्म स्वभाव" के लिए देविका को "ड्रैगन लेडी" के रूप में जाना जाता था. ड्रैगन लेडी जो जहां रहीं वहां हमेशा चमकती रहीं. उनकी ड्रेसिंग स्टाइल तक को उस जमाने के लिए ख़तरनाक माना जाता था, लेकिन उन्होंने अपना जीवन बिना किसी शर्मिंदगी के जिया.
उन्हें 1958 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था और 1969 में पहली बार उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला. 1990 में उन्हें सोवियत रूस द्वारा सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. 1994 में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली. लेकिन उनकी जिंदगी ने हम सभी को एक महत्वपूर्ण सबक सिखाया है कि जो सही लगे वो करना चाहिए और वह भी बिना किसी शर्मिंदगी के. आप अपनी शर्तों में जिएंगे तो इतिहास खुद आपका नाम याद रखेगा.