गायकी की बात हो और जहन में लता मंगेशकर का नाम न आए ऐसा हो ही नहीं सकता है. अपनी आवाज़ से बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के मन को खुश कर देने वाली लता मंगेशकर को गायिकी की मल्लिका भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. लेकिन आज लता जी के सुरों का सफर थम गया. लता मंगेशकर ने 92 साल की उम्र में निधन हो गया. लता दीदी के निधन की खबर से समूचा देश शोक की लहर में डूब गया है.
पिछले कुछ दिनों से लता दीदी की तबियत ठीक नहीं थी. देशभर से लोग उनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना कर रहे थे. हालांकि, बीच में उनकी हालत में सुधार हुआ था लेकिन शनिवार को वह फिर से वेंटिलेटर पर थीं. और आज सुबह उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. लता मंगेशकर के जाने से ऐसा लग रहा कि मानो संगीत जगह में ख़ामोशी-सी छा गई है.
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लता मंगेशकर आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्वर्णिम विरासत देश की अनमोल धरोहर है, जिसे सहेज कर रखना और आगे बढ़ाना अब म्यूजिक इंडस्ट्री का दायित्व है. आज गुड न्यूज़ टुडे के साथ जानिए 'स्वर कोकिला' के सफर के बारे में, जिन्होंने अपने पूरे जीवन को संगीत के लिए समर्पित कर दिया.
लता दीदी का जन्म 28 सितंबर 1929 को मध्यप्रदेश के इंदौर में हुआ था. उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर भी गायक थे और रंगमंच पर परफॉर्म किया करते थे. इस तरह से यह कहना गलत नहीं है कि लता दीदी को संगीत विरासत में मिला. लता दीदी अपने पिता की दूसरी पत्नी शेवंती की बेटी हैं. दीनानाथ की पहली पत्नी के देहांत के बाद उन्होंने शेवंती से शादी की थी.
बचपन का नाम था हेमा:
बताया जाता है कि लता दीदी के जन्म के बाद उनका नाम हेमा रखा गया था. लेकिन उनके पिता ने अपने एक नाटक ‘भावबंधन’ में ‘लतिका’ नामक किरदार से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया. मात्र पांच वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता से संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था.
अपने पिता के साथ से लता को एक नाटक में अभिनय करने का भी मौका मिला. उन्होंने 1945 में मास्टर विनायक की हिंदी फिल्म ;बड़ी मां’ में भी काम किया था. लेकिन लता के मन में संगीत बस चुका था और इसलिए उन्होंने अभिनय पर ध्यान न देकर गायिकी पर ध्यान लगाया. उनके साथ उनकी दूसरी बहनें ऊषा, आशा और मीना भी संगीत सीखती थीं.
कहते हैं कि लता दीदी मात्र एक दिन के लिए स्कूल गई थीं. वह स्कूल गई तो अपने साथ अपनी बहन आशा को ले गई और फिर स्कूल में बच्चों को गाना सिखानी लगीं. शिक्षकों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और कहा कि वह अपनी बहन को भी स्कूल नहीं ला सकती है. इसके बाद वह दोबारा स्कूल नहीं गई.
छोटी उम्र में सिर से उठा पिता का साया:
साल 1942 में लता दीदी मात्र 13 साल की थीं, जब उनके सिर से उनके पिता का साया उठ गया. घर की सबसे बड़ी बेटी होने के नाते उन्होंने पिता की सभी जिम्मेदारियां अपने पर ले लीं. नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और उनके पिता के दोस्त मास्टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने लता दीदी की आगे बढ़ने में मदद की.
1942 में ही उन्होंने पहली बार मराठी फिल्म ‘किती हसाल’ में गाना गाया था. लेकिन इस गाने को फिल्म के फाइनल वर्जन से निकाल दिया गया. इसलिए उनका डेब्यू गाना उसी साल आई मराठी फिल्म ‘पहली मंगला गौर’ में गाया गया ‘नेताली चित्राची नवालाई’ को माना जाता है.
हर कदम पर किया संघर्ष:
लता दीदी के गले में सरस्वती विराजती हैं. लेकिन फिर भी इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की. क्योंकि शुरुआत में उन्हें ज्यादा काम नहीं मिलता था. कई बार उनकी आवाज को ‘बहुत पतली’ कहकर रिजेक्ट कर दिया जाता था.
उन्होंने एक बार मिडिया से बात करते हुए कहा था कि इंडस्ट्री में गुलाम हैदर उनके गॉडफादर की तरह रहे क्योंकि उन्होंने न सिर्फ लता दीदी के टैलेंट को पहचाना. बल्कि उन्हें आगे बढ़ने का मौका भी दिया. शुरुआत में लता दीदी उस समय की मशहूर प्लेबैक सिंगर नूरजहां को कॉपी करती थीं. लेकिन फिर उन्होंने अपना एक अलग अंदाज बनाया, जिससे उन्हें एक अलग पहचान मिली.
इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि लता दीदी ने शुरुआत में बहुत संघर्ष किया. लेकिन 1949 में आई फिल्म ‘महल’ में गाया उनका गाना ‘आएगा आनेवाला’ से उन्हें रातोंरात शोहरत मिल गई. इस गाने ने इंडस्ट्री में उनकी जगह कुछ इस कदर पक्की की कि हर दूसरी फिल्म के गानों के लिए उन्हें संपर्क किया जाने लगा.
आज भी उनके इस गाने को गाना बहुत मुश्किल काम माना जाता है. लता दीदी ने इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उनके आने से इंडस्ट्री में ‘हाई पिच’ गानों पर काम किया जाने लगा. आज तक लता दीदी ने 30 हजार से भी ज्यादा गाने रिकॉर्ड किए हैं.
उनकी उपलब्धियों की अगर बात करें तो गिनती खत्म ही नहीं होगी. कहते हैं कि पहले फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में प्लेबैक सिंगर के लिए कोई अवॉर्ड केटेगरी नहीं थी. लेकिन 1958 में लता दीदी के आग्रह पर यह केटेगरी शामिल की गई.
नंगे पांव गाती हैं गाने:
संगीत के प्रति लता दीदी के समर्पण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह जब भी गाना गाती हैं तो हमेशा नंगे पैर गाती हैं. स्टूडियो हो या कोई मंच, वह कभी चप्पल-जूते पहनकर नहीं गाती हैं. शायद इसलिए ही नौशाद ने उनके लिए कहा कि लता मंगेशकर का स्टूडियो रूम उनका मंदिर है.
इसके अलावा, जब उन्होंने 1963 में एक सभा में ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गीत गाया, तो उनका यह गीत सुनकर तत्कालीन प्रधान मंत्री- जवाहरलाल नेहरू की आंखों में भी आंसू आ गए थे.
उनके बारे में एक दिलचस्प बात यह भी है कि लता दीदी न केवल एक गायिका हैं, बल्कि एक संगीत निर्देशक भी हैं. उन्होंने आनंद गान के बैनर तले राम राम पावना, मराठा तितुका मेलवावा, मोहित्यान्ची मंजुला, सीधी मनसे और तंबाडी माटी जैसी मराठी फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया है.
शादी क्यों नही की:
एक इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने बताया था कि जिम्मेदारियों के चलते उन्होंने शादी नहीं की. उन्होंने बताया था कि पिता के निधन के बाद परिवार की जिम्मेदारी आ गई. 5 छोटे भाई-बहनों की देखरेख करनी थी. इसलिए उन्होंने छोटी उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था. इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि जिम्मेदारियां इतनी थी कि शादी का ख्याल भी नहीं ला सकती थी.
मिले हैं कई अवॉर्ड्स:
तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 12 बंगाल फिल्म पत्रकार संघ पुरस्कार, चार फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व पुरस्कार और कई अन्य पुरस्कार जीतने के साथ-साथ, लता मंगेशकर एमएस सुब्बुलक्ष्मी के बाद भारत रत्न जीतने वाली दूसरी भारतीय गायक हैं.
लता मंगेशकर ने सिर्फ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर राज नहीं किया बल्कि पूरे देश पर किया है. बताया जाता है कि हिंदी और उर्दू में गाने के अलावा लता दीदी ने मराठी, तमिल, भोजपुरी, कन्नड़, बंगाली, असमिया जैसी 36 विभिन्न भारतीय भाषाओं में संगीत रिकॉर्ड किया है.
उनके नाम पर दिया जाता है अवॉर्ड:
हमारे देश में अक्सर महान हस्तियों के दुनिया से चले जाने के बाद सम्मान में उनके नाम पर कोई अवॉर्ड या पुरस्कार शुरू करने की परम्परा है. लेकिन लता दीदी के सुरों का जादू और उनकी उपलब्धियां कुछ ऐसी हैं कि वह एकमात्र भारतीय महिला हैं, जिनके जीवित रहते हुए उनके नाम पर ‘लता मंगेशकर अवॉर्ड’ की शुरूआत की गई है.
लता मंगेशकर अवॉर्ड संगीत के क्षेत्र में कार्यों को सम्मानित करने के लिए दिए जाने वाला एक राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार है. भारत की विभिन्न राज्य सरकारें इस नाम से पुरस्कार देती हैं. मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने इस पुरस्कार की शुरुआत 1984 में की थी. इस पुरस्कार में योग्यता प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार शामिल हैं.
1992 से महाराष्ट्र सरकार भी अधिकारिक तौर पर "लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए लता मंगेशकर पुरस्कार" दे रही है. इसी तरह आंध्र प्रदेश सरकार भी एक पुरस्कार देती है.