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Filmy Friday Vinod khanna: बॉलीवुड हीरो जिसने विलेन बनकर की फिल्मों में एंट्री...करियर के पीक पर फिल्में छोड़ बन गए थे संन्यासी, किया माली से लेकर टॉयलेट क्लीनर का काम

विनोद खन्ना 70-80 के दशक के पॉपुलर एक्टर्स में से एक हुआ करते थे. विनोद के पिता किशनचंद खन्ना पेशावर के नामी कारोबारी थे, लेकिन देश का बंटवारा होने के चलते वह पेशावर छोड़कर मुंबई आ गए.

Filmy Friday Vinod Khanna Filmy Friday Vinod Khanna

एक खलनायक, एक स्टार, एक संन्यासी और एक राजनेता विनोद खन्ना के बारे में जितना बोलें उतना कम है. उन्हें "the monk who sold his Mercedes" के रूप में भी जाना जाता है. विनोद खन्ना 70-80 के दशक के पॉपुलर एक्टर्स में से एक थे. 6 अक्टूबर, 1946 को पाकिस्तान के पेशावर में जन्में विनोद की जिंदगी की कहानी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं है. विनोद खन्ना का अंदाज फिल्मों में भी काफी अलग था. उन्होंने अपनी जिंदगी मे कई उतार-चढ़ाव देखे. विनोद खन्ना ने अपने समय की कई चर्चित फिल्मों में काम किया था जिनमें दयावान, अमर अकबर एंथोनी, इंसाफ, जुर्म और कुर्बानी जैसी फिल्में शामिल हैं. विनोद खन्ना के बारे में ऐसा कहा जाता है कि अगर उन्होंने करियर के पीक पर संन्यास ना लिया होता तो वे आज अमिताभ बच्चन जितने पॉपुलर होते.

कैसे जगा एक्टिंग प्रेम
विनोद खन्ना का जन्म एक पंजाबी परिवार में टेक्सटाइल डाई और रसायन व्यवसायी किशनचंद खन्ना और कमला के घर पेशावर (अब पाकिस्तान में) हुआ था. भारत के विभाजन के समय उनका परिवार मुंबई आ गया. विनोद खन्ना बचपन से ही बड़े शर्मीले स्वभाव के थे. जब वो स्कूल में थे तो एक टीचर ने उन्हें जबरदस्ती एक नाटक में उतार दिया था. यही से उन्हें एक्टिंग का शौक लगा. बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई करने के दौरान विनोद खन्ना ने सोलहवां साल और मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्में देखीं. इन फिल्मों का उन पर ऐसा असर हुआ कि उनके अंदर भी एक्टर बनने की चाहत जगी. विनोद मुंबई के सिडेनहेम कॉलेज में पढ़ रहे थे. शक्ल-सूरत से वो काफी आकर्षक लगते थे. उनके साथ पढ़ने वाली लड़कियों उन्हें उकसाती थीं कि इतनी शानदार पर्सनालिटी है, फिल्मों में ट्राय क्यों नहीं करते. एकदम हीरो मटेरियल हो. इसी बीच एक पार्टी के दौरान उन्हें निर्माता-निर्देशक सुनील दत्त से मिलने का अवसर मिला. सुनील उन दिनों अपनी फिल्म ‘मन का मीत’ के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे. उन्होंने विनोद को फिल्म के लिए बतौर को-एक्टर काम करने का ऑफर दिया. हालांकि ये फिल्म तो पिट गई पर विनोद खन्ना की गाड़ी चल पड़ी.

उनके पिता का टेक्सटाइल का बिजनेस था और वो चाहते थे कि विनोद भी इसी काम में उनका हाथ बटाएं. लेकिन विनोद ने तो कॉलेज के दौरान ही एक्टिंग में करियर बनाने की ठान ली थी. जब ये बात पिता को पता चली तो वे इतने ज्यादा नाराज हुए कि बेटे पर बंदूक तान दी थी और धमकी दी थी यदि वो एक्टिंग की फील्ड में उतरा तो गोली मार देंगे. हालांकि, बाद में वो अपने पिता को मनाने में कामयाब रहे.

डाकू बनकर मिली पहचान
विनोद खन्ना ने इसके बाद 'आन मिलो सजना', 'पूरब और पश्चिम', 'मेरा गांव मेरा देश', 'एलान', 'सच्चा झूठा' और 'मस्ताना' जैसी फिल्मों में भी नेगेटिव रोल प्ले किया. इन फिल्मों से उन्हें डाकू के तौर पर पॉपुलैरिटी मिली. मेरा गांव मेरा देश' में विनोद खन्ना का रोल डाकू जब्बर सिंह इतना चर्चित हुआ कि बॉलीवुड में डाकुओं की कहानी का एक दौर आ गया. इनमें शोले के डाकू गब्बर सिंह का किरादर भी शामिल है. विनोद खन्ना एक्टर बनकर उतने फेमस नहीं हुए जो पहचान उन्हें एक खलनायक के तौर पर मिली. 

स्टारडम के बीच फिल्में छोड़ बने संन्यासी
विनोद खन्ना ने 1971 से 1982 को बीच लगभग 47 मल्टी हीरो फिल्म में काम किया. इनमें 'एक और एक ग्यारह', 'हेरा फेरी', 'खून पसीना', 'अमर अकबर एंथोनी', 'जमीर', 'परवरिश' और 'मुकद्दर का सिकंदर' जैसी हिट फिल्में शामिल हैं. वह बॉलीवुड में काफी लोकप्रिय चेहरा थे और अपने समय के सबसे होनहार अभिनेताओं में से एक माने जाते थे. अपने समय में वो अपने स्टारडम की वजह से अमिताभ बच्चन को भी पीछे छोड़ चुके थे. हालांकि, आध्यात्मिकता की ओर उनके झुकाव की वजह से अमिताभ उनसे आगे निकल गए और विनोद की प्रसिद्धि और स्टारडम खो गया. एक प्रमुख अखबार से बात करते हुए उन्होंने कहा, ''मैं हमेशा से एक साधक रहा हूं. फिल्म इंडस्ट्री में मेरे पास पैसा था, ग्लैमर था, शोहरत थी लेकिन सोच रहा था कि अब क्या? शुरुआत में, मैं हर वीकेंड पुणे में ओशो के आश्रम जाता था. मैंने शूटिंग शेड्यूल भी पुणे में बदल दिया. आखिरकार 31 दिसंबर, 1975 को मेरी दीक्षा हुई और मैंने फिल्मों से संन्यास की घोषणा की, तो किसी ने मुझ पर विश्वास नहीं किया.''

लग्जरी लाइफ छोड़कर किया टॉयलेट क्लीन
1982 में विनोद खन्ना ने फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कहने के बाद अमेरिका में ओशो के बसाए शहर रजनीशपुरम में शरण ली. वहां, उन्होंने अपनी लग्जरी लाइफ से एकदम अलग दुनिया देखी. विनोद खन्ना ने ओशो के आश्रम में माली बनने लेकर बर्तन धोने और टॉयलेट साफ करने जैसे काम किए. ये बात उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में स्वीकार की थी. उन्होंने ओशो के साथ पांच साल बिताए और फिल्म इंडस्ट्री में फिर से वापसी की. इस दौरान उन्होंने 'इंसाफ' और 'सत्यमेव जयते' जैसी दो हिट फिल्मों दीं. हालांकि वो ओशो को छोड़कर खुश नहीं थे. विनोद खन्ना सलमान खान स्टारर 'दबंग' सीरीज की फिल्मों में अहम किरदार में भी नजर आए. इसके अलावा उन्होंने शाहरुख के साथ 'दिलवाले' भी की.

फिल्म के बाद राजनीति भी की
विनोद खन्ना 1997 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल हो गए. नेता से राजनेता बने विनोद खन्ना ने वहां भी अपनी काबिलियत साबित की. उन्होंने पंजाब के गुरदासपुर से चार बार लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की. विनोद खन्ना अपने राजनीतिक करियर में केंद्रीय पर्यटन और संस्कृति राज्य मंत्री और विदेश मामलों के राज्य मंत्री के तौर भी काम किया.

कैंसर से हुई मौत
144 फिल्मों में काम कर चुके विनोद खन्ना को असल में क्या बीमारी थी, इस बारे में उनके मौत से पहले तक किसी तो भी पता नहीं था. हालांकि मौत से पहल खबरें आने लगी थीं कि उन्हें कैंसर है. डिहाइड्रेशन होने के कारण उन्हें मुंबई के गिरगांव में सर एच.एन. रिलायंस फाउंडेशन हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर में अस्पताल में भर्ती कराया गया था. जहां कुछ हफ्तों के इलाज के बाद 27 अप्रैल, 2017 को उन्होंने जिंदगी को अलविदा कह दिया. 

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