भारतीय सिनेमा के मशहूर डायरेक्टर संजय लीला भंसाली को उनकी ‘लार्जर दैन लाइफ’ फिल्मों के लिए जाना जाता है. उनकी फिल्मों की कहानियां कभी ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरित होती हैं तो कई बार आपकी-हमारी कल्पना से एकदम परे. कहानियों के हिसाब से ही वह अपने किरदार गढ़ते हैं, और फिर उन्हें तराशते हैं. हर एक बारीकी को ध्यान में रखकर कुछ इस तरह वह अपनी फिल्मों को परदे पर उतारते हैं कि जितनी बार आप इन फिल्मों को देखें, वे उतनी बार नयी लगती हैं.
हर बार आप उनकी फिल्मों में कुछ न कुछ अलग ढूंढ लेते हैं. अपने क्राफ्ट पर उनकी जो पकड़ है वह भारतीय सिनेमा में बहुत ही कम निर्देशकों के पास है. शायद इसलिए ही हर एक्टर या एक्ट्रेस ज़िन्दगी में कम से कम एक बार उनकी फिल्म का हिस्सा बनना चाहते हैं.
अपने नाम में मां का नाम जोड़ दी उनके संघर्ष को पहचान:
भंसाली के पिता एक प्रोड्यूसर थे लेकिन असफल होने पर उन्होंने खुद को शराब के नशे में डुबो लिया था. जब पिता ने जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया तो मां ने हिम्मत का दामन थामा. उनकी मां लीला गुजराती रंगमंच पर परफॉर्म करके घर का खर्च उठाती थीं.
उन्होंने लोगों के कपड़े सिलकर भी पैसे जुटाए, जिससे उनके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ सकें. यह उनकी मां की मेहनत थी कि वह FTII जैसे संस्थान से पढ़ सके और यहां से मशहूर डायरेक्टर विधु विनोद चोपड़ा ने उन्हें अपने साथ काम करने का मौका दिया.
मीडिया को दिए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि ‘1942: ए लव स्टोरी’ फिल्म में उन्होंने एक गाना निर्देशित किया था जिसका क्रेडिट विधु उन्हें देना चाहते थे. तब उन्होंने अपना नाम ‘संजय लीला भंसाली’ लिखने के लिए कहा ताकि वह अपनी मां के संघर्ष को पहचान दे सकें.
पिता ने दिखाया परदे तक रास्ता, मां और दादी ने दी सोच:
बात आगर सिनेमा के प्रति भंसाली के प्रेम और समर्पण की की जाए तो एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि इस दुनिया के प्रति उनका सम्मोहन चार साल की उम्र से शुरू हो गया था. उनके पिता एक बार उन्हें अपने दोस्त के स्टूडियो में ले गए थे.
स्टूडियो में एक कैबरे की शूटिंग चल रही थी. वह दृश्य उनके मन में बस गया और तब से ही उनके मन में सिनेमा के प्रति एक अटूट लगाव पैदा हो गया. इसके अलावा, भंसाली की ज़िन्दगी के प्रति नजरिये को उनकी मां और दादी ने संवारा.
उन्होंने एक बार बताया था कि उनकी दादी 22 साल की उम्र में विधवा हो गई थीं, लेकिन पूरी मेहनत से अपने बच्चों को पाला. 60 से ज्यादा की उम्र में भी वह रात के दो बजे तक काम करती थीं, ताकि सबको वक्त पर खाना मिल सके. उनकी दादी ने उनके लिए खिलौने लेने के लिए अपनी आखिरी चांदी की प्लेट भी बेच दी थी. वहीं उनकी मां हमेशा नाचती-गाती रहती थीं.
वह लोगों की साड़ी में फाल लगाया करती, घर-घर जाकर साबुन भी बेचती थीं. लेकिन उन्होंने अपनी मां के चेहरे पर हमेशा मुस्कान देखी. उन्होंने हमेशा देखा कि उनकी मां की जीवन के प्रति आस्था कभी नहीं खत्म हुई और शायद इसलिए उनकी हर फिल्म की नायिकाएं हिम्मत और उम्मीद से भरी हुई होती हैं.
खुद कंपोज़ करते हैं अपनी फिल्मों का संगीत:
संजय लीला भंसाली को डायरेक्शन के साथ-साथ म्यूजिक में भी गहरी दिलचस्पी है. उनके बारे में कहा जाता है कि वह अपनी लगभग हर फिल्म का म्यूजिक खुद कंपोज़ करते हैं. उनकी फ़िल्में किसी मेगा-म्यूजिकल से कम नहीं होती हैं.
फिर वह चाहे देवदास हो, हम दिल दे चुके सनम, राम-लीला, पद्मावत या गंगूबाई काठियावाड़ी. अपनी किसी भी फिल्म में वह संगीत को एकदम मौलिक रखते हैं. संगीत के प्रति अपने प्रेम के बारे में उन्होंने एक बार मीडिया इंटरव्यू में बताया था कि उनका बचपन का पसंदीदा खिलौना रेडियो था. कभी-कभी अपने पसंदीदा गाने को रेडियो पर सुनते वक्त वह कल्पना करते थे कि वह इस गाने को कैसे शूट करते.
भव्य होते हैं सेट ताकि हीरोइन के नाचने के लिए कम न पड़े जगह:
संजय लीला भंसाली की फिल्मों की कहानियों की तरह उनकी फिल्मों के सेट भी भव्य होते हैं. हमारी-आपकी कल्पना से कहीं ज्यादा सुंदर और बड़े. हालांकि इसके पीछे का कारण उनका निजी अनुभव है. सब जानते हैं कि उनकी मां डांसर थीं. उन्होंने गुजराती रंगमंच पर बहुत परफॉर्म किया था.
लेकिन भंसाली और उनकी बहन के जन्म के बाद उनका डांस परफॉर्म करना बहुत कम हो गया था. लेकिन वह घर में नाचा करती थीं. जब भी रेडियो पर गीत बजता तो वह नाचने लगती थीं और अक्सर आसपास रखी चीजों को गिरा देती थीं, क्योंकि घर में जगह कम थी.
इसलिए वह हमेशा अपनी फिल्मों के सेट बहुत बड़े रखते हैं, ताकि उनकी हीरोइनों को नाचने के लिए जगह की कमी ना हो. इसलिए उनकी फिल्मों में सभी गाने, डांस परफॉरमेंस एकदम परफेक्शन से किए जाते हैं.
उनके परफेक्शन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि फिल्म ‘पद्मावत’ के ‘घूमर’ गाने में दीपिका ने 30 किलो का लहंगा पहनकर डांस किया था और वह भी एकदम परफेक्ट. वहीं ‘देवदास’ के ‘डोला रे डोला’ गाने को उन्होंने एक हफ्ते में शूट किया था.
ज़िंदगी के अनुभवों को घोला सिनेमा में:
संजय लीला भंसाली की फिल्मों को जो बात खास बनाती है वह है उनके अनुभव. भंसाली अपने निजी अनुभवों से प्रेरित होकर अपनी फिल्मों पर काम करते हैं. उन्होंने कई बार इस बारे में बताया भी है. जैसे ‘हम दिल दे चुके सनम’ में सलमान खान का अपने पिता से बात करने का तरीका उनके अपने निजी अनुभव से प्रेरित था.
उनकी फिल्मों में रंगों की भी प्रधानता होती है. इसका कारण है कि उनका बचपन नल बाजार और भूलेश्वर के कोने में बीता है, जहां उन्होंने तरह-तरह के रंग देखे. वह रेड लाइट इलाके से होकर स्कूल जाते थे और उनकी सभी यादें उसी इलाके की हैं. वहां रह रहे लोगों के कपड़ों के भड़कीले रंगों की हैं. इसलिए अपने चटक रंगों के अनुभव को वह परदे पर उकेर देते हैं.
अंतरराष्ट्रीय कलाकार हैं भंसाली:
संजय लीला भंसाली का काम ऐसा है कि उन्हें भारत में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी सराहा जाता है. उनकी बहुत सी फिल्मों को इंटरनेशनल लेवल पर पहचान मिली है. बहुत ही कम लोग शायद जानते होंगे कि उनकी फिल्म ‘ब्लैक’ देखने के बाद एक तुर्की निर्देशक इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ‘Benim Dunyam’ नाम से फिल्म का रीमेक बनाया.
उनकी फिल्म ‘सांवरिया’ पहली ऐसी बॉलीवुड फिल्म थी, जिसे हॉलीवुड स्टूडियो, सोनी पिक्चर्स ने रिलीज़ किया था और अब उनकी फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ को बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन किया गया, जहां उन्हें फिल्म के लिए ‘स्टैंडिंग ओवेशन’ मिली.
भंसाली का कहना है कि ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ अब तक की उनकी बेस्ट फिल्म है. यह फिल्म उनके बचपन के दिनों को ट्रिब्यूट है क्योंकि वह उन्हीं गलियों में पले-बढ़ें हैं और कभी भी उन गलियों को, उस अनुभव को नहीं भूल सकते हैं.