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Ustad Bade Ghulam Ali को कहा जाता था 'तानसेन', ऐसी रूहानी आवाज की नाचने लगे थे मोर, फिल्मों में गाने से कर दिया था मना, जानें फिर कैसे गाए

उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का जन्म पाकिस्तान में 2 अप्रैल 1902 को हुआ था. उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने चाचा काले खां से ली थी. वह कहते थे मुझे राग की शुद्धि से मतलब है. क्या गा रहे हो इसकी मालूमात जरूरी है.

उस्ताद बड़े गुलाम अली खां (फाइल फोटो) उस्ताद बड़े गुलाम अली खां (फाइल फोटो)
हाइलाइट्स
  • उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का जन्म पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था

  • 1957 में ले ली थी भारत की नागरिकता

आज भी संगती के क्षेत्र में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का नाम बड़े अदब से लिया जाता है. वह अपने दौर में सर्वाधिक प्रतिभाशाली गायकों में से एक थे. उन्हें भारत का  'तानसेन' कहा जाता था. बड़े गुलाम अली साहब की पुण्य तिथि (25 अप्रैल, 1968) पर आइए जानते हैं उनके बारे में कुछ रोचक बातें. 

पाकिस्तान में हुआ था जन्म
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का जन्म पाकिस्तान के लाहौर स्थित केसुर गांव में 2 अप्रैल, 1902 को हुआ था. उनको संगीत विरासत में मिला था. उनके पिता अली बख्श खां प्रसिद्ध सारंगी वादक और गायक थे. बड़े गुलाम सहाब ने संगीत की शिक्षा अपने चाचा काले खां से ली थी, जो उस समय के प्रसिद्ध गायक थे. 1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो उस्ताद बड़े गुलाम अली खां लाहौर चले गए. लेकिन फिर वे भारत आ गए. और यहीं बस गए. 1957 में उनको भारत की नागरिकता मिल गई.

कलकत्ता में पहला कंसर्ट हुआ था हिट
उस्ताद बड़े गुलाम अली शुरू में सारंगी बजाते थे और चाचा काले खां के लिखे गीतों को गाते थे. कलकत्ता (अब कोलकाता) में 1938 में उनका पहला कंसर्ट हिट हो गया. इसके बाद वे भारत में प्रसिद्ध हो गए. उन्होंने ठुमरी की नई शैली का इजाद किया. उन्होंने असंख्य खयाल और ठुमरी गाए. जिनमें से 'याद पिया की आए', 'कटे न विरह की रात', 'तिरछी नजरिया के बाण', 'आए न बालम' और 'क्या करूं सजनी' आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर होते हैं.

रियाज के थे पाबंद
बड़े गुलाम अली साहब रियाज के इस कदर पाबंद थे कि उस वक्त के लोग कहा करते थे यह लड़का पागल हो जाएगा. उनके इसी म्यूजिकल पैशन ने उन्हें इंडियन क्लासिकल सिंगिंग का बेताज बादशाह बना दिया. क्लासिकल म्यूजिक को लेकर उनकी समझ लाजवाब थी. वह कहते थे मुझे राग की शुद्धि से मतलब है. क्या गा रहे हो इसकी मालूमात जरूरी है. पूर्वी, पंजाबी, मुल्तानी फोक म्यूजिक के साथ क्लासिकल म्यूजिक का उनका एक्सपेरिमेंटेशन उस दौर में काफी पसंद किया जाता था. 

...जब नाचने लगे थे मोर 
कहा जाता है कि एक रोज अफगानिस्तान की शाह ने खुले बाग में संगीत की महफिल सजाई थी. गाने के लिए गुलाम अली साहब को दावत दी गई. गुलाम अली साहब ने ज्यों ही सुर लगाया, वहां चहलकदमी करते हुए मोर पंख फैलाकर नाचने लगे. बंदिश खत्म होते ही उसने अपने पंख समेट लिए.

एक गाने के लिए इतने रुपए लिए थे
बड़े गुलाम अली साहब को फिल्मों में प्लेबैक सिंगिंग से परहेज था. लेकिन के. आसिफ के काफी मनाने पर वह फिल्म मुगल-ए-आजम में गाने के लिए तैयार हुए. उन्होने इस फिल्म में एक गाने के लिए उस जमाने में 25000 रुपए लिए थे. उनकी आवाज को इस मूवी में तानसेन की आवाज के लिए इस्तेमाल किया गया. 1962 में उनको संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिला और 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.