scorecardresearch

Biju Kumar Sarmah: पर्यावरण बचाने के लिए 10 साल से पूरे असम में कर रहे हैं पौधे 'गिफ्ट', लोगों ने रखा अनूठा नाम, राज्य सरकार ने भी किया सम्मानित

पर्यावरण बचाने के लिए बीजू बीते 10 साल से दूर-दूर जाकर पौधे बांट रहे हैं और लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं. उनकी इसी आदत की वजह से उन्हें 'गोस्पुली' के नाम से जाना जाने लगा है.

Biju Kumar Sarmah Biju Kumar Sarmah
हाइलाइट्स
  • वन्यजीवन वॉर्डन के रूप में काम कर चुके हैं बीजू

  • बच्चों को शिक्षित करने पर रहता है खास ध्यान

इस समय भारत में गर्मी रिकॉर्ड तोड़ रही है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बुधवार को पारा 52 डिग्री सेल्सियस के निशान को पार कर गया. यह कहना गलत नहीं होगा आधुनिक समाज ने अपने लिए एक ऐसी दुनिया बना ली है जो हर दिन थोड़ी ज्यादा गर्म होती जा रही है. लेकिन पर्यावरण से सब कुछ लेने पर तुली इस भीड़ के बीच एक बीजू कुमार सरमा भी हैं जो पर्यावरण को कुछ देकर जाना चाहते हैं.

पर्यावरण बचाने के लिए शुरू की जंग
पूर्वी असम में कई लोग अब बीजू कुमार शर्मा को 'बीज' के साथ जोड़कर देखने लगे हैं. इसका कारण यह है कि वह अपने आसपास के इलाकों में लोगों को पौधे और बीज तोहफे में देकर लम्बे समय से पर्यावरण संरक्षण के बीज बो रहे हैं. बीजू इस समय जोरहाट जिले में मौजूद ज्योति प्रताप ज्ञानमार्ग विद्यालय में अध्यापक हैं. वह 2014-16 के बीच वन्यजीव वार्डन भी रह चुके हैं. लेकिन इन दोनों भूमिकाओं में आने से बहुत पहले वह अपनी बाइक पर घूम-घूमकर लोगों में पौधे बांट चुके हैं.

उन्होंने इस दौरान लोगों को अपने आसपास के इलाकों को और हरा-भरा बनाने के लिए प्रेरित किया है. बीजू का पहला लक्ष्य यही रहा है कि वह पर्यावरण को बचा सकें. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की ओर से प्रकाशित खबर के अनुसार, बीजू का कहना है कि पर्यावरण को अपनी आंखों के सामने बर्बाद होते देखने के कारण वह उसे बचाने के लिए प्रेरित हुए. 

रिपोर्ट के अनुसार, बीजू कहते हैं, “एक बच्चे के तौर पर मैंने जोरहाट जिले के मेरे मरिझांजी गांव में लोगों को एक नदी से बहुत सारी मछलियां पकड़ते देखा. समय के साथ, मछलियों की आबादी काफी कम हो गई. प्रकृति में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है, और मुझे लगा कि जंगलों का लगातार कम होना इसका एक कारण था. इसलिए, मैंने पौधे लगाकर ग्रामीणों को जागरूक करना शुरू किया, लेकिन मैंने उनके वितरण पर अधिक जोर दिया. मैं अभी भी वह कर रहा हूं." 

जब कर्तव्य और जुनून के बीच फंस गए बीजू 
साल 2002 में बीजू 'न्यू ग्राम सेवा संगठन' नाम के एनजीओ में शामिल हुए. यहां उन्होंने पर्यावरण और स्वास्थ्य सहित मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए राज्य भर में यात्रा की. 2014 में जब उनके पिता बीमार पड़ गए तो उन्हें घर लौटना पड़ा. 

सम्बंधित ख़बरें

बीजू बताते हैं, "मेरे पिता ने कहा कि अगर मैंने घर छोड़ा तो वह मर जायेंगे. मैं अपने जुनून और कर्तव्य के बीच फंसा हुआ था. मेरे एक पुराने जानकार बैंक मैनेजर ने मुझे गांव से काम करने की सलाह दी. लेकिन मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना चाहता था, इसलिए मैंने 'रेंगोनी, ए होप' नाम से एक एनजीओ बनाया. मैंने समान विचारधारा वाले लोगों को इकट्ठा किया और अपना नेटवर्क फैलाने के लिए नौ सदस्यीय टीम बनाई." 

इसके बाद बीजू का एनजीओ राज्य सरकार के कई विभागों के साथ मिलकर अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने लगा. वह बताते हैं कि उनका प्रमुख ध्यान बच्चों को जागरूक बनाने पर रहता है. वह बीते एक दशक में जोरहाट, मजुली, सिवासागर और कामरूप के कई स्कूलों का दौरा कर चुके हैं. 

रिपोर्ट के अनुसार, वन विभाग बीजू को मुफ्त में पौधे मुहैया करवाता है. साथ ही बीजू के दोस्त और खैरख्वाह भी अक्सर उनकी मदद करते हैं. बीजू के प्रयासों की सराहना करने के लिए असम सरकार ने उन्हें मानद वन्यजीव वार्डन के सम्मान से नवाजा है. 

अपने लोगों के लिए 'गोस्पुली' बने बीजू
पूर्वी असम में बीजू का प्रभाव ऐसा है कि दूर-दूर तक लोग उन्हें 'गोस्पुली' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है पौधा. दूर-दूर तक लोग बीजू को प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जुनूनी व्यक्ति के रूप में जानते हैं. वह सामाजिक समारोहों में पौधे भी उपहार में देते हैं. हाल ही में एक कॉलेज टीचर ने उन्हें अपनी शादी में बुलाया और 100 पौधे लाने को कहा था.

बीजू बताते हैं, "लोग मुझे गोस्पुली कहते हैं. मुझे खुशी है कि पौधों ने मुझे एक पहचान दी है. जब भी हमारे क्षेत्र में पर्यावरण से संबंधित कोई कार्यक्रम होता है तो मुझे निमंत्रण मिलता है."

अपने एक शेर में अहमद फराज कहते हैं, 
शिकवा-ए-जुलमत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम'आ जलाते जाते

आप या तो पर्यावरण की चिंताओं को लेकर शिकायत कर सकते हैं, या उन्हें खत्म करने के लिए बीजू की तरह ठोस कदम उठा सकते हैं.