यह कहानी है उत्तर प्रदेश के प्लास्टिक सर्जन डॉ. सुबोध सिंह की. सुबोध हमेशा से ही एक मेधावी छात्र रहे. उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वाराणसी में अपने परिवार को सपोर्ट करने के लिए चश्मे आदि बेचने का काम भी किया. लेकिन आज, डॉ सुबोध सिंह को मशहूर प्लास्टिक सर्जन के रूप में जाना जाता है.
खासकर, उन्हें दुनियाभर में 'स्माइल ट्रेन' पहल के तहत क्लेफ्ट की फ्री-करेक्टिव सर्जरी करने के लिए जाना जाता है. डॉ. सिंह कटे होंठ/तालु के साथ पैदा हुए बच्चों की मुफ्त में सर्जरी करते हैं. अब तक, उन्होंने 37,000 मुफ्त फांक-तालु (Cleft palate) सर्जरी करके 25,000 परिवारों की मुस्कान लौटाई है.
कटे तालु और होठ एक सामान्य जन्म स्थिति है. कई बार यह आनुवंशिक हो सकता है तो कई बार इसकी वजह अनजान होती है. इसके कारण बोलने और खाने में कठिनाई होती है. लेकिन डॉ. सिंह सालों से गरीब और जरूरतमंद बच्चों को क्लेफ्ट से मुक्ति दिलाकर उनकी मुस्कान लौटा रहे हैं. गरीबों के लिए डॉ सिंह की सेवा ने उन्हें व्यापक पहचान दिलाई है.
जीवन में किया संघर्ष:
डॉ. सिंह ने अपने पिता को बहुत ही कम उम्र में खो दिया था. उनके पिता रेलवे में क्लर्क थे. उनका कहना है कि उनके पास सर्जरी के लिए आने वाले सभी जरूरतमंद बच्चों में उन्हें वह 13 साल का सुबोध दिखता है, जिसने अपने पिता को खो दिया था. उन्हें अपने माता-पिता से हमेशा दूसरों की मदद करने की शिक्षा मिली. उनका मानना है कि उन्हें भगवान ने प्लास्टिक सर्जन बनाया है बिजनेसमैन नहीं.
पिता के जाने के बाद जीवन बिल्कुल भी आसान नहीं रहा. उन्हें और उनके भाइयों को घर चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ी. उन्होंने घर पर साबुन बनाकर भी बेचे हैं. हालांकि, उनके सबसे बड़े भाई को उनके पिता की जगह रेलवे में नौकरी मिली लेकिन फिर भी घर का गुजारा करना आसान नहीं था.
साल 1982 में उनके बड़े भाई को रेलवे से पहले बोनस में 579 रुपए मिले. इन पैसों से उन्होंने सुबोध की फीस भरी ताकि वह मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर पाएं. और सुबोध ने भी अपने भाई की मेहनत को बेकार नहीं जाने दिया. उन्होंने एक नहीं बल्कि तीन जगह के मेडिकल एंट्रेंस को क्लियर किया. और आखिरकार बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से अपनी मेडिकल की डिग्री पूरी की.
लौटा रहे बच्चों की मुस्कान:
साल 2002 से उन्होंने अपने पिता की याद में उनकी पुण्यतिथि पर एक नि: शुल्क उपचार सप्ताह शुरू किया. उन्होंने 2003-04 से सुधारात्मक क्लेफ्ट सर्जरी करना शुरू किया और द स्माइल ट्रेन प्रोजेक्ट (विश्व स्तर पर सबसे बड़ा क्लेफ्ट सर्जरी-केंद्रित संगठन) का हिस्सा बने.
उन्होंने दिसंबर 2005 तक 2,500 क्लेफ्ट सर्जरी का लक्ष्य रखा. लेकिन स्माइल ट्रेन इंडिया टीम को लगा कि यह करना मुमकिन नहीं होगा. इसलिए टीम ने उन्हें 2005 के अंत तक सिर्फ 500 मुफ्त सर्जरी का लक्ष्य रखने को कहा. लेकिन उन्होंने 2004 के अंत तक ही लक्ष्य के आंकड़े को पार कर लिया और 2005 तक उन्होंने 2,500 से ज्यादा क्लेफ्ट सर्जरी कीं. साल 2008-09 से, इस पहल के तहत वह सालाना 4,000 से अधिक मुफ्त क्लेफ्ट सर्जरी करते हैं.
उनकी टीम में प्लास्टिक सर्जन, सामाजिक कार्यकर्ता, पोषण विशेषज्ञ और स्पीच थेरेपिस्ट शामिल हैं. उन्होंने एक आउटरीच प्रोग्राम बनाया ताकि भारत के अलग-अलग इलाकों में क्लेफ्ट के साथ जन्मे बच्चों का पता लगा सकें.
उनकी एक पहल ने न सिर्फ बच्चों को अपनी मुस्कान लौटाई है बल्कि लोगों के बीच इस विषय पर जागरूकता भी बढ़ाई है. बहुत से परिवारों को फिर से मिलाया है. क्योंकि गांव-देहात में बहुत से लोग अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि उन्होंने क्लेफ्ट पीड़ित बच्चे को जन्म दिया होता है.
बनी है खास डॉक्यूमेंट्री:
स्माइल ट्रेन प्रोजेक्ट से प्रेरित होकर 2008 में मेगन मायलन ने 39 मिनट की डॉक्यूमेंट्री, स्माइल पिंकी बनाई. डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि कैसे डॉ. सिंह और उनकी टीम ने गरीब तबके से आने वाली छोटी बच्ची पिंकी सोनकर (पूर्वी यूपी के मिर्जापुर के रामपुर दबाही गांव से) के जीवन को अपनी मुफ्त क्लेफ्ट सर्जरी से एकदम बदल दिया. इस डॉक्यूमेंट्री को अवॉर्ड भी मिला है.
डॉ सिंह की उपस्थिति में, उनकी मरीज पिंकी सोनकर को सेंटर कोर्ट ऑफ विंबलडन में एंडी मरे और नोवाक जोकोविच के बीच पुरुष एकल फाइनल के प्री-मैच टॉस के लिए सिक्का उछालने का सम्मान दिया गया था. क्लेफ्ट सर्जरी के अलावा, डॉ. सिंह ने हजारों बर्न सर्जरी भी की हैं और लोगों के जीवन को संवारा है.
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