भारत की आजादी का सबसे बड़ा नाम- "महात्मा गांधी". देश का बच्चा-बच्चा बापू के त्याग को जानता है. बापू की तरह ही उनका चरखा भी लोकप्रिय है. आजादी के समय में इसी चरखे से बने सूती कपड़े के लिए महात्मा गांधी ने बहुत लड़ाई लड़ी है. धीरे-धीरे चरखे के महत्व को लोग भूलते जा रहे हैं. लेकिन मध्यप्रदेश के सतना में एक गांव है, जहां आज भी लोग इसी चरखे के बदौलत रोजी-रोटी कमा रहे हैं.
हर घर में चलता है चरखा
मध्यप्रदेश के सतना से बमुश्किल 70 किलोमीटर दूर है सुलखमा गांव. तकरीबन सवा सौ घरों की बस्ती वाले इस गांव में पाल समाज के लोग रहते हैं. घर के बच्चे से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक आज भी चरखा की बदौलत रोजी-रोटी कमा रहे हैं. दो जून ही रोटी के लिए ही सही, मगर सुलखमा का पाल समाज आज भी गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन की ज्योति जलाए हुए है. बगैर कोई सरकारी इमदाद के बापू का चरखा हर घर में चलता है.
चरखे से होती है कमाई
देश के शोषण के खिलाफ गांधीजी इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था. सुलखमा में पुरुष भेड़ के बाल निकालकर चरखा में सूत बनाते हैं. महिलाएं भी पुरुषों से कमतर नहीं हैं. वो भी पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर इस काम में हाथ बंटाती हैं. कंबल बनाने और बेचने का जिम्मा पुरुष के हवाले रहता है.
पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है चरखा
बापू की धरोहर चरखा जहां देश के संग्रहालयों में देखने की विषय वस्तु बन चुका है तो, वहीं सुलखमा गांव में बापू का चरखा पाल समाज की जीविकोपार्जन का साधन बना हुआ है. पीढ़ी दर पीढ़ी इस गांव के पाल समाज की आय चरखा पर आश्रित है. बड़े बुर्जुगों ने भी जबसे होश संभाला तब से घर चरखा पाया.
भेड़ के बाल से बनाते हैं कंबल
गांव के ही रहने वाले छोटेलाल पाल बताते हैं कि, "ये काम बहुत दिनों से हमारे पूर्वज कर रहे थे. अब जब वो लोग नहीं रहे तो हम लोग ये काम कर रहे हैं. हम लोग चरखे से कंबल बनाते हैं. ऊन को धुनकते है, फिर सूत बनाते हैं. उसके बाद इसकी पुड़िया बनाकर इसपर मांड़ चढ़ाई जाती है." वो आगे कहते हैं कि, "हम लोग भेड़ के बाल काटते हैं. जब भेड़ के बाल बड़े-बड़े हो जाते हैं, तो उनको कैंची से काट लिया जाता है. फिर उसी से कंबल बनाते हैं. उन्हीं कंबलों की बिक्री से हमारा घर चलता है."
(सतना से योगितारा की रिपोर्ट)