क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि आप दिन में कितने घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं? घंटों मोबाइल पर स्क्रॉल करना हो या रील्स देखने की आदत, या फिर नेट से गेम खेलने की लत...ज्यादातर लोग स्मार्टफोन पर दिन में कम से कम तीन घंटे इंटरनेट ब्राउज करने में बिताते हैं. बेशक आप इसे खराब लाइफस्टाइल या बुरी आदतों की श्रेणी में रखते हों लेकिन हाल ही में हुई एक स्टडी के रिजल्ट टीक इसके उलट हैं. वैज्ञानिकों ने स्टडी में पाया है कि नियमित इंटरनेट का इस्तेमाल डिमेंशिया के जोखिम को कम कर सकता है.
इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में डिमेंशिया का जोखिम कम
अध्ययन में शामिल किए गए 18,000 Older adults में, नियमित रूप से इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में डिमेंशिया विकसित होने का जोखिम उन लोगों की तुलना में लगभग आधा था, जो नियमित रूप से इसका उपयोग नहीं करते थे. ये स्टडी जर्नल ऑफ द अमेरिकन जेरिएट्रिक्स सोसाइटी में प्रकाशित की गई है.
8 सालों तक शोधकर्ताओं ने रखी नजर
लगभग आठ सालों तक शोधकर्ताओं की एक टीम ने एडल्ट्स पर नजर रखी, जिनकी उम्र 50 से 64.9 थी और अध्ययन की शुरुआत में उन्हें डिमेंशिया नहीं था. Older adults पर पहले के शोध में सामने आया कि नियमित तौर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की तार्किक क्षमता, यादाश्त और परफॉर्मेंस बेहतर थी. फॉलो-अप के दौरान, 4.68% प्रतिभागियों को डिमेंशिया था. ये वो लोग थे जो नियमित तौर पर इंटरनेट इस्तेमाल नहीं करते थे.
सामाजिक रहने से डिमेंशिया का खतरा कम
यह अपनी आप में महत्वपूर्ण रिसर्च है, क्योंकि यह संभावित रूप से परिवर्तनीय कारक की पहचान करता है जो डिमेंशिया जोखिम को प्रभावित कर सकता है. हालांकि ये अध्ययन डिमेंशिया का कारण और प्रभाव स्थापित करने में सक्षम नहीं है. इससे पहले की गई रिसर्च में भी बताया गया था कि 60 की उम्र पर सामाजिक रूप से ज्यादा सक्रियता से बाद में डिमेंशिया विकसित होने का खतरा उल्लेखनीय रूप से कम होता है.
क्या है डिमेंशिया
डिमेंशिया में हमारी सोचने-समझने की क्षमता लगातार कम होती जाती है. डेमेंशिया में मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं को नुकसान होता है. आम तौर पर इस बीमारी के लक्षण धीरे-धीरे दिखते हैं और वक्त गुजरने के साथ गंभीर होते जाते हैं. WHO के मुताबिक दुनियाभर में चार करोड़ से अधिक लोग डिमेंशिया बीमारी से पीड़ित हैं. यह रोग एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट को बढ़ा रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक साल 2030 तक मरीजों की संख्या बढ़कर 7.8 करोड़ हो जाएगी.