आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सेंसर विकसित करने का दावा किया है जिससे स्किज़ोफ्रेनिया और पार्किंसंस जैसी नर्व यानि तंत्रिका संबंधी बीमारियों का शुरुआती दौर में ही पता लगाया जा सकता है. वैसे देखा जाए तो जब भी व्यक्ति इन बीमारियों से पीड़ित होता है तब उसके मस्तिष्क में डोपामाइन का स्तर बदल जाता है. आपको बता दें कि डोपामाइन एक रसायन है जो मस्तिष्क में रहता है.
इस सेंसर से छोटे विकारों का भी लग जाएगा पता
यह जो सेंसर विकसित किया गया है इससे डोपामाइन रसायन के लेवल में होने वाले छोटे से छोटे बदलाव के बारे में भी पता लगाया जा सकता है और इस प्रकार स्किज़ोफ्रेनिया और पार्किंसंस रोग जैसे तंत्रिका संबंधी विकारों की संभावना का पता लगा सकता है. बीएलके मैक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल के एसोसिएट डायरेक्टर और न्यूरो सर्जन राजेश गुप्ता ने बताया कि से अधिकांश बीमारियों का पूरी तरह से इलाज नहीं किया जा सकता है, जल्दी पता लगाने से रोग को आगे बढ़ने से नियंत्रित करने में मदद मिलती है. ऐसे में आईआईटी रुड़की में विकसित सेंसर में चिकित्सा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता है.
इस बीमारी में पूरी तरह संभव नहीं है इलाज
डॉ राजेश गुप्ता बताते हैं कि दरअसल इन बीमारियों का पूरी तरह से इलाज 100% संभव नहीं है लेकिन इस विकसित सेंसर से बीमारी को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी. इसी वजह से आईआईटी रुड़की में किया गया यह शोध बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आपको बता दें कि आईटी की टीम ने इस सेंसर को बनाने के लिए ग्रिफिन क्वांटम डॉट नामक इनग्रेडिएंट का इस्तेमाल किया है जो सल्फर और बोरोन के साथ मिलकर बना है. बहुत कम मात्रा में डोपामाइन की उपस्थिति में, यह सेंसर प्रकाश की तीव्रता को बदलता है जिसे आसानी से मापा जा सकता है. इस प्रकार मस्तिष्क में डोपामाइन की मात्रा का अनुमान होता है.
क्या होता है पार्किंसंस?
ये बीमारी दूसरी सबसे आम न्यूरोडीजेनेरेटिव डिसऑर्डर है, इस बीमारी में मनुष्य के शरीर का वो हिस्सा प्रभावित होता है, जो हमारे शरीर के अंगों को संचालित करता है. क्योंकि इसके लक्षण कम होते हैं, इसलिए शुरुआत में इसे पहचानना काफी मुश्किल होता है. लेकिन जैसे-जैसे समय बितता है, कमजोरी महसूस होने लगती है, और इसका असर आपके चलने, बात करने, सोने, सोचने से लेकर लगभग हर काम पर पड़ने लगता है.
क्या होता है स्किज़ोफ्रेनिया?
स्किज़ोफ्रेनिया सबसे ज्यादा 16 से 30 साल के लोगों में ज्यादा होता है. महिलाओं की तुलना में पुरुषों में थोड़ी छोटी उम्र में इसके लक्षण दिखने लगते हैं. कई मामलों में विकार इतनी धीमी गति से विकसित होता है कि सालों साल व्यक्ति ये नहीं जान पाता कि उसे कोई बीमारी है. हालांकि कुछ मामलों में ये अचानक विकसित हो जाता है. इसके लक्षण जल्दी से दिख कर तेजी से फैलने लगते हैं. इस बीमारी में लोग वास्तविकता की व्याख्या असामान्य रूप से करते हैं. इस बीमारी में भ्रम की स्थिति पैदा होती है और व्यक्ति अनियंत्रित सोच और व्यवहार के कारण रोजाना के कामकाज नहीं कर पाता है.