नम्रता के जीवन में 2016 में एक बड़ा मोड़ आया जब वे लगातार बीमार रहने लगीं. उस समय, नम्रता मुंबई के चेंबूर में एक इंटरनेशनल स्कूल में डे केयर वर्कर के रूप में काम करती थीं. चेहरे पर अपनी हंसी के साथ नम्रता उन सभी लक्षणों को अंदर-अंदर झेल रही थी. हालांकि एक समय बाद उन्हें नजरअंदाज करना लगभग नामुमकिन हो गया. ट्यूबरक्लोसिस (Tuberculosis) या टीबी की बीमारी इसी तरह से दस्तक देती है.
भारत ने वैश्विक लक्ष्य से पांच साल पहले 2025 तक इस बीमारी को खत्म करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी भारत टीबी रिपोर्ट 2024 में परिणाम काफी मिले-जुले आए हैं. 2015 से, भारत ने टीबी के खिलाफ अपनी लड़ाई में काफी प्रगति की है, फिर भी 2025 तक इस बीमारी को खत्म करने का लक्ष्य मुश्किल है. बता दें, 2023 में, भारत में अनुमानित 27.8 लाख टीबी के मामले दर्ज किए गए थे, जो 2015 में रिपोर्ट किए गए 28 लाख मामलों से मामूली कम हैं. लेकिन समय पर ट्रीटमेंट और डायग्नोस हो तो कुछ हद तक इन्हें और कम किया जा सकता है.
नौकरी के पांच महीने बाद ही नम्रता की तबीयत बिगड़ने लगी. वह बार-बार बुखार, लगातार खांसी, भूख में कमी, शरीर में दर्द और सीने में दर्द से परेशान थी. अपनी बढ़ती परेशानी के बावजूद, नम्रता ने हर दिन प्रयास करना जारी रखा, यह उम्मीद करते हुए कि उनके लक्षण अपने आप ठीक हो जाएंगे. नम्रता इस बात से अनजान थी कि वह मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट ट्यूबरक्लोसिस (MDR-TB) का सामना कर रही हैं.
टीबी ने उथल-पुथल कर दी जिंदगी
नम्रता ने GNT डिजिटल को बताया कि शुरुआत में 5-6 महीने उन्हें बुखार आया, लेकिन वे इसे नजरअंदाज कर देती थीं. नम्रता बताती हैं, “मुझे डर लगता था कि कहीं मैं घर में बताउंगी तो सभी सोचेंगे कि ये कितनी कमजोर है. फैमिली डॉक्टर भी मुझे ब्लड टेस्ट और एक्स-रे करवाने के लिए कहते थे. लेकिन मैं दवाई लेकर खुद को समझा लिया करती थी. कुछ समय के लिए मेरी तबीयत भी ठीक हो जाया करती थी.”
नम्रता ने मुंबई के गोवंडी शताब्दी अस्पताल में मेडिकल सहायता ली. कई टेस्ट के बाद, उन्हें उनके MDR-TB के बारे में पता चला. नम्रता कहती हैं, “मेरे पास उस टाइम टेस्ट करवाने के पैसे भी नहीं थे. मैं किसी से पैसे नहीं मांगना चाहती थी और न ही किसी के सामने हाथ फैलाना चाहती थी. मैंने आखिर में अपनी सासू मां को बोला और तब उन्होंने मुझे टेस्ट करवाने के लिए कहा. मेरे टेस्ट में टीबी आया.
ये खबर चौंकाने वाली भी थी और हैरान करने वाली भी.”
अलग-अलग अंगों में हो सकता है टीबी
नम्रता का इलाज 2 साल चला और तब जाकर वे स्वस्थ हुई. दरअसल, टीबी एक संक्रामक बीमारी है, जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस बैक्टीरिया की वजह से होती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, टीबी दुनिया भर में मौत के 10 सबसे बड़े कारणों में से एक है. यूं तो टीबी मुख्य रूप से फेफड़ों को प्रभावित करता है, लेकिन ये शरीर के अलग-अलग अंगों में फैल सकता है. जब टीबी फेफड़ों में होता है तब इसे पल्मोनरी टीबी (Pulmonary TB) कहते हैं. लेकिन जब ये फेफड़ों से बाहर जाता है तब इसे एक्स्ट्रा पल्मोनरी ट्यूबरक्लोसिस (Extra Pulmonary Tuberculosis) कहा जाता है. इस प्रकार की सामान्य साइटों में लिम्फ नोड्स, हड्डियां और जॉइंट्स, किडनी और सेंट्रल नर्वस सिस्टम शामिल हैं.
हालांकि, कुछ मामलों में, टीबी के बैक्टीरिया बिना लक्षण पैदा किए शरीर में रह सकते हैं. इसे गुप्त टीबी (Latent Tuberculosis) के नाम से जाना जाता है.
2 साल तक चला पूरा ट्रीटमेंट
नम्रता का इलाज मुंबई के गोवंडी शताब्दी अस्पताल में चला. अस्पताल में एक सहयोगी पहल की मदद से उनकी देखभाल हुई. ये पहल राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (National TB Elimination Program) और ग्रेटर मुंबई नगर निगम की साझेदारी में डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स/मेडेसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स (MSF) की तरह से की गई है. MSF की भागीदारी ने सुनिश्चित किया कि नम्रता को अच्छे से ट्रीटमेंट मिले. दवाइयों के साथ-साथ उनकी मेंटल हेल्थ और इमोशनल हेल्थ भी अच्छी रहे, इसके लिए काउंसलर की मदद भी मिली.
बता दें, टीबी के इलाज में एंटीबायोटिक दवाओं (Antibiotic Medicines) का पूरा लंबा कोर्स शामिल होता है. ये कोर्स आमतौर पर छह महीने या उससे ज्यादा समय तक चलता है. ड्रग रेसिस्टेंट टीबी के लिए, ट्रीटमेंट और भी ज्यादा लंबा और मुश्किल हो सकता है.
नम्रता बताती हैं कि उनपर इन 2 साल में दवाइयों का असर काफी खराब पड़ा. हर दिन दवाई खाना और फिर उस पूरे दिन को निकालना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती था. लेकिन फिर भी नम्रता ने हिम्मत नहीं हारी क्योंकि उन्हें इस बीमारी से बाहर निकलना था. 21 जून 2016 से उनका कोर्स शुरू हुआ था और जुलाई 2018 में वे टीबी मुक्त हो गई थीं. नम्रता कहती हैं, “आखिरकार फिर मेरा 2 साल का ट्रीटमेंट पूरा हुआ. मुझे नहीं लगता था कि मैं इस बीमारी से बाहर निकल पाउंगी. एक-एक दिन करके मैं सोचती थी कि अब कैसे इससे बाहर निकलूंगी. कभी कभी तो मुझे लगता था कि मैं मर जाती हूं. लेकिन फिर से खुद ही खुद की हिम्मत बढ़ाती थी. आज वो मुश्किल समय निकल गया है. उस बीमारी से मुझे आजादी मिल गई है.”
2019 जनवरी से नम्रता दूसरे मरीजों के लिए और लोगों में टीबी को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करने लगी थीं. नम्रता ने मार्च 2024 तक डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (Doctors Without Borders) के साथ काम किया.
शारीरिक के साथ भावनात्मक लड़ाई भी है बहुत बड़ी
टीबी में केवल शारीरिक कष्ट ही नहीं बल्कि मानसिक तौर पर व्यक्ति कमजोर हो जाता है. ठीक ऐसे ही नम्रता की एमडीआर-टीबी से लड़ाई भावनात्मक ताकत की भी परीक्षा थी. टीबी में मरीज अपने दोस्तों और परिचितों को होने वाली बीमारी के डर या गलतफहमी के कारण खुद को दूर कर लेता है. इस बिछड़न से कई बार बीमारी का बोझ 4 गुना बढ़ जाता है.
नम्रता बताती हैं, “मेरे परिवार से जितना हो पाया मुझे उन्होंने उतना सपोर्ट किया. खाने से लेकर पैसे तक मेरा साथ दिया. हालांकि इस दौरान मैं ये चाहती थी कि मेरी मानसिक स्थिति को समझने वाला कोई हो. मैं अकेले लड़ती रही और अकेले इस मुश्किल से बाहर निकली.”
बीमारी ने दिया आत्मविश्वास
नम्रता के मुताबिक ये बीमारी उनके लिए लकी साबित हुई. इस बीमारी ने उन्हें आत्मविश्वास से भर दिया. वे कहती हैं, “मैं ये सोचती थी कि सभी इसी परेशानी से जूझ रहे हैं. क्यों न मैं भी उनकी मदद करूं. इसी कड़ी में MSF की तरफ से मुझे इस पहल को जॉइन करने का ऑफर आया. मैंने MSF में कम्युनिटी हेल्थ वर्कर के रूप में भी काम किया. हम मरीजों के पास जाते थे और उन्हें इस बीमारी को लेकर जागरूक करते थे. मरीज मुझसे सभी कुछ शेयर करते थे. मैं उन्हें समझाती थी कि आप इससे कैसे बाहर निकल सकते हैं. हमारा पहला टारगेट रहता है कि हम उनसे बात करें. फिर हम उन्हें बताते हैं कि हम कहां से आए हैं और टीबी असल में क्या है. ये सब हम उन्हें मरीज और उनके परिवार को समझाते हैं. कम्युनिटी में बहुत सारी औरतें हैं जो इस बीमारी से जूझ रही होती हैं लेकिन उन्हें पता भी नहीं होता है. मैंने ऐसे ही लोगों के लिए काम किया.”
सभी टेस्ट हों एक ही जगह: नम्रता
नम्रता के मुताबिक टीबी में सबसे जरूरी है कि इस बीमारी का पता जल्दी लग पाना. साथ ही मरीज का डायग्नोस जल्दी होना चाहिए. सारे प्रोसेस एक्स-रे से लेकर बाकी दूसरे टेस्ट भी एक साथ और एक जगह होने चाहिए ताकि बिना किसी परेशानी के मरीज को सबकुछ मिल जाए.
एक टीबी सर्वाइवर के रूप में, नम्रता की ये उपलब्धि कई लोगों के लिए हिम्मत की मिसाल है. नम्रता का ठीक होना ऐसी ही लड़ाइयों का सामना कर रहे कई लोगों के लिए आशा की किरण है. उनकी कहानी याद दिलाती है कि सही देखभाल और अटूट संकल्प के साथ सबसे मुश्किल और खतरनाक बीमारी पर भी काबू पाया जा सकता है.