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Battle Against Tuberculosis: 9000 साल तक जिंदा रह सकता है TB! जानें कौन सी दवाएं होती हैं कारगर, किन बातों का रखें ख्याल

प्राइवेट अस्पतालों में इलाज आमतौर पर सरकारी अस्पतालों की तुलना में महंगा होता है. इसलिए भारत सरकार ने डॉट्स कार्यक्रम चलाया है. डॉट्स को डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड ट्रीटमेंट शॉर्ट-कोर्स (DOTS) भी कहा जाता है. इसमें टीबी का फ्री इलाज होता है. इस प्रोग्राम में मरीजों को पहले कुछ महीनों के लिए सप्ताह में तीन बार और फिर कुछ समय बाद सप्ताह में एक बार टीबी क्लिनिक में जाना होता है.

TB eradication in India (Representative Image/Getty Images) TB eradication in India (Representative Image/Getty Images)
हाइलाइट्स
  • टीबी के इलाज में दी जाती हैं कई दवाइयां  

  • डॉट्स सेंटर पर होता है फ्री इलाज 

  • प्राइवेट और सरकारी दोनों अस्पतालों में मिलती हैं दवाएं 

  • बीच में नहीं छोड़ी जा सकती दवाइयां

ये बात साल 2008 की है... इजरायल में पुरातत्वविदों को 2 कंकाल मिले. ये कंकाल 9,000 साल पुराने बताए गए. दोनों ही कंकाल माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस (Mycobacterium tuberculosis) से संक्रमित (Infected) पाए गए. ये बैक्टीरिया टीबी का बैक्टीरिया होता है. हालांकि, इस खोज से एक बात तो साफ हो गई कि अगर ठीक न किया जाए तो ये बैक्टीरिया हजारों साल तक जिंदा रह सकता है. 

टीबी इंसानों के अंदर कई साल तक निष्क्रिय यानी इनएक्टिव रह सकता है, और इम्युनिटी कमजोर (Weak Immunity) होने पर ये फिर से एक्टिव हो जाता है. जब कोई संक्रमित व्यक्ति खांसता या छींकता है तो टीबी हवा के कणों के माध्यम से फैलता है. ऐसे में जरूरी है कि व्यक्ति समय रहते इसका इलाज करवाए.

आज, टीबी की बीमारी सबसे खतरनाक संक्रामक बीमारियों में से एक बनी हुई है, जो सालाना होने वाली मौतों की संख्या के मामले में मलेरिया और एड्स से भी आगे निकल चुकी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, टीबी से हर साल दुनियाभर में 14 लाख से ज्यादा मौतें होती हैं. 

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टीबी के मरीजों में से एक दिल्ली के पटपड़गंज इलाके के सलीम (बदला हुआ नाम) भी हैं. वे 28 साल के थे जब उन्हें अपने टीबी के बारे में पता चला. 2023 में उनका ट्रीटमेंट हुआ, आज वे पूरी तरह से ठीक हैं. 

टीबी के इलाज में दी जाती हैं कई दवाइयां  
टीबी की दवाइयों को लेकर GNT डिजिटल ने दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल (Sir Ganga Ram Hospital) में मेडिसिन विभाग की को-चेयरपर्सन डॉ पूजा खोसला (Dr. Pooja Khosla) से बात की. उन्होंने बताया कि बीमारी से ठीक होने में डॉक्टर और मरीज दोनों का ही साथ चाहिए होता है. हालांकि, ये बीमारी पूरी तरह ठीक हो सकती है. वे बताती हैं कि मौजूदा समय में टीबी में मरीज को ओरल दवा (Oral Medicine) से ठीक किया जाता है.

इनमें मुख्य रूप से 5 दवाएं शामिल हैं. इन दवाओं को फर्स्ट लाइन दवा (First line TB medicines) कहा जाता है-
1. आइसोनियाजिड (Isoniazid)
2. रिफैम्पिन (Rifampin)
3. रिफाबूटिन (Rifabutin)
4. पाइराजिनामाइड (Pyrazinamide)
5. एथमबुटोल (Ethambutol)

वहीं, अगर किसी को ड्रग-रेसिस्टेंट टीबी (DR-TB) है, तो बेडाक्विलिन (Bedaquiline) और डेलामेनिड (Delamanid) जैसी नई दवाओं के साथ-साथ केनामाइसिन (Kanamycin), कैप्रीयोमाइसिन (Capreomycin) और एमिकासिन (Amikacin) जैसी सेकंड लाइन इंजेक्टेबल दवाएं (Injectatble Medicines) दी जाती हैं. 

डॉ पूजा खोसला कहती हैं, “ये मुख्य दवाइयां होती हैं. शुरुआत में डॉक्टर 2 महीने लेकर चलते हैं. इसमें इंटेंसिव ट्रीटमेंट (Intensive Treatment) किया जाता है. उसके बाद मेंटेनेंस फेज (Maintenance Phase) होता है, ये अगले 4 महीने का होता है. अधिकतर 6 महीने के अंदर टीबी काफी हद तक कंट्रोल हो जाता है. लेकिन कई मामलों में शरीर के कुछ हिस्सों पर इनका असर देखकर और टीबी कितना गंभीर है, ये देखकर दवाइयों को और इसके टाइम पीरियड को बढ़ाया जाता है. इसके बाद जब कंफर्म हो जाता है कि मरीज ठीक होने लग रहा है तो इन्हें रोक दिया. शुरुआत में ये दवाइयां वजन के हिसाब से दी जाती हैं. इन्हें फिक्स डोज में दिया जाता है.” 

(फोटो क्रेडिट- Getty Images)
(फोटो क्रेडिट- Getty Images)

WHO ने टीबी के इलाज के लिए एक नया ऑल-ओरल 6-महीने का रेजिमेन पेश किया है. मल्टीड्रग-रेसिस्टेंट या रिफैम्पिसिन-रेसिस्टेंट टीबी (MDR/RR-TB) वाले लोगों के लिए, इसमें बेडाक्विलिन (B), प्रीटोमैनिड (Pa), लाइनज़ोलिड (L) और मोक्सीफ्लोक्सासिन (M) शामिल हैं, जिन्हें BPaLM के रूप में जाना जाता है. प्री-एक्सटेंसिव ड्रग-रेसिस्टेंट टीबी (pre-XDR-TB) वाले लोगों के लिए, इस रेजिमेन का उपयोग मोक्सीफ्लोक्सासिन (BPaL) के बिना किया जा सकता है.

WHO के इस नए रेजिमेन से मरीज पर कम बोझ पड़ता है. इसमें ट्रीटमेंट का समय घटाकर छह महीने कर दिया गया है. जिससे मरीजों पर वित्तीय बोझ कम पड़ता है. साथ ही हर दिन उन्हें कम गोलियां भी लेनी होती हैं. 

डॉट्स सेंटर पर होता है फ्री इलाज 
डॉ पूजा खोसला के मुताबिक एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि भारत में टीबी के मरीजों को काफी खर्च का सामना करना पड़ता है. औसतन, प्रत्यक्ष लागत (direct costs), जैसे मेडिकल बिल, लगभग $46.80 (3916 रुपये) है. हालांकि, अप्रत्यक्ष लागत (indirect costs) जैसे आने-जाने का खर्चा, नौकरी छूटने से होने वाला नुकसान आदि  $666.60 (लगभग 55791 रुपये) तक हो सकता है. जो कुल लागत का 93.4% है.

प्राइवेट अस्पतालों में इलाज आमतौर पर सरकारी अस्पतालों की तुलना में ज्यादा महंगा होता है. इसलिए सरकार ने डॉट्स कार्यक्रम चलाया है. भारत में अब डॉट्स या जिसे हम डायरेक्टली ऑब्जर्व्ड ट्रीटमेंट शॉर्ट-कोर्स (DOTS) भी कहते हैं, का उपयोग होता है. इसमें टीबी का फ्री इलाज होता है. इतना ही नहीं इसमें मुफ्त दवाएं भी शामिल हैं. इस प्रोग्राम में मरीजों को पहले कुछ महीनों के लिए सप्ताह में तीन बार और फिर कुछ समय बाद सप्ताह में एक बार टीबी क्लिनिक में जाना होता है. यह सुनिश्चित करता है कि मरीज ट्रीटमेंट अच्छे से करवाए. आज, पूरे देश में डॉट्स सेंटर मौजूद हैं. 

सलीम का इलाज भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे डॉट सेंटर से ही हुआ है. सलीम ने GNT डिजिटल को बताया कि जब उन्हें पहली बार खांसी की दिक्कत हुई तो वे दिल्ली के ही डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी चेस्ट अस्पताल में गए. अस्पताल में उनका डॉक्टरों ने CBNAAT (Cartridge-Based Nucleic Acid Amplification Test) और म्यूकस टेस्ट किया. हालांकि, जब इन दोनों में टीबी का पता नहीं चला तो उनका CT-Scan किया गया. अस्पताल से उन्हें DOT सेंटर रेफर किया गया, जहां से उनका इलाज हुआ. 

सलीम बताते हैं, “शुरुआत में मेरा वजन ज्यादा था. तो डॉट सेंटर में मुझे पहले ज्यादा डोज की दवाएं दी गई ताकी वजन कम किया जा सके. जब वजन नॉर्मल हुआ तो उन्हें अलग-अलग सॉल्ट को मिलाकर गोलियां दी गईं. ये दवाएं मेरी 8 महीने तक चलीं. चूंकि दवाएं मुफ्त थीं तो ज्यादा परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा.” 

(फोटो क्रेडिट- Getty Images)
(फोटो क्रेडिट- Getty Images)

प्राइवेट और सरकारी दोनों अस्पतालों में मिलती हैं दवाएं 
डॉ पूजा खोसला कहती हैं कि प्राइवेट अस्पताल और डॉट्स सेंटर दोनों में समान दवाएं दी जाती हैं. डॉट्स यह सुनिश्चित करता है कि टीबी के मरीज सीधे दवाएं लेते हुए उनका इलाज पूरा करें. वे बताती हैं, “इस दौरान कुछ टेस्ट की मॉनिटरिंग की जाती है. इसमें सबसे जरूरी होता है लिवर फंक्शन टेस्ट. 4 में से 3 दवा लिवर पर असर दिखा सकती है. किसी का लिवर कमजोर है तो ये ज्यादा एफेक्ट डाल सकती हैं. ऐसे में मरीज का साइड-बाय-साइड इलाज चलाया जाता है. या फिर इन दवाइयों की डोज को कम किया जाता है और मॉडिफाई किया जाता है. जैसे एथमबुटोल से नजर कमजोर होने का डर होता है. ऐसे में ये भी सब चेक किया जाता है. पाइराजिनामाइड से जोड़ों में दर्द होता है उसे भी कंट्रोल किया जाता है. दवाइयों को ठीक तरीके से मॉनिटर करना भी ये मरीज और डॉक्टर दोनों का काम होता है. सभी को ध्यान रखना चाहिए कि ये पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है. बस जरूरी है कि सभी जागरूक हों.”

बीच में नहीं छोड़ी जा सकती दवाइयां
टीबी का इलाज पूरा करना बेहद जरूरी होता है. इसे लेकर डॉ पूजा कहती हैं, “बहुत जरूरी है कि मरीज अपनी दवाइयों को ईमानदारी से ले. अगर आप एक महीने से ऊपर दवाइयां छोड़ते हैं तो आपको फिर से पूरी प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है. कई बार मरीज कुछ महीनों में ही थोड़ी सी राहत के बाद दवा लेना छोड़ देते हैं. बताती हैं कि खुराक छोड़ने से इलाज अधूरा हो सकता है. जिसका मतलब है कि टीबी के बैक्टीरिया शरीर से पूरी तरह खत्म नहीं होंगे. इससे बीमारी बनी रह सकती है और हालत और बिगड़ सकती है.” 

WHO के अनुसार, टीबी की दवाएं निर्धारित तरीके से न लेने का सबसे बड़ा जोखिम ड्रग-रेसिस्टेंट टीबी होना है. जब बैक्टीरिया पूरी तरह से खत्म नहीं होते हैं, तो वे फिर से एक्टिव हो सकते हैं और दवाओं के प्रति प्रतिरोधी यानी इम्यून हो सकते हैं. इसका मतलब है की उनपर वो दवा असर नहीं करेगी. जिससे बीमारी का इलाज करना बहुत मुश्किल हो जाता है. साथ ही टीबी का ठीक से इलाज न किया जाए तो यह संक्रामक बना रहता है. ये टीबी वाला व्यक्ति बैक्टीरिया को दूसरों में फैला सकता है. 

(फोटो क्रेडिट- Getty Images)
(फोटो क्रेडिट- Getty Images)

लिवर पर असर करती हैं दवाएं 
डॉ पूजा खोसला ने दवाइयों के साइड इफ़ेक्ट (TB Side Effects) को लेकर भी बात की. उन्होंने बताया कि ये ज्यादातर लिवर पर असर करती हैं. ऐसे में जरूरी है कि मरीज को तुरंत अपने डॉक्टर को इसके बारे में बताना चाहिए. वे कहती हैं, “आंखों की भी काउंसलिंग की जाती है. ये दवा नसों और जोड़ों पर भी अफेक्ट डालती है. महिला और पुरुष दोनों पर ये बराबर असर करती हैं. हालांकि, इन दवाइयों से कोई परमानेंट डैमेज नहीं होता है. इन सबका इलाज है. प्रेग्नेंट महिला के केस में भी अभी तक बच्चे पर इसका असर नहीं देखा गया है. हालांकि, प्रेग्नेंसी अगर चल रही है तो कोई दिक्कत नहीं है, आप अपनी दवा ले सकती हैं. लेकिन अक्सर मरीज को सलाह दी जाती है कि अगर आप प्लान कर रही हैं तो उसे बाद के लिए प्लान कर लें. एकबार टीबी का पूरा कोर्स खत्म होने के बाद आप फैमिली प्लानिंग की सोचें.”

सलीम अपने साइड एफेक्ट्स को लेकर बताते हैं कि उन्हें इसकी वजह से कई बार दवा की डोज बदलवानी पड़ी. वे कहते हैं, "मुझे नजर कमजोर, जोड़ों का दर्द, उल्टी, चक्कर जैसी चीजों का सामना करना पड़ा था. जिसके बाद मेरी ओरल दवा बंद करके इंजेक्टेबल दवाएं दी गईं. मेरी कई दवाओं को चेंज भी किया गया. लेकिन आखिरकार मैं आज ठीक हूं."

डॉ पूजा के अनुसार इलाज खत्म होने के बाद भी खुद की सुरक्षा रखनी चाहिए. वे कहती हैं, "ऐसा नहीं है आपको दोबारा टीबी नहीं हो सकता. वापस टीबी होने के चांस हमेशा होते हैं. अगर आप सावधानी नहीं बरतेंगे तो ये फिर से हो सकता है. इसे इस तरह समझिए कि ये एक बैक्टीरिया है. ये बैक्टीरिया कभी भी असर कर सकता है. या तो अगर पुराना टीबी है वो इनएक्टिव था और अब एक्टिव हो गया या फिर आपकी इम्यूनिटी कमजोर है या आपको किसी से दोबारा हो गया है. इन सभी में जरूरी है कि मरीज टीबी को लेकर जागरूक रहे.”