scorecardresearch

Tuberculosis and Women: कई इलाकों में आज भी टीबी है एक दैवीय प्रकोप... महिलाओं को कर दिया जाता है अलग, जानें अपने 2025 के लक्ष्य से अभी कितना दूर है भारत?

कई महिलाएं सामाजिक बहिष्कार के डर से टीबी का इलाज कराने या फिर इसके बारे में बात करने से भी डरती हैं. टीबी से जुड़े मिथक कहीं न कहीं महिलाओं को अपनी बीमारी छिपाने के लिए मजबूर करते हैं. भारत के कई क्षेत्रों में आज भी इसे दैवीय प्रकोप माना जाता है. इसके लेकर कहीं न कहीं जागरूकता की कमी है.

Tuberculosis in Women (Image Credit: PTI) Tuberculosis in Women (Image Credit: PTI)
हाइलाइट्स
  • भारत ने रखा है 2025 का टारगेट

  • टीबी को लेकर जागरूकता है जरूरी 

  • आज भी माना जाता है इस बीमारी को दैवीय प्रकोप 

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में कुछ समय पहले एक महिला ने अस्पताल में फांसी लगाकर जान देने की कोशिश की. वह महिला टीबी (Tuberculosis) से ग्रसित थी. महिला को लगा था कि शायद वह कभी इस बीमारी से नहीं उबर पाएगी. इसलिए उसने खुदकुशी करने की कोशिश की. 

पानीपत में रहने वाली 32 साल की राखी ने भी कुछ ऐसी ही चुनौतियों का सामना किया. टीबी से उबरने के बावजूद, उनकी शादी में काफी परेशानी आई. उनके 11 रिश्ते ठुकराए गए. आखिरकार, उनकी शादी हुई भी तो 15 लाख रुपये के दहेज की पेशकश के साथ. शादी के बाद भी, राखी खुद को अलग-थलग पाती हैं, क्योंकि उनके ससुराल वाले बीमारी के डर से उनसे दूरी बनाए रखते हैं.

इसी तरह, मुजफ्फरनगर की 14 साल की लड़की अंजना को स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा. साथ पढ़ाई कर रहे बच्चों के माता-पिता का मानना था कि अंजना दूसरों बच्चों को यह बीमारी फैला सकती है. 

सम्बंधित ख़बरें

मेरठ में एक 49 साल की महिला को उसके टीबी के इलाज के बीच में भतीजी की शादी में आमंत्रित नहीं किया गया. बीमारी फैलने के डर से परिवार ने उन्हें इस फंक्शन से दूर रखना ठीक समझा.

भारत में आज भी टीबी तमाम मिथकों और गलत सूचनाओं से घिरा हुआ है. सामाजिक धारणाओं और गलतफहमी का सबसे ज्यादा असर मरीज पर पड़ता है. और ये स्थिति सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित करती है. 

एक अनुमान के मुताबिक, 2018 में दुनियाभर में करीब 32 लाख महिलाएं टीबी से पीड़ित थीं, जिनमें से करीब 5 लाख ने इस बीमारी से दम तोड़ दिया. ये संख्या तब से बढ़ ही रही है. हालांकि, भारत में महिलाओं पर टीबी का बोझ सामाजिक अपेक्षाओं और लिंग मानदंडों (Gender norms) की वजह से बढ़ जाता है. इसकी वजह से अक्सर उन्हें समय पर उपचार नहीं मिल पाता है. और बीमारी बढ़ती ही जाती है.

गुड़गांव के आर्टेमिस अस्पताल (Artemis Hospital) के पल्मोनोलॉजी और स्लीप मेडिसिन कंसल्टेंट डॉ. अरुण चौधरी कोटारू के मुताबिक, टीबी भारत में एक बड़ा स्वास्थ्य मुद्दा बना हुआ है, इससे लाखों लोग प्रभावित हैं. 

डॉ. चौधरी कहते हैं, “महिलाओं में टीबी काफी कॉमन है. खासकर वो महिलाएं जो रिप्रोडक्टिव एज (15 से 44 साल) ग्रुप में हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे ज्यादा जनसंख्या वाले इलाकों में और खराब स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे वाले क्षेत्रों में टीबी के केस ज्यादा आते हैं.”

भारत ने रखा है 2025 का टारगेट
टीबी का मुकाबला करने के इरादे से, भारत सरकार ने 1962 में नेशनल टीबी एलिमिनेशन प्रोग्राम (NTEP) शुरू किया था. ये पहली बार था जब देश में टीबी कंट्रोल को लेकर बातें होने लगी थीं. आने वाले सालों में ये प्रोग्राम विकसित हुआ और इसका नाम बदलकर रिवाइज्ड नेशनल टीबी कंट्रोल प्रोग्राम (RNTCP) कर दिया गया. भारत का लक्ष्य है कि 2025 तक टीबी को खत्म किया जाए. हालांकि, ग्लोबल टारगेट 2030 तक टीबी खत्म करना है.

हालांकि कई प्रयासों के बावजूद भारत आज अपने इस टारगेट से काफी दूर है. सार्वजनिक जागरूकता की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच, दवाइयों की कमी जैसी चुनौतियां आज टीबी को पूरी तरह खत्म करने के लक्ष्य में बाधा बनी हुई हैं. 

(फोटो साभार- ऑपरेशन आशा)
(फोटो साभार- ऑपरेशन आशा)

हालांकि, कई ऐसे एनजीओ हैं जो इस लड़ाई में सबसे आगे खड़े हैं. ऑपरेशन आशा (Operation Asha) टीबी के खिलाफ लड़ाई में पहली पंक्ति में खड़ा नजर आता है. यह पहल स्वास्थ्य सुविधाओं और समुदायों के बीच अंतर को पाटने का काम कर रही है. जागरूकता बढ़ाकर, ट्रीटमेंट तक पहुंच में सुधार करके और रोगियों को इस पूरी यात्रा के दौरान मदद करने में ऑपरेशन आशा बड़ी भूमिका निभा रहा है. ऑपरेशन आशा के तहत साल 2022 तक 2 लाख से ज्यादा लोगों का ट्रीटमेंट किया जा चुका है. 

ऑपरेशन आशा के फाउंडर संदीप आहूजा ने इसे लेकर GNT डिजिटल से बात की. संदीप पिछले 17 साल से टीबी को खत्म करने की लड़ाई लड़ रहे हैं.  उनके मुताबिक, 10 साल पहले जैसी स्थिति थी, आज उससे खराब हो गई है. भारत का टारगेट 2025 है, ये बेहद मुश्किल है. आज जिस मेथोडोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा है उससे इसे खत्म नहीं किया जा सकता.

आज भी माना जाता है दैवीय प्रकोप 
दरअसल, कई महिलाएं सामाजिक बहिष्कार के डर से इलाज कराने में देरी करती हैं या टालती हैं. इसके अलावा, टीबी से जुड़े मिथक कहीं न कहीं महिलाओं को अपनी बीमारी छिपाने के लिए मजबूर करते हैं.

ऑपरेशन आशा के फाउंडर संदीप आहूजा बताते हैं कि इसे आज भी एक "दैवीय प्रकोप" माना जाता है. वे कहते हैं, “हमारे पास ऐसे कई केस आते हैं जहां परिवार मरीज से दूरी बना लेता है. महिलाओं के केस में अधिकतर ऐसा ही देखा जाता है. एक परिवार ने तो घर की बहू को ही बाहर कर दिया था. वह बिना खाने और पानी के सात किलोमीटर तक पैदल चलती रही. लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की. आखिरकार वह अपने भाई के घर पहुंची जहां उसका इलाज हुआ.” 

डॉ. अरुण के मुताबिक, लैंगिक पूर्वाग्रह की वजह से कई बार महिलाएं लक्षणों को कम बताती हैं या डॉक्टर के पास जाने में हिचकती हैं. इसके वजह से कई बार उनकी हालत काफी खराब हो जाती है. इसमें जागरूकता की कमी एक बड़ी भूमिका निभाती है. कई कारक टीबी से पीड़ित महिलाओं में ट्रीटमेंट को प्रभावित करते हैं. जिनमें सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां, टीबी को कलंक की तरह देखा जाना, दवाओं के साइड इफेक्ट आदि शामिल हैं. 

डॉ. अरुण कहते हैं, “महिलाएं अक्सर व्यक्तिगत स्वास्थ्य से ज्यादा पारिवारिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देती हैं, जिसके कारण उनकी डोज छूट जाती है. टीबी को एक कलंक की तरह देखा जाता है. इसकी वजह से कई बार महिलाएं इसे छिपाती हैं. ऐसे में डॉट सेंटर्स काफी प्रभावी हैं. वे यह सुनिश्चित करते हैं कि मरीज सुपरवाइजर के तहत अपनी दवा लें.”

(फोटो साभार-ऑपरेशन आशा)
(फोटो साभार-ऑपरेशन आशा)

महिलाओं को निकाल दिया जाता है घर से बाहर 
डॉ अरुण GNT डिजिटल  को बताते हैं कि टीबी महिलाओं की पोषण स्थिति को काफी प्रभावित करता है. इससे वजन कम होता है, मसल डैमेज होती हैं, भूख कम लगती है. इतना ही नहीं इससे इम्यूनिटी भी कमजोर हो जाती है. वे कहते हैं, “टीबी के ट्रीटमेंट के दौरान, प्रोटीन, विटामिन (विशेष रूप से ए, डी, ई, और सी), और जिंक और आयरन जैसे मिनरल्स से भरपूर चीजें खानी चाहिए. साथ ही मीट, डेयरी प्रोडक्ट्स, बीन्स, नट्स, फल और सब्जियां खाना भी हेल्थ को अच्छा रख सकता है. हेल्थ केयर प्रोफेशनल के लिए भी जरूरी है कि वे मरीज की  पोषण संबंधी स्थिति की निगरानी रखें और उन्हें डाइट से जुड़ी जानकारी देते रहें.” 

दरअसल, टीबी की दवाइयां काफी हेवी डोज वाली होती हैं. इसमें डाइट यानी अपना खानपान काफी अच्छा रखना होता है. ऐसे में मरीजों का खर्चा बढ़ जाता है. जिसके डर से कई बार मरीज की दवा छूट जाती है या वह ठीक नहीं हो पाता है. 

संदीप आहूजा बताते हैं कि सेंट्रल ट्यूबरक्लोसिस डिवीजन की रिपोर्ट के अनुसार टीबी मालन्यूट्रीशन (Malnutrition) की एक बड़ी वजह है. हालांकि, इसके बारे में सबको पता है. लेकिन उसके बारे में कोई बात नहीं करता है.”

कई मामलों में तो टीबी से पीड़ित महिलाओं को घर से बाहर भी निकाल दिया जाता है. डॉ संदीप बताते हैं कि ये परेशानी मर्दों के साथ नहीं आती है. वे कहते हैं, "मैंने हजारों केस देखे हैं लेकिन कभी ये नहीं सुना है कि किसी मर्द को घर से बाहर निकाल दिया हो या बच्चों को अलग कर दिया गया हो. खर्चे के डर से परिवार वाले महिला को घर से बाहर निकाल देते हैं. हमने कई केस ऐसे देखे है जहां जहां परिवार ने कहा है कि हम उस महिला को घर में नहीं रखेंगे. ऐसे में हमने कई बार पैसे देकर और राशन देकर उन्हें घर में रखने के लिए मनवाया है. ऑपरेशन आशा के तहत हम लगभग 1200 रुपये का राशन देते हैं. कई बार तो हमने हमने डबल पैसे देकर कहा है कि इस औरत को बाहर मत निकालिए. मरीज के लिए और सोसाइटी के लिए जरूरी है की मरीज का इलाज जल्द से जल्द हो.”

ऑपरेशन आशा की आधिकारिक वेबसाइट से मुताबिक, टीबी की वजह से करीब 100,000 महिलाओं को उनके घर से बाहर निकाला गया है. या फिर इन महिलाओं को परिवारों द्वारा दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है. 

(फोटो साभार-ऑपरेशन आशा)
(फोटो साभार-ऑपरेशन आशा)

टीबी को लेकर जागरूकता है जरूरी 
टीबी के बारे में शिक्षित करना और सामुदायिक जागरूकता मौजूदा समय की मांग है. इसे लेकर डॉ, अरुण का मानना है कि टीबी के बोझ से निपटने के लिए पॉलिसी बदलाव जरूरी हैं. वे कहते हैं, “पॉलिसी में सुधार और व्यवस्था को ठीक करने से बदलाव आ सकता है. टीबी प्रोग्राम के लिए फंडिंग बढ़ाना जरूरी है. इन सभी प्रोग्राम का उद्देश्य इस बीमारी से जुड़े कलंक (Stigma) को कम करना और टीबी की रोकथाम और उपचार के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना होना चाहिए. इसमें मेडिकल कम्युनिटी टीबी पर नई-नई रिसर्च करके और उसके बारे में लोगों को बताकर इसके बारे में जागरूकता फैला सकती है. हेल्थकेयर एक्सपर्ट्स को भी नई टेक्निक से खुद को शिक्षित रखना चाहिए और इससे जुड़ी ट्रेनिंग में भाग लेते रहना चाहिए.” 

वहीं, 17 साल से टीबी को लेकर काम कर रहे संदीप आहूजा के अनुसार आज भी हम अपने लक्ष्य से काफी दूर हैं. उनके मुताबिक टीबी को खत्म करने में अभी बहुत लंबा समय बाकी है. ऐसे में सबसे जरूरी है कि आज लोगों के बीच जाकर बीमारी के ऊपर बात की जाए. साथ ही उन्हें जागरूक किया जाए कि टीबी कोई दैवीय प्रकोप नहीं है बल्कि बीमारी है जो दवा से ठीक हो सकती है. इसके अलावा हमें अपनी मेथेडोलॉजी को और बेहतर करने की जरूरत है.