यूपी STF ने माफिया अतीक अहमद के बेटे असद अहमद और शूटर गुलाम मोहम्मद को एनकाउंटर में मार गिराया. उमेश पाल हत्याकांड में आरोपी असद और गुलाम के ऊपर 5-5 लाख रुपए का इनाम घोषित किया गया था. ऐसे में ‘एनकाउंटर’ शब्द एक बार फिर से चर्चा में आ गया है. सबसे पहले जानते हैं कि आखिर एनकाउंटर को लेकर भारत में क्या कानून हैं? और पुलिस के पास स्थितियों में ऐसा कदम उठाने की शक्ति होती है?
एनकाउंटर किलिंग या जिसे हम मुठभेड़ हत्या कहते हैं भारत और पाकिस्तान में 20वीं शताब्दी के बाद से ही इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द है. तब से इसका इस्तेमाल आतंकवादियों या गैंगस्टर की हत्यायों के लिए किया जाता, जिन्हें पुलिस या सशस्त्र बलों आत्मरक्षा के दौरान मारते हैं. हालांकि, कई लोग इसके आलोचक भी हैं. जिनका मानना है कि इस शक्ति का इस्तेमाल ‘फेक एनकाउंटर’ के लिए भी किया जा सकता है.
क्या है एनकाउंटर?
भारतीय कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो सीधे अपराधियों के एनकाउंटर को अधिकृत करता हो. लेकिन कुछ स्थितियां हैं जिनमें पुलिस अधिकारियों को अपराधियों से निपटने के लिए कुछ शक्तियां प्रदान की गई हैं. भारत की बात करें तो एनकाउंटर दो स्थिति में किया जाता है. अगर कोई अपराधी कस्टडी से भागने की कोशिश कर रहा है, तब पुलिस उसे रोकती है. अगर वह नहीं रुक रहा है तो पुलिस फायरिंग करती है. वहीं, दूसरी स्थिति में अगर अपराधी हमला करता है तो आत्मरक्षा के लिए पुलिस फायरिंग करती है. लेकिन, उससे पहले अपराधी को रोकने का प्रयास किया जाता है. अगर वह नहीं रुकता है तब फायरिंग के विकल्प का इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि, ज्यादातर मामलों में जवाबी कार्रवाई में ही पुलिस अधिकारी एनकाउंटर जैसा कदम उठाते हैं.
क्या कहती है सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन?
-जब भी पुलिस को आपराधिक गतिविधियों या गंभीर आपराधिक अपराध करने से संबंधित किसी भी गतिविधि के बारे में कोई खुफिया जानकारी या टिप-ऑफ मिलता है, तो सबसे पहले इसे किसी रूप में (केस डायरी में) या किसी इलेक्ट्रॉनिक रूप में लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए. इस तरह की रिकॉर्डिंग से संदिग्ध जहां है उस जगह का विवरण देने की जरूरत नहीं है.
-अगर किसी गुप्त सूचना या किसी खुफिया जानकारी मिलने के बाद एनकाउंटर होता है और उस दौरान अपराधी की मौत हो जाती है तो उसकी एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए. साथ ही उसे संहिता की धारा 157 के तहत बिना किसी देरी के अदालत में भेज दिया जाए.
-घटना/मुठभेड़ की एक स्वतंत्र जांच सीआईडी या किसी अन्य पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा एक वरिष्ठ अधिकारी (मुठभेड़ में शामिल पुलिस दल के मुखिया से कम से कम एक लेवल ऊपर) की देखरेख में की जाएगी.
-पुलिस फायरिंग के दौरान होने वाली मृत्यु के सभी मामलों में संहिता की धारा 176 के तहत अनिवार्य रूप से एक मजिस्ट्रियल जांच की जानी चाहिए और इसकी रिपोर्ट धारा 190 के तहत अधिकार क्षेत्र वाले न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए.
-घटना की सूचना बिना किसी देरी के NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी जानी चाहिए.
-अगर कोई घायल अपराधी/पीड़ित है तो उसे चिकित्सा सहायता प्रदान की जानी चाहिए और उसका बयान मजिस्ट्रेट या चिकित्सा अधिकारी द्वारा फिटनेस प्रमाण पत्र के साथ दर्ज किया जाना चाहिए.
-घटना की पूरी जांच के बाद धारा 173 के तहत रिपोर्ट न्यायालय को भेजी जानी चाहिए.
-इसके अलावा, एनकाउंटर के बाद कथित अपराधी/पीड़ित के निकट संबंधी को जल्द से जल्द सूचित किया जाना चाहिए.
हालांकि, NHRC ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि पुलिस एनकाउंटर किलिंग के मामलों में कुछ जरूरी दिशानिर्देशों पालन करे-
1. रजिस्टर
जब पुलिस थाने के प्रभारी को किसी एनकाउंटर में हुई मौतों के बारे में सूचना मिलती है, तो वह उस सबसे पहले इस जानकारी को उपयुक्त रजिस्टर में दर्ज करेंगे.
2. इन्वेस्टिगेशन
प्राप्त जानकारी को सस्पेक्ट करने के लिए पर्याप्त माना जाना चाहिए. और इसके लिए सभी परिस्थितियों की जांच के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि, अगर कोई अपराध किया गया था और तो किसके द्वारा किया गया था.
3. मुआवजा
यह मृतक के आश्रितों को तब दिया जा सकता है जब जांच के परिणामों के आधार पर पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जाए.
4. स्वतंत्र एजेंसी
जब भी एक ही थाने के पुलिस अधिकारी एनकाउंटर पार्टी के सदस्य हों, तो जांच के लिए मामलों को किसी दूसरी स्वतंत्र जांच एजेंसी, जैसे कि स्टेट सीआईडी, को भेजा जाना चाहिए.
हालांकि, 2010 में NHRC ने इन दिशानिर्देशों को कुछ और बातों को शामिल किया था-
1. एफआईआर रजिस्टर करना
जब पुलिस के खिलाफ गैर इरादतन हत्या के संज्ञेय मामले के रूप में शिकायत की जाती है, तो आईपीसी की उपयुक्त धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए.
2. मजिस्ट्रियल जांच
पुलिस कार्रवाई के दौरान होने वाली मौत के सभी मामलों में ज्यादा से ज्यादा तीन महीने के भीतर एक मजिस्ट्रियल जांच की जानी चाहिए.
3. कमीशन को रिपोर्ट करना
राज्य में पुलिस कार्रवाई में हुई मौतों के सभी मामलों की प्रारंभिक रिपोर्ट ऐसी मौत के 48 घंटे के भीतर होनी चाहिए. जिसके बाद वह जिले के सीनियर एसपी/एसपी द्वारा आयोग को दी जानी चाहिए.
सभी मामलों में एक दूसरी रिपोर्ट तीन महीने के भीतर आयोग को भेजी जानी चाहिए जिसमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट, मजिस्ट्रियल जांच के निष्कर्ष/वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा पूछताछ आदि जैसी जानकारी दी गई हों.