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Backbone of Mahatma Gandhi: बा का दाह संस्कार पूरा होने तक वहीं बैठे रहे थे बापू … कस्तूरबा गांधी के बिना जीवन था अधूरा, कुछ ऐसे एक दूसरे के पूरक थे दोनों… 

Backbone of Mahatma Gandhi Kasturba: दोनों का रिश्ता चंद सालों का नहीं था बल्कि 60 सालों का था. गांधी और कस्तूरबा का विवाह तब हुआ था जब वे दोनों बेहद छोटे थे. हालांकि, जो रिश्ता एक पारंपरिक संबंध के रूप में शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे एक साझेदारी बन गया.

Mohandas Karamchand Gandhi and Kasturba (Photo/Getty Images) Mohandas Karamchand Gandhi and Kasturba (Photo/Getty Images)
हाइलाइट्स
  • दक्षिण अफ्रीका में बड़ी परीक्षा

  • 60 सालों का अटूट रिश्ता 

हर महान नेता के पीछे कोई ऐसा होता है जिसका अडिग समर्थन और प्रेम उन्हें आगे बढ़ने में मदद करता है. मोहनदास करमचंद गांधी या  "बापू" के लिए वह व्यक्ति कस्तूरबा गांधी थीं. उनकी पत्नी. हालांकि, “बा” के बारे में जितना लिखा जाना चाहिए था, उतना नहीं लिखा गया. गांधी जी के जीवन के सबसे मुश्किल समय में कस्तूरबा उनके साथ रहीं. महात्मा गांधी की यात्रा और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को आकार देने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई.

दरअसल, गांधी के नेतृत्व और उपलब्धियों का दस्तावेज इतिहास में दर्ज है, लेकिन उन उपलब्धियों के पीछे कस्तूरबा का समर्थन था, जिनका योगदान भी इतना ही जरूरी था. अपनी खुद की मूक शैली में, कस्तूरबा अपने पति जितनी ही क्रांतिकारी थीं.

उनके साथ जीवन के शुरुआती दिनों से ही उन्होंने उनके बोझ को साझा किया और उन जिम्मेदारियों को संभाला जो केवल घर तक सीमित नहीं थीं. उन्होंने अपने पति के शुरुआती दिनों में एक साधारण वकील के रूप में भी काफी साथ दिया. जब गांधी ने अन्याय के खिलाफ लड़ाई का सफर शुरू किया, कस्तूरबा ने उनके साथ चलकर आने वाली चुनौतियों का सामना किया. 

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60 सालों का अटूट रिश्ता 
दरअसल, दोनों का रिश्ता चंद सालों का नहीं था बल्कि 60 सालों का था. गांधी और कस्तूरबा का विवाह तब हुआ था जब वे दोनों बेहद छोटे थे. हालांकि, जो रिश्ता एक पारंपरिक संबंध के रूप में शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे एक साझेदारी बन गया. गांधी खुद एक पत्र में लिखते हैं कि "हम एक सामान्य जोड़े से अलग थे. 1906 में ही हमने आपसी सहमति से संयम को जीवन का नियम बना लिया था. हम दोनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक थे.” कस्तूरबा गांधी जी के साथ हर संघर्ष, हर आंदोलन, और हर बलिदान में खड़ी रहीं.  

दक्षिण अफ्रीका में बड़ी परीक्षा
कस्तूरबा की सबसे शुरुआती राजनीतिक भागीदारी दक्षिण अफ्रीका में थी, जहां उन्होंने 1904 में पहली बार राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लिया और अपने पति की मदद से डरबन के पास फीनिक्स सेटलमेंट की स्थापना में सहयोग किया. उन्होंने सार्वजनिक अभियानों, विरोध प्रदर्शनों और भेदभाव वाले कानूनों के खिलाफ आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया. उन्होंने 1913 में पंद्रह दूसरे लोगों के साथ ट्रांसवाल सीमा को अवैध रूप से पार किया. ये एक तरह से ब्रिटिशों के खिलाफ विरोध था. खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे तीन महीने तक जेल में रहीं. जेल में रहते हुए उन्होंने दूसरी महिलाओं को भी मुश्किलों का सामना करने के लिए प्रेरित किया. 

फोटो-गेटी इमेज
फोटो-गेटी इमेज

महात्मा गांधी स्वीकार करते हैं कि कस्तूरबा ने उनसे भी ज्यादा शारीरिक कष्ट झेले. उनकी दृढ़ता और सहनशक्ति की परीक्षा तब हुई जब वे जेल में थीं. 

हमेशा एक दूसरे से सहमत नहीं होते थे दोनों 
हालांकि, दोनों का रिश्ता बेहद शांत किस्म का था लेकिन कस्तूरबा हमेशा गांधी जी से सहमत नहीं होती थीं. जब गांधी ने मई 1933 में अपने और अपने साथियों की शुद्धि के लिए 21 दिन का उपवास करने की घोषणा की, तो कस्तूरबा बहुत परेशान हो गईं थीं. उन्होंने मीरा बेन के साथ मिलकर महात्मा गांधी तक अपनी बात पहुंचाई और कहा कि यह निर्णय उन्हें गलत लगा है. मीरा बेन ने कस्तूरबा की ओर से लिखा, "बा चाहती हैं कि मैं कहूं कि उन्हें इस निर्णय से गहरा धक्का लगा है और वे इसे बहुत गलत मानती हैं, लेकिन आपने किसी और की नहीं सुनी, तो आप उनकी भी नहीं सुनेंगे. उन्होंने अपनी प्रार्थनाएं भेजी हैं.”

लेकिन अपनी खुद की परेशानियों के बावजूद उन्होंने गांधी जी का हमेशा समर्थन किया. महात्मा गांधी के पत्र में लिखते हैं, "बा से कहो कि उनके पिता ने उन्हें एक ऐसा साथी दिया था जिसका भार कोई दूसरी महिला नहीं उठा सकती थी. मैं उनके प्रेम को संजोता हूं; उन्हें आखिर तक साहसी रहना चाहिए."

अहिंसा का सबक पत्नी से सीखा: महात्मा गांधी
1908 में जब दक्षिण अफ्रीका की जेल में थे, तब कस्तूरबा काफी बीमार थीं. ये देखते हुए बापू ने बा को पत्र लिखा, “मेरा हृदय फटा जा रहा है. और मैं रो रहा हूं. लेकिन तुम्हारी सेवा कर पाऊं ऐसी स्थिति नहीं है. सत्याग्रह के संघर्ष को मैंने अपना सबकुछ अर्पित कर दिया है, फिर भी मेरी बदनसीबी से कहीं ऐसा न हो कि तुम चल बसो तो… तुम पर मेरा इतना स्नेह है कि तुम मरकर भी मेरे मन में जीवित रहोगी... तुम ईश्वर में आस्था रखकर अपने प्राण त्यागना. तुम मर भी जाती हो तो वो भी सत्याग्रह के लिए ही होगा.” 

कस्तूरबा सिर्फ गांधी जी की केवल साथी नहीं थीं, बल्कि उनकी मार्गदर्शिका भी थीं. महात्मा गांधी ने खुद अपनी जीवन की सबसे गहरी शिक्षाओं में उनके प्रभाव की बात कही है. अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' (My Experiments with Truth) में गांधी लिखते हैं, “मैंने अहिंसा (सत्याग्रह) का सबक अपनी पत्नी से सीखा." 

जब गांधी भारत लौटे, तो कस्तूरबा उनके साथ स्वतंत्रता संग्राम में खड़ी रहीं. उन्होंने उनके आंदोलनों में हिस्सा लिया, विरोध प्रदर्शन किए और कई बार जेल गईं. उन्होंने 1917 में चंपारण आंदोलन में हिस्सा लिया, जहां गांधी ने बिहार के किसानों की समस्याओं को लेकर अपना पहला अभियान शुरू किया था. कस्तूरबा ने क्षेत्र की महिलाओं को इकट्ठा किया और उन्हें स्वच्छता, स्वच्छता और आत्मनिर्भरता के बारे में सिखाया. उनके काम ने उन गांवों को बदल दिया, जिनमें वे गईं - सड़कों की सफाई, कचरे का प्रबंधन, और लोग अपनी बेहतर देखभाल करने लगे. 

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बा के बिना मेरा जीवन अधूरा है...
क्रोनिक ब्रोंकाइटिस और गिरती सेहत के बावजूद, उन्होंने महात्मा गांधी का साथ देना और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेना जारी रखा. कस्तूरबा हमेशा उनकी साथी रही थीं. उनका प्यार और आपसी सम्मान सबसे मुश्किलें समय में भी ऐसा ही रहा. 1944 में, जब कस्तूरबा ने अपनी आखिरी सांस आगा खान पैलेस डिटेंशन कैंप में ली, तब वह गांधी की गोद में थीं. जब वे उनके अंतिम संस्कार की चिता के पास बैठे, तो किसी ने उन्हें आराम करने के लिए कहा, लेकिन गांधी ने जवाब दिया, "यह अंतिम विदाई है, 62 साल के साझा जीवन का अंत हो रहा है. मुझे यहां तब तक रहने दो जब तक दाह संस्कार खत्म न हो जाए." बाद में उसी शाम, उन्होंने अपने दुःख को जताते हुए कहा था, "मैं बिना बा के जीवन की कल्पना नहीं कर सकता." 

इतिहास के पन्नों में कस्तूरबा गांधी का नाम उनके पति के नाम जितना तो प्रमुख नहीं हो सकता, लेकिन जब हम उन पन्नों को फिर से देखते हैं, तो वह एक नायिका के रूप में नजर आती हैं. वह महात्मा गांधी के पीछे की शांत ताकत थीं. उनके बिना, गांधी एक महात्मा नहीं बन सकते थे.