भोपाल अपने ऐतिहासिक रिकॉर्ड, सुंदर झीलों और हरियाली के लिए जाना जाता है. लेकिन इससे भी ज्यादा अगर इस शहर को किसी चीज के लिए याद किया जाता है तो वो है एक इंडस्ट्रियल घटना जिसने सभी को हिला के रख दिया.
3 दिसंबर, 1984 की आधी रात के बाद, मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसने वाली जहरीली गैस ने हजारों लोगों को सीधे मौत के घाट उतार दिया. इस घटना को अब भोपाल आपदा या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है. आज इस घटना को 38 साल हो चुके हैं.
मारे गए हजारों लोग
आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, भोपाल गैस त्रासदी में 3,787 लोग मारे गए थे. आंकड़े मध्य प्रदेश सरकार द्वारा बाद में अपडेट किए गए क्योंकि तत्काल आधिकारिक अनुमान ने यूनियन कार्बाइड कारखाने से गैस रिसाव के कारण मरने वालों की संख्या 2,259 बताई थी. हालांकि, भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों के लिए न्याय के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं ने मौत का आंकड़ा 8,000 से 10,000 के बीच रखा. साल 2006 में प्रस्तुत एक हलफनामे में, सरकार ने कहा कि भोपाल गैस रिसाव के कारण 5,58,125 लोग घायल हुए, जिसमें लगभग 3,900 गंभीर और स्थायी रूप से विकलांग लोग भी शामिल थे.
कैसे हुआ हादसा?
यूनियन कार्बाइड (जिसे अब डॉव केमिकल्स के नाम से जाना जाता है) में गैस का रिसाव 2 और 3 दिसंबर की दरम्यानी रात के बाद हुआ था. यह घटना भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने के प्लांट नंबर सी में हुई थी. जैसे ही सुबह की ठंडी हवा ने गति पकड़ी, इसने यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसती ज़हरीली गैस को शहर के बाकी हिस्सों में पहुंचाया और इस वजह से कई लोगों की मौत हो गई जो घरों में सो रहे या जागे हुए थे. सरकार के हलफनामे के मुताबिक घटना के कुछ ही घंटों के भीतर करीब 3,000 लोगों की जहरीली गैस से मौत हो गई थी.
ऐसा अनुमान है कि यूनियन कार्बाइड कारखाने से लगभग 40 टन मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) गैस और अन्य कैमिकल्स का रिसाव हुआ. मिथाइल आइसोसायनेट बेहद विषैला होता है और अगर हवा में इसकी सांद्रता 21ppm (पार्ट्स पर मिलियन) को छू लेती है, तो यह गैस के अंदर जाने के कुछ ही मिनटों में मौत का कारण बन सकता है. भोपाल में, स्तर कई गुना अधिक था.
लीक होने का क्या कारण है?
प्लांट नंबर सी से गैस के रिसाव की सूचना मिली थी. आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, प्लांट को ठंडा करने के लिए इस्तेमाल किए गए पानी में मिथाइल आइसोसाइनेट मिला हुआ था. मिश्रण से गैसों की मात्रा उत्पन्न हुई, जिसने टैंक संख्या 610 पर जबरदस्त दबाव डाला. टैंक के ढक्कन पर गैस दबाव बनाने लगी जिससे कई टन जहरीली गैस निकली, जो बड़े क्षेत्र में फैल गई. मिथाइल आइसोसायनेट गैस के रिसाव से लगभग 5 लाख लोग प्रभावित हुए थे.
रिसाव के बाद का दृश्य
1984 में भोपाल की आबादी लगभग 8.5 लाख थी और इसकी आधी से ज्यादा आबादी खांसी, आंखों, त्वचा में खुजली की शिकायत और सांस की समस्याओं का सामना कर रही थी. गैस के कारण आंतरिक रक्तस्राव, निमोनिया और मृत्यु हुई. फैक्ट्री के आस-पास के इलाकों के गांव और झुग्गियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं.
यूनियन कार्बाइड का अलार्म सिस्टम घंटों काम नहीं कर रहा था. फैक्ट्री प्रबंधकों द्वारा कोई शोर नहीं मचाया गया. 3 दिसंबर की सुबह अचानक हजारों लोग अपनी शिकायतें लेकर अस्पतालों की ओर दौड़ने लगे. आज के विपरीत 1984 के भोपाल में बहुत अधिक अस्पताल नहीं थे. दो सरकारी अस्पताल शहर की आधी आबादी का इलाज नहीं कर सकते थे. लोग पीड़ित थे, सांस लेना मुश्किल हो रही थी. ऐसे ही डॉक्टर भी थे, जो हर नए आने वाले रोगी को अचानक होने वाली बीमारी के कारणों को तुरंत नहीं जान पा रहे थे.
लोगों क्या-क्या हुई समस्या?
मरीजों में चक्कर आना, सांस फूलना, त्वचा में जलन और चकत्ते की समस्या थी. कुछ अन्य ने अचानक अंधेपन की शिकायत की. भोपाल के डॉक्टरों ने कभी इस तरह की स्थिति का सामना नहीं किया था. उन्हें औद्योगिक आपदा से निपटने का कोई अनुभव नहीं था.मिथाइल आइसोसाइनेट के संपर्क में आने के लक्षण उन्हें तुरंत पता नहीं चल पाए थे और, दोनों अस्पतालों ने कथित तौर पर भोपाल गैस रिसाव के पहले दो दिनों में लगभग 50,000 रोगियों का इलाज किया. आधिकारिक तौर पर सरकार ने आठ घंटे में गैस रिसाव पर काबू पाने की बात कही थी, लेकिन शहर 38 साल बाद भी इसकी चपेट से बाहर नहीं आ पा रहा है.