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'धरती आबा' बिरसा मुंडा: अंग्रेजों के खिलाफ जलाई क्रांति की मिसाल, लड़ी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई, और बन गए आदिवासियों के भगवान

बिरसा मुंडा की जिंदगी सिर्फ 25 साल की थी लेकिन आज भी उन्हें ब्रिटिशों के खिलाफ आदिवासी समुदाय को एकजुट करने के लिए जाना जाता है. उनके विद्रोह के कारण ही औपनिवेशिक अधिकारियों ने आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाया था.

Tribal Leader Birsa Munda Tribal Leader Birsa Munda
हाइलाइट्स
  • खेतों में मजदूर थे बिरसा के माता-पिता 

  • अलग सोच के दम पर बने भगवान 

बिरसा मुंडा एक युवा स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थे. भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिरसा के विरोध को आज भी याद किया जाता है. बिहार और झारखंड के आसपास के आदिवासी इलाके में जन्मे और पले-बढ़े, बिरसा मुंडा ने 25 साल की उम्र से पहले ही वह नाम कमा लिया था जिसे कमाने में लोग पूरी उम्र लगाते हैं. राष्ट्रीय आंदोलन पर उनका प्रभाव कुछ ऐसा था कि आजादी के सालों बाद 2000 में झारखंड राज्य का गठन उनकी जयंती पर किया गया था. 

आज भी बिरसा मुंडा को आदिवासी समुदाय भगवान के तौर पर पूजते हैं. बिरसा मुंडा उनके 'धरती आबा' यानी धरती के पिता हैं. आज भी लोग उनके विद्रोह की कहानियां सुनाते हैं. कहानी कि आखिर कैसे एक आम-सा आदिवासी लड़का ब्रिटिश सरकार की आंखों की किरकिरी और आदिवासियों का भगवान बन गया. 

खेतों में मजदूर थे बिरसा के माता-पिता 
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को वर्तमान झारखंड में खूंटी के उलिहातु में हुआ था. उनके पिता सुगना मुंडा और मां करमी हातू खेतिहर मजदूर थे. मुंडा ने बचपन से ही गरीबी देखी थी जिससे उन्हें यह समझ में आया कि आदिवासी गरीब क्यों हैं.
उनका परिवार मुंडा नामक जातीय जनजातीय समुदाय से था और चलकाड में बसने से पहले वे इधर-उधर पलायन कर रहे थे. गरीबी के कारण बिरसा अपने मामा के पास मुंडा जनजाति के गांव अयाभातु में रहने चले गये.

अयुभातु में, बिरसा अपनी छोटी बहन जोनी के साथ साल्गा में स्कूल गए और यहीं से मुंडा के लिए जीवन बदलना शुरू हुआ क्योंकि स्कूल जर्मन मिशनरी चलाते थे. जिससे मुंडा को मुंडा परंपरा के अलावा अन्य धर्म के बारे में सीखने का मौका मिला. वह एक प्रचारक के संपर्क में भी आए, जिन्होंने गांव के कुछ परिवारों को ईसाई धर्म में परिवर्तित कराया था. 

मुंडा ने पश्चिमी शिक्षा का स्वाद चखा जिससे उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी मिली. आज़ाद ख्याल मुंडा जनजाति का विद्रोही खून उनके अंदर हमेशा से था जो उन्हें दूसरों से अलग बनाता था.
एक बार उनके पिता उन्हें स्वर्ग के राज्य के बारे में बता रहे थे तो उन्होंने पिता से सवाल किया कि यह स्वर्ग का साम्राज्य कहां था जब आदिवासियों का उनकी ही मातृभूमि में जमींदार और जागीरदार शोषण कर रहे थे. उनके पिता यह सुनकर अवाक रह गये. 

आदिवासियों के नेतृत्व की तैयारी 
1886 से 1890 के बीच के वर्षों ने बिरसा को आदिवासियों के उत्थान और विद्रोह में बड़ी भूमिका के लिए तैयार किया. उस समय तक सरदारों की गतिविधियां प्रसिद्ध हो गईं और बिरसा का परिवार भी उनके प्रभाव में आ गया था. जल्द ही बिरसा ने चाईबासा छोड़ दिया. आंदोलन में उनकी पहली भागीदारी पोरहाट क्षेत्र में पिरिंग के गिदियुन के नेतृत्व में संरक्षित जंगल में मुंडाओं के पारंपरिक अधिकारों पर लगाए गए प्रतिबंध से उत्पन्न हुई थी.

1893-94 के दौरान, अंग्रेजों ने 1882 के भारतीय वन अधिनियम VII के तहत गांव की सभी बंजर भूमि का स्वामित्व सरकार को सौंप दिया. जंगलों में गांवों को सुविधाजनक आकार के ब्लॉकों में चिह्नित किया गया था, जिसमें गांवों की जरूरतों के लिए खेती योग्य और बंजर भूमि शामिल थी. इसके खिलाफ बिरसा ने आवाज उठाई और आंदोलन के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. धीरे-धीरे आदिवासियों के अधिकार सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी. 1890 के दशक के मध्य में, बिरसा ने एक नए धर्म की स्थापना की जो ईसाई मिशनों के खिलाफ था. 

अलग सोच के दम पर बने भगवान 
बिरसा का यह नया धर्म कर लगाने के ख़िलाफ़ था. जबकि चर्च कर यानी टैक्स का समर्थन करते थे. बिरसा ने करों के साथ-साथ बलिदान प्रणाली की भी निंदा की. उन्होंने एक सख्त आचार संहिता बनाई जिसमें चोरी, झूठ बोलना और हत्या करना अपराध था और भीख मांगना प्रतिबंधित था. जल्द ही बिरसा अपनी लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए जहां न केवल मुंडा, बल्कि उरांव और खरिया जनजातियां भी नए भगवान को देखने और अपनी परेशानियों के हल के लिए चल्कद में आने लगीं. 

उरांव और मुंडा दोनों आबादी बिरसैती के नाम से जानी जाती थी. जल्द ही उन्होंने धरती आबा नाम धारण कर लिया. तब तक, ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था ने आदिवासी कृषि व्यवस्था को लगभग सामंती राज्य में बदल दिया था. आदिवासी लोगों को जमींदारों की भूमि पर काम करने और खेती करने के लिए कहा गया. 1856 में, लगभग 150 गांवों की भूमि पर 600 जागीरदार नियंत्रण कर रहे थे और 1874 तक, पुराने मुंडा या उरांव प्रमुखों का अधिकार लगभग पूरी तरह से समाप्त हो गया था, ज्यादातर किसान जागीरदारी प्रणाली के तहत शोषित हो रहे थे. 

बिरसा ने बनाई गुरिल्ला सेना 
बिरसा ने अपने भरोसेमंद आदिवासियों के साथ एक गुरिल्ला सेना बनाई और स्थानीय जागीरदारों के प्रतिष्ठानों पर हमला करना शुरू कर दिया. उन्होंने किसान समुदायों के भीतर विद्रोह को हवा दी और उन्हें अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए मजबूत किया. लगभग चार वर्षों तक उन्होंने विद्रोह जारी रखा और क्षेत्र में ब्रिटिश अधिकारियों को नुकसान पहुंचाया. उन्होंने अंग्रेजों को कड़ी चुनौती देते हुए आदिवासियों के उन अधिकारों की मांग की जो अंग्रेजों ने अपनी सामंती व्यवस्था के जरिये छीन लिये थे. 

उनके विद्रोह ने ब्रिटिश शासन की नींदे उड़ा दी थीं. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए कवायद तेज की.  कई बार वह अंग्रेजों को चकमा देने में कामयाब रहे. लेकिन 3 फरवरी, 1900 को मुंडा को पकड़ लिया गया और उन्हें रांची जेल में डाल दिया गया. जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन तब तक मुंडा ने आदिवासियों की मानसिकता को बदल दिया और उन्हें इस तरह से संगठित किया कि वे न केवल यह जान सके कि उनका क्या अधिकार है, बल्कि उन्होंने पारंपरिक तरीकों से भी अपने अधिकारों और हितों की रक्षा की. 

आदिवासियों के लिए, मुंडा आशा की एक किरण थे जिन्होंने न केवल क्षेत्र के आदिवासियों को प्रबुद्ध किया, बल्कि उनके निधन के सदियों बाद भी आदिवासी एकता और विद्रोह का प्रतीक हैं.