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थोड़ा बिजनेस थोड़ी सेवा, गाजीपुर बॉर्डर पर बिना मुनाफा कमाए लोगों ने चलाई दुकान

गुप्ता जी अपनी दुकान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से उठाकर गाजीपुर ले आए. सेवा भाव ऐसा रहा कि बाजार में जो कुर्ता 350 में बेचते थे उसे गाजीपुर में जरूरतमंदों को 150 में बेच दिया. कभी मुनाफा कमाया भी तो 10-20 रुपये का. 

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हाइलाइट्स
  • बाजार में जो कुर्ता 350 में बेचते थे उसे गाजीपुर में जरूरतमंदों को 150 में बेच दिया.

  • गाजीपुर बॉर्डर पर पूरे आंदोलन में सिर्फ एक नाई की दुकान थी.

कहते हैं भीड़ का कोई पैमाना नहीं होता, लेकिन भीड़ में बिजनेस जरुर होता है. गाजीपुर बॉर्डर पर एक साल पहले जब किसान पहुंचे और रास्ता बंद हो गया तो ऐसा लगा कि सबका कामकाज अब ठप हो जाएगा. लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ा उसी भीड़ में कुछ लोगों ने अपनी दुकान लगा ली. दुकान लगाने में थोड़ा बिजनेस था तो थोड़ी सेवा.

गोवर्धन गुप्ता से बने 'गुप्ता जी'

68 साल के गोवर्धन गुप्ता मूल रूप से बनारस के रहने वाले हैं लेकिन अब दिल्ली में ही रहते हैं और कुर्ता पजामा बेच कर घर चलाते हैं. गाजीपुर बॉर्डर पर पहले वो आंदोलन में शामिल होने के लिए आए थे लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि कई लोग जो लंबी तैयारी से नहीं आये थे उन्हें कपड़ों और दूसरी चीजों की जरूरत हैं. गुप्ता जी अपनी दुकान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से उठाकर गाजीपुर ले आए. सेवा भाव ऐसा रहा कि बाजार में जो कुर्ता 350 में बेचते थे उसे गाजीपुर में जरूरतमंदों को 150 में बेच दिया. कभी मुनाफा कमाया भी तो 10-20 रुपये का. 

धीरे-धीरे गोवर्धन गुप्ता ने राकेश टिकैत के संगठन भारतीय किसान यूनियन के बैच, झंडा और टोपी भी बेचना शुरू किया. धीरे-धीरे जरूरत के हिसाब से पैजामा,चार्जर और तिरंगा झंडा भी बेचने लगे. गुप्ता जी बताते हैं कि आज उनका सारा माल लगभग खत्म हो चुका है. एक साल तक दुकान लगाकर ज्यादा पैसा तो नहीं कमाया लेकिन नाम बहुत कमाया. यहां लोग उन्हें गुप्ता जी बोल कर बुलाते हैं कई नए लोगों से दोस्ती भी हुई. चार बच्चों के पिता गोवर्धन बताते हैं कि उनकी अपनी कोई जमीन नहीं है लेकिन वह राकेश टिकैत को देखकर आंदोलन से जुड़े थे।

किराए का घर छोड़ आंदोलन में की छोटी सी दुकान

अमर सेन दोनों हाथों से विकलांग हैं. उनके दोनों हाथों में उंगलियां नहीं है. वो गाजीपुर में अपनी 70 साल की मां के साथ एक छोटे से टेंट में रहते हैं इसी में सिगरेट और तंबाकू की छोटी सी दुकान खोल रखी है. अमर सेन बताते हैं कि वह अपनी मां के साथ खोड़ा में किराए के घर में रहते थे लेकिन आंदोलन में किराए का घर छोड़कर यहीं रहने लगे. खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं हुई और थोड़ी बहुत बिक्री भी हो जाती थी. 

अमर सेन और उनकी मां इस बात से थोड़ा परेशान जरूर हैं कि अब आंदोलन खत्म हो गया है और उन्हें वापस खोड़ा जाना पड़ेगा. अमर सेन कहते हैं कि पैसे की बहुत तंगी रहती है, दोनों हाथ से मजबूर हैं इसलिए कोई भारी काम भी नहीं कर सकते खोड़ा में घर का किराया 1200 रुपये महीना था. अब फिर से किराए पर घर लेना पड़ेगा और नया काम भी ढूंढना पड़ेगा. 

किसान आंदोलन
किसान आंदोलन

10 रुपये में काटे बाल

गाजीपुर बॉर्डर पर आपको पूरे आंदोलन में सिर्फ एक नाई की दुकान दिखाई पड़ेगी. राज वीर यहां छोटा सा चबूतरा बनाकर लोगों के दाढ़ी और बाल काटते हैं.  राजवीर बताते हैं पूरे एक साल से वो वहीं पर रह रहे हैं. राजवीर का कोई फिक्स रेट नहीं है. यहां जो भी आंदोलनकारी दाढ़ी-बाल कटवाने आते हैं, कोई 10 रुपए देता है, कोई 20 रुपए तो कोई 5 रुपए देकर ही चला जाता है. लेकिन राज कहते हैं कि किसी से कोई शिकायत नहीं, वह यहां पर कमाई का सोच कर बैठे भी नहीं थे, उनका मकसद तो लोगों की सेवा करना था. 

राजवीर मूल रूप से मुरादाबाद के हैं और अब खोड़ा में रहते हैं. राजवीर कहते हैं कि 2 नाई और आए थे लेकिन वो अच्छी दुकानदारी सोच कर आए थे. जब उनकी दुकान ठीक से नहीं चली तो वह यहां से लौट गए, हमें कोई जितने पैसे दे गया हम उतने में खुश रहे. उनके परिवार में बीवी, दो बेटे और दो बेटियां हैं. आंदोलन खत्म होने के बाद क्या करेंगे इस पर राजवीर मुस्कराकर बोलते हैं, 'फिर से खोड़ा में कुर्सी मेज डाल के बैठ जाएंगे और क्या.'