
दिल्ली हाईकोर्ट इन दिनों 'फरलो' से जुड़ी एक महत्वपूर्ण याचिका पर सुनवाई कर रहा है. यह मामला खास इसलिए है क्योंकि आम तौर पर फरलो देने का अधिकार कार्यपालिका के पास होता है, लेकिन दिल्ली में इसके नियम अलग हैं. सवाल यह है कि दिल्ली में यह नियम बाकी राज्यों से अलग क्यों है? फरलो क्या होता है, और यह 'पैरोल' से कैसे अलग है? आइए, इस पूरे मामले को विस्तार से समझते हैं.
फरलो और पैरोल में क्या फर्क है?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, फरलो और पैरोल, दोनों ही जेल मैनुअल और प्रिजन रूल्स के तहत आते हैं और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में होते हैं. दोनों ही अस्थायी रिहाई की कैटेगरी में आते हैं, लेकिन इनमें एक बड़ा फर्क है.
दिल्ली में नियम अलग क्यों हैं?
दिल्ली जेल नियमावली 2018 के चैप्टर XIX में फरलो और पैरोल का जिक्र किया गया है. नियम 1224 के नोट 2 के अनुसार, अगर किसी दोषी की अपील हाईकोर्ट में लंबित है या अपील करने की समय सीमा समाप्त नहीं हुई है, तो उसे कार्यपालिका द्वारा फरलो नहीं दिया जाएगा. इसके बजाय, दोषी को अदालत से इस संबंध में निर्देश लेने होंगे.
इस नियम को 2022 से दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी जा रही है. हाल ही में हाशिमपुरा नरसंहार मामले के दोषियों ने इसी नियम को लेकर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
क्या दिल्ली सरकार ने जानबूझकर यह नियम लागू किया?
दिल्ली सरकार ने 22 जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा कि यह नियम जानबूझकर 2010 की पैरोल/फरलो गाइडलाइंस के आधार पर लागू किया गया था. इसे तत्कालीन उपराज्यपाल (एलजी) ने 17 फरवरी 2010 को मंजूरी दी थी.
दिल्ली हाईकोर्ट का अब तक क्या रुख रहा है?
दिल्ली हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने यह स्पष्ट किया कि नियम में जो 'हाईकोर्ट' शब्द कहा गया है उसका का मतलब अपीलीय अदालत से है, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों शामिल हैं. यानी अगर किसी दोषी की अपील सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, तो केवल सुप्रीम कोर्ट ही फरलो देने का निर्देश दे सकता है.
अब एक डिवीजन बेंच इस सवाल की जांच कर रही है कि क्या हाईकोर्ट दोषी की फरलो की अर्जी पर सुनवाई कर सकता है या दोषी को सीधे सुप्रीम कोर्ट जाना होगा. इसके साथ ही अदालत यह भी जांच रही है कि यह नियम संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन तो नहीं करता.
क्या यह नियम सुधारात्मक न्याय प्रणाली के खिलाफ है?
हाईकोर्ट यह भी जांच कर रहा है कि क्या किसी दोषी को उसके अच्छे आचरण के बावजूद केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील लंबित होने के कारण फरलो नहीं दिया जाना सही है?
बता दें, यह सवाल पहली बार 1960 में सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था, जब भारतीय नौसेना के कमांडर के.एम. नानावटी पर अपनी पत्नी के प्रेमी की हत्या का आरोप लगा था. बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें दोषी ठहराया था, लेकिन उनकी अपील दायर होने से पहले तत्कालीन गवर्नर विजयलक्ष्मी पंडित ने उन्हें संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत माफी दे दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया और कहा कि जब मामला अदालत में लंबित हो, तो राज्यपाल को सजा निलंबित करने का अधिकार नहीं होता.
क्या दूसरे राज्यों में भी ऐसा नियम लागू है?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट मानें, तो सुप्रीम कोर्ट में पिछले साल एक मामले की सुनवाई के दौरान नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (NALSA) के सीनियर एडवोकेट गौरव अग्रवाल ने बताया था कि कुछ राज्यों में भी हाईकोर्ट में अपील लंबित होने के दौरान दोषियों को पैरोल या फरलो नहीं दिया जाता. ऐसे मामलों में दोषी को राहत के लिए अदालत का ही सहारा लेना पड़ता है.
दिल्ली हाईकोर्ट इस नियम की संवैधानिकता की व्यापक जांच कर रहा है. अगर अदालत इसे असंवैधानिक ठहराती है, तो दिल्ली में फरलो देने की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव आ सकता है. वहीं, अगर अदालत इस नियम को बरकरार रखती है, तो यह सुनिश्चित किया जाएगा कि दोषी को फरलो के लिए अदालत से ही अनुमति लेनी होगी.