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Domestic Violence in India: होम स्वीट होम! महिलाओं की मुस्कान के पीछे का ऐसा दर्द... ज्यादातर घरों में अलग-अलग तरह की हिंसा से जूझ रहीं औरतें

Domestic Violence in India: भारत में घरेलू हिंसा अधिनियम पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लागू किया गया है. इसके तहत, शिकायत दर्ज होने के तीन दिन के भीतर पहली सुनवाई होनी चाहिए. पहली सुनवाई के 60 दिनों के भीतर मामला सुलझा लिया जाना चाहिए. हालांकि, समय सीमा क्षेत्राधिकार और कानूनी कार्रवाई के प्रकार पर निर्भर करती है. कई मामलों में, यह प्रक्रिया महीनों से लेकर सालों तक खिंच सकती है. 

Woman in Veil (Photo: GettyImages) Woman in Veil (Photo: GettyImages)
हाइलाइट्स
  • ज्यादातर घरों में जूझ रही औरतें 

  • महिलाओं की मुस्कान के पीछे छिपा दर्द

"क्या आप जानते हैं महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगह कौन सी है?"

जवाब है घर! जी हां, यूनाइटेड नेशन ऑफिस, ड्रग्स एंड क्राइम (UNODC) की रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 6 में से 10 महिलाओं की हत्या उनके करीबी साथी या परिवार के सदस्य द्वारा की जाती है. इसका मतलब है कि हर दिन 137 महिलाएं अपनी जान गंवाती हैं, और यह मौतें उन लोगों के हाथों होती हैं जिन्हें वे जानती हैं. 

दरअसल, भारत की अनगिनत महिलाओं के लिए, "होम स्वीट होम" आज भी केवल एक कहने भर की बात है. बंद दरवाजों के पीछे, उनके घरों की दीवारें मारपीट और शोषण की कहानियों से गूंजती हैं. उत्तर प्रदेश के मेरठ में रहने वाली 32 साल की स्कूल टीचर, आरती (बदला हुआ नाम) के लिए, चोटें दिखाई देने वाली नहीं थीं, लेकिन घाव गहरे थे. उनकी शादी एक ऐसे परिवार में कर दी गई जो सालों से उनका मानसिक उत्पीड़न करता रहा. उनका पति उनके हर फैसले लेता था. वे अपने पैसे कहां खर्च करेंगी? किससे मिलेंगी? क्या नहीं पहनेंगी?... सबकुछ. वे याद करते हुए कहती हैं, “यह ऐसा था जैसे बिना सलाखों के मैं जेल में कैद हूं. 

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आरती की कहानी महज बानगी भर है. भारत भर में लाखों महिलाएं हर दिन घरेलू हिंसा (Domestic Violence) का सामना करती हैं. यह एक ऐसी समस्या है जिसके केंद्र में सामाजिक मान्यताएं और पितृसत्ता है. 

मानसिक से लेकर आर्थिक सबकुछ है हिंसा 
घरेलू हिंसा केवल शारीरिक नुकसान तक सीमित नहीं है. मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट हिमानी ने GNT डिजिटल को अलग-अलग तरह की हिंसा के बारे में बताया. इसमें मानसिक (मेंटल), यौन (सेक्शुअल), वित्तीय (फाइनेंशियल), और अन्य शामिल हैं. वे कहती हैं, "हिंसा का सीधा सा मतलब आपको कंट्रोल करने से है. लेकिन कई बार औरतों को पता ही नहीं होता है कि उनके साथ हिंसा हो रही है. ऐसे में अगर किसी के एक्शन आपको असहाय महसूस करवा रहे हैं, तो ये एक अच्छा टाइम है कि आप इसपर सोचना शुरू कर दें. सामने वाला अगर आपको बार-बार ये महसूस करवा रहा है कि आप लायक नहीं हैं... कुछ कर नहीं सकते या वह दूसरों के सामने आपके लिए खराब शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है, ये एक तरह की हिंसा ही है. मौका मिलने पर ये फिजिकल एब्यूज (Physical Abuse) यानी मार-पीट में भी बदल सकता है.” 

उदाहरण के लिए, आरती के पति अक्सर उनकी उपलब्धियों का मजाक उड़ाते थे. समय के साथ, इस मानसिक शोषण (Mental Harassment) ने आरती के आत्मसम्मान को ही खत्म कर दिया. आरती बताती हैं, "मैं मानने लगी थी कि मैं उनके बिना कुछ नहीं कर सकती हूं, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है. और यही सबसे खतरनाक बात थी."

हिमानी घरेलू हिंसा की साइकिल को समझाती हैं, "यह छोटे-मोटे गुस्से से शुरू होती है, फिर एक हिंसा की घटना होती है, और इसके बाद एक 'हनीमून फेज' आता है, जहां शोषक अपना पछतावा दिखाता है या कहता है कि वह सुधरने की कोशिश करेगा. यह साइकिल पीड़ित को आशा और निराशा के एक ऐसे लूप में फंसा देती है कि औरत उससे निकल ही नहीं पाती है."

क्या केवल घरों में औरतों के साथ ही हो रही है हिंसा? 
हालांकि, घरेलू हिंसा का प्रभाव सबके ऊपर एक जैसा नहीं होता है. ऑल इंडिया क्वीयर एसोसिएशन (All India Queer Association) की संस्थापक मेघना (Meghna Mehra) याद करती हैं कि महामारी ने हाशिए पर रहने वाले समूहों के साथ हो रही हिंसा को किस तरह से बढ़ा दिया था. वे बताती हैं, "हमारी हेल्पलाइन पर क्वीयर व्यक्तियों और महिलाओं से संबंधित इंटीमेट पार्टनर द्वारा की गई हिंसा के कॉल्स की बाढ़ आ गई थी. विशेष रूप से ट्रांस महिलाओं को शारीरिक हिंसा और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. महामारी कई लोगों के लिए दोधारी तलवार साबित हुई. यही वजह रही कि कोविड-19 के दौरान घरेलू हिंसा के बढ़े हुए मामले सामने आए.”

इसे लेकर GNT Digital ने अनम नाम की ट्रांस महिला से बात की. उन्होंने बताया कि वे अब एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हैं. अनम की यात्रा कई चुनौतियों से भरी हुई थी. वे कहती हैं, "एक बच्चे के रूप में मुझे स्कूल में लगातार हिंसा का सामना करना पड़ा, जो बढ़ता ही गया. कॉलेज और मास्टर्स के बाद भी मेरा आत्मविश्वास एकदम जीरो हो चुका था. जब तक मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो गई, तब तक मैं इससे बाहर नहीं निकल पाई.”

क्या इतना आसान है किसी रिश्ते को छोड़ पाना? 
हालांकि, हम देखते हैं कि घरेलू हिंसा से गुजर रही औरतों से अक्सर ये पूछा जाता है कि "आप ऐसे पति को या उस घर को छोड़ क्यों नहीं देतीं?
मेघना इसे लेकर कहती हैं, "छोड़ने के लिए संसाधनों की जरूरत होती है. तलाक की प्रक्रिया लंबी और महंगी है, और इसे अक्सर एक समाजिक कलंक के तौर पर देखा जाता है. आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं के लिए भी, 'तलाकशुदा' होने का टैग एक अलग प्रकार की चुनौती लेकर आता है."

आरती के लिए भी तलाक लेना तब तक एक विकल्प नहीं था जब तक उन्होंने अपने घरवालों से मदद नहीं ली. वे कहती हैं, "उन्होंने मुझे समझाया कि मेरे साथ हिंसा होना मेरी गलती नहीं है. उन्होंने ही मुझे पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज करने के लिए कहा.”

भारत में घरेलू हिंसा संस्कृति की मान्यताओं के साथ गहरे रूप से जुड़ी हुई है. हिमानी इस बात को उजागर करती हैं कि समाजी कंडीशनिंग अक्सर शोषण को बढ़ावा देती है. वे कहती हैं, "लड़कियों को छोटी उम्र से यह सिखाया जाता है कि अपनी खुशियों से ज्यादा शादी को प्राथमिकता देनी चाहिए. ऐसे में किसी को ये कहना कि छोड़ दो सुनने में आसान लग सकता है, लेकिन बहुत मुश्किल है.”

इसका कारण हिंसा का घरों में नॉर्मल हो जाना भी है. ज्यादातर महिलाएं कोई विकल्प न होने पर हिंसक शादियों में रहने को मजबूर होती हैं. ठीक ऐसी ही एक महिला है सुनीता (बदला हुआ नाम). सुनिया उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव दूधली की रहने वाली 36 वर्षीय गृहिणी हैं. सुनीता अपने पति से सालों से शोषण सह रही हैं. क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें "समझौता करने" की सलाह दी है. वे कहती हैं, “मेरी 12 साल की बेटी है, ऐसे में मैं जवान लड़की को लेकर कहां जाऊंगी? शायद कुछ समय में वो (पति) सीख जाएंगे. हो सकता है आने वाले समय में चीजें बेहतर हों. लोग मुझे अक्सर सलाह देते हैं कि मैं उन्हें (पति) ज्यादा गुस्सा न दिलवाऊं या फिर चुप रहा करूं.” हालांकि, दबी आवाज में सुनीता कहती हैं कि वे कभी नहीं चाहती कि उनकी बेटी की शादी ऐसे लड़के से हो जो उसपर हाथ उठाए.

प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो- अपूर्वा)
प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो क्रेडिट- अपूर्वा)

चक्र को तोड़ना जरूरी
घरेलू हिंसा से बाहर निकलने और जीवन को फिर से शुरू करने के लिए मानसिक से लेकर वित्तीय और कानूनी समर्थन की जरूरत होती है. मेघना जिस संगठन को चला रही हैं, उसमें हिंसा झेल चुके लोगों को वकीलों से जोड़ा जाता है और रहने के लिए टेम्पररी जगह दी जाती है ताकि वे अपने केस उनसे साझा कर सकें. मेघना बताती हैं कि हर साल उनके शेल्टर होम में करीब 15 से 20 लोग आते हैं. 

वहीं, अनम का कहना है कि इसके लिए सबसे जरूरी आर्थिक सशक्तिकरण है. उन्हें अपने जीवन पर कंट्रोल पाने में फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ने उनकी खूब मदद की है. वे कहती हैं, "जब आप आर्थिक रूप से स्थिर होते हैं, तो आप बिना डर के फैसले ले सकते हैं.”

भारत में घरेलू हिंसा को लेकर कानून है, लेकिन अधिकतर महिलाएं इस तक नहीं पहुंच पाती हैं. मेघना इस विषय पर जोर देकर कहती हैं, "कई महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में जानती नहीं हैं. यहां तक कि वो जो जानती हैं, उनके लिए ये पूरी प्रक्रिया बहुत डरावनी और असुलभ होती है."

क्या कहते हैं नियम-कानून?
आपको बता दें, भारत में घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लागू किया गया है. कागजी आधार पर इसके तहत, शिकायत दर्ज होने के तीन दिन के भीतर पहली सुनवाई होनी चाहिए. पहली सुनवाई के 60 दिनों के भीतर मामला सुलझा लिया जाना चाहिए. हालांकि, समय सीमा क्षेत्राधिकार और कानूनी कार्रवाई के प्रकार पर निर्भर करती है. कई मामलों में, यह प्रक्रिया महीनों से लेकर सालों तक खिंच सकती है. 

झारखंड हाई कोर्ट में वकील प्रीतम मंडल के मुताबिक, यह कानून भारत की सभी महिलाओं पर लागू होता है, चाहे उनका धार्मिक या सामाजिक पृष्ठभूमि कोई भी हो. शिकायतकर्ता को आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी दी जाती है. वहीं पीड़िता की सुरक्षा को लेकर वे बताते हैं, “इस पूरे प्रोसेस के दौरान कोर्ट पीड़ितों की सुरक्षा और गोपनीयता के लिए भी कई कदम उठाती है. जैसे पीड़ितों, गवाहों और आरोपी के परिवारों के लिए अलग-अलग वेटिंग एरिया बनाए जाते हैं. अगर पीड़िता चाहें तो अदालत उन्हें आने-जाने के लिए पुलिस सुरक्षा देती है. इतना ही नहीं गवाही में सहायता के लिए स्क्रीन, मिरर, पर्दे, आवाज बदलने की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं.”

प्रीतम आगे कहते हैं, “इस दौरान जरूरी है कि पीड़िता को मेडिकल रिकॉर्ड, फोटो, टेक्स्ट मैसेज, ईमेल और गवाहों के बयान जैसे सबूत पहले से ही जुटा लें ताकि मामले का निपटान जल्दी हो सके. पीड़िता तुरंत अपनी सुरक्षा और रहने की कोई जगह के रूप में राहत मांग सकती है. ये सभी सुविधाएं कानून देता है.”

गौरतलब है कि घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ाई केवल अकेले की नहीं है, बल्कि ऐसी सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देने की भी है जो शोषण को बढ़ावा देती हैं. शिक्षा, जागरूकता और पुरानी चली आ रही रूढ़िवादी मान्यताओं को तोड़ना जरूरी है. ये सभी कहानियां औरतों की सहनशीलता का प्रमाण हैं और यह याद दिलाती हैं कि किसी को भी चुपचाप नहीं सहना है. और समाज के रूप में, यह हमारी जिम्मेदारी है कि उनकी आवाज को सुना जाए और उनके अधिकारों की रक्षा की जाए.

हिमानी के शब्दों में, "घरेलू हिंसा को खत्म करने के लिए पहला कदम इसे पहचानना है. दूसरा कदम यह सुनिश्चित करना है कि हिंसा झेल रही औरत अकेली नहीं है.”

(लेखिका लाडली मीडिया फेलो हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार और मत उनके अपने हैं. लाडली और यूएनएफपीए इन विचारों का अनिवार्य रूप से समर्थन नहीं करते हैं.)