पीएम मोदी ने 19 नवंबर को तीनों कृषि कानूनों को वापिस लेने की घोषणा की है. इस दौरान उन्होंने कहा कि कानून किसानों के सर्वोत्तम हित में थे, लेकिन उनकी सरकार किसानों के एक वर्ग को इसके फायदे समझाने में विफल रही है. देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी रद्द किए गए कृषि कानूनों पर कहा है कि हम कुछ किसानों को लाभ समझाने में विफल रहे हैं. कृषि कानूनों के आने के बाद से ही भारत के कई किसान इसे खत्म करने की मांग कर रहे थे, जिन्होंने लगभग एक साल तक विरोध प्रदर्शन किया.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल उठता है कि पीएम मोदी किसानों को कृषि कानून के फायदे समझाने में नाकाम क्यों रहे? चलिए विस्तार से समझते हैं की आखिर इसकी क्या वजह रही ?
सबसे पहले समझते हैं कि आखिर एमएसपी वास्तव में किसानों को क्या देता है......
सरकार ने बड़ी संख्या में फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की है, जिसमें खरीफ (मानसून) के मौसम में 17 फसलें और रबी (सर्दियों) के मौसम में छह फसलें हैं. इसमें सबसे प्रभावी खरीद केवल दो महत्वपूर्ण अनाज के लिए होती है, चावल और गेहूं. हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में, पंजाब और हरियाणा से 60% गेहूं और लगभग 35% चावल की खरीद की गई थी, हालांकि देश में गेहूं और चावल उत्पादन में इन दोनों राज्यों की हिस्सेदारी 30% और 14% थी. पंजाब और हरियाणा में भी, ज्यादातर किसानों को इन नीतियों के चलते कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है
एमएसपी खरीद में फसल, वर्ग और क्षेत्र को ध्यान में रखा जाता है और शायद सरकार ने सोचा कि यही कारण है कि इन राज्यों में किसानों के छोटे समूह की मांगों के प्रति बड़ी संख्या में किसान नाराज होंगे. ये छोटे किसान वो हैं जिन्हे ऐसी नीतियों से फायदा होता है.
कृषि सुधारों के लिए "बिहार मॉडल"
अगर हम 2014 के आम चुनावों की बात करें, तो "गुजरात मॉडल" भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा था. नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी गुजरात की जनता को ये समझाने में सक्षम थी कि ये मॉडल वहां के लोगों के लिए फायदेमंद साबित होगा और इससे भारत को आर्थिक रूप से मजबूती मिलेगी. बिना किसी विरोध के गुजरात की जनता द्वारा इस मॉडल अपना लिया गया.
कृषि कानूनों को मनवाने के लिए भी समान मॉडल की आवश्यकता थी. ऐसे में ‘बिहार मॉडल’ एक स्वाभाविक पसंद था. 2005 में सत्ता संभालने के बाद बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने जो पहला काम किया, वह था राज्य में कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) के एकाधिकार को समाप्त करना, कुछ ऐसा ही कृषि कानूनों में भी किया गया. .
तो, अब सवाल उठता है कि आखिर सरकार ने कृषि कानूनों के समर्थन में बिहार मॉडल को क्यों नहीं लाया? संक्षिप्त उत्तर यह है कि बिहार में कृषि सुधारों के अनुभव से बेचने के लिए कोई स्पष्ट सफलता की कहानियां नहीं हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट में रिसर्च फेलो अविनाश किशोर लिखते हैं, “बिहार में एपीएमसी अधिनियम को निरस्त करने का उद्देश्य नए बाजार बनाना और कृषि बाजारों में निजी निवेश को आकर्षित करना और बुनियादी ढांचे में सुधार करना था. हालांकि, हम पाते हैं कि निजी बाजार नहीं उभरे ...यह बताना बहुत मुश्किल है कि बिहार में एपीएमसी अधिनियम को निरस्त करना किसान के लिए अनुकूल है या नहीं.”
हालांकि शोधकर्ताओं ने बिहार में कृषि सुधारों के लाभ को साबित करने के लिए कई सबूत खोजे, लेकिन असल में किसान अभी भी इससे प्रभावित नहीं हैं. नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार, इस पॉलिसी में बिहार सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों में से एक है.
भारतीय अर्थव्यवस्था और कृषि
भारतीय अर्थव्यवस्था में साल दर साल उत्पादन और रोजगार दोनों के मामले में कृषि अपना महत्व खो रही है. 1990-91 में सकल मूल्यवर्धन (Gross value) में कृषि और उससे जुडी गतिविधियों की हिस्सेदारी 35% थी. यह 2019-20 में गिरकर 14.8% पर पहुंच गयी है. लेकिन महामारी के दौरान, अर्थव्यवस्था के लिहाज से कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जिसमें 2020-21 में पॉजिटिव ग्रोथ देखी गयी. कोविड-19 महामारी के दौरान ये हिस्सेदारी बढ़कर 16.4% हो गयी.
पीरियोडिक लेबर फोर्स (PLFs) के आंकड़ों से पता चलता है कि लॉकडाउन के दौरान कृषि रोजगार का हिस्सा भी बढ़ा है. 2018-19 में पीएलएफएस 42.5% से बढ़कर 2019-20 में पीएलएफएस 45.6% हो गया.