वैसे तो प्रधानमंत्री मोदी अपने फैसले से हमेशा चौंकाते रहे हैं लेकिन, शुक्रवार को देश के नाम संबोधन में पीएम का एलान कुछ ज्यादा ही चौंकाने वाला रहा. पीएम मोदी ने अचानक तीनों कृषि कानून वापस लेने का एलान कर दिया. इसकी भनक पहल से किसी को नहीं थी. कृषि कानून का विरोध कर रहे किसानों और विपक्ष को पीएम के इस फैसले ने चौंका दिया. ऐसे में अब इस बात को लेकर चर्चा हो रही है कि अचानक केंद्र सरकार ने ये फैसला क्यों ले लिया. इसके पीछे क्या कारण हैं? किन वजहों से मोदी सरकार किसानों के आगे झुक गई? तो आइये इसे समझते हैं.
डेढ़ साल से चल रहा था प्रदर्शन
सबसे पहले यह समझते हैं कि आखिर मोदी सरकार ने ये फैसला क्यों लिया. विशेषज्ञों का यह आकलन है कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है. कृषि कानून को लेकर पिछले डेढ़ साल से देश भर में प्रदर्शन हो रहे थे. चरणबद्ध तरीके से किसान आंदोलन कर रहे थे और तीनों कृषि कानून वापस लेने की मांग पर अड़े थे.
किसानों को अपनी बात नहीं समझा सकी सरकार
सरकार और किसान नेताओं के बीच कई दौर की बातचीत चली लेकिन सारी बैठक बेनतीजा रही. किसान लंबे समय तक दिल्ली में डेरा जमाए रखे. बातचीत से यह साफ था कि सरकार किसानों को अपनी बातें नहीं समझा पा रही है. सरकार जिस फायदे की बात कर रही थी, उससे किसान नाखुश थे. किसानों का साफ कहना था कि तीनों कृषि कानून उद्योगपतियों के फायदे को देखते हुए लाए गए हैं. राजनीतिक पंडितों का यह भी मानना है कि अगर चुनाव करीब नहीं होता तो मोदी सरकार ये कानून बिल्कुल वापस नहीं लेती. सरकार यह जानती है कि अगर किसानों का आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो उसे चुनाव में बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है. किसानों के आंदोलन की वजह से सरकार का ग्राफ लगातार नीचे गिर रहा था.
तीनों कानून और उसे लेकर क्यों विरोध कर रहे थे किसान
पहला कानून था-"कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य(संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020". इसको लेकर सरकार का कहना था कि वह किसानों की उपज बेचने के विकल्प को बढ़ाना चाहती है. इस कानून के जरिये किसान मंडियों के बाहर भी अपनी फसल को बेच पाएंगे. निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे.
इस कानून पर किसानों का यह पक्ष था कि सरकार इस तरह मंडी सिस्टम को खत्म करना चाहती है. मंडी खत्म हो गया तो किसानों को फसल बेचने में दिक्कत होगी. दूसरी बात किसानों की यह भी थी कि किसान अपनी फसल को मंडी में बेचने को मजबूर नहीं हैं. वह कहीं भी अपनी फसल को बेच सकता है. तो ऐसे में इस कृषि कानून की क्या जरूरत है. ऐसा कोई कानून नहीं है कि किसान मंडी में ही अपनी फसल बेचेगा. उसे जहां अच्छी कीमत मिलेगी है, वहां अपनी उपज बेच सकता है.
दूसरा कानून था- "कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020". इस कानून को लेकर सरकार का कहना था कि वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच में समझौते वाली खेती का रास्ता खोल रही है. इसे सामान्य भाषा में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते हैं. मतलब ये कि आपकी जमीन को ठेकेदार या पूंजीपति किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा. इस पर किसानों का यह विरोध था कि उनके हाथ से जमीन निकल जाएगी. जमीन को लेकर कभी विवाद हुआ और मामला कोर्ट पहुंचा तो पूंजीपति महंगे वकील को हायर कर आसानी से केस जीत जाएंगे. किसान इस कानून के लिए कतई तैयार नहीं थे.
तीसरा कानून था-"आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020". इसके मुताबिक कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं थी. सरकार को यह पता नहीं चलता कि किसके पास कितना स्टॉक है. किसानों का इस पर कहना था कि यह जमाखोरी और कालाबाजारी को बढ़ावा देगा. इससे कभी भुखमरी की समस्या पैदा हो सकती है. इससे आम लोगों को भी बहुत दिक्कत होती.
एनडीए से अलग हो गई थी 4 पार्टियां
कृषि कानून के विरोध में शिरोमणि अकाली दल समेत चार पार्टियां एनडीए से अलग हो गई थी. सबसे पहले एनडीए से अलग होने वाली पार्टी थी शिरोमणि अकाली दल. चूंकि, पंजाब में भाजपा का अपना कोई खास वजूद नहीं है तो ऐसे में अकाली दल का जाना भाजपा के लिए यह बड़ा झटका था. इसके बाद केरल कांग्रेस, राजस्थान की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, असम में यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी ने भी एनडीए का दामन छोड़ दिया था. एनडीए में शामिल कई पार्टियां इसका विरोध तो नहीं कर रही थी लेकिन समर्थन भी दबी जुबान से ही कर रही थी.