एक समय था जब भारत में लोग कृषि को घाटे का सौदा मानते थे. लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्नत कृषि तरीकों और तकनीकों ने तस्वीर को बदल दिया है. अब बहुत से अलग-अलग क्षेत्रों से लोग खेती से जुड़ रहे हैं. आज ऐसे ही एक इंसान की कहानी हम आपको बता रहे हैं. यह कहानी है दिवाकर चन्नप्पा की, जो पहले इसरो में साइंटिस्ट थे और अब खजूर की जैविक खेती कर रहे हैं.
एक किताब ने बदल दी राह
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक साल 2008 में, दिवाकर चन्नप्पा बेंगलुरु में इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के लिए एक वाटरशेड प्रोग्राम में एक प्रोजेक्ट साइंटिस्ट के रूप में काम कर रहे थे. और 2009 में, उन्होंने कर्नाटक के गौरीबिदानूर तालुका के सागनाहल्ली गांव में खजूर की खेती करना शुरू कर दिया. दरअसल, एक किताब ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. 2008 में उन्होंने मसानोबू फुकुओका (जापानी दार्शनिक और प्राकृतिक किसान) की किताब ‘वन स्ट्रॉ रिवोल्यूशन’ पढ़ी. इसने उन्हें अपनी जड़ों की ओर वापस जाने और खेती करने के लिए प्रेरित किया.
दिवाकर ने सोशल वर्क में मास्टर डिग्री पूरी की और वह कर्नाटक के तुमकुर विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी भी थे. जबकि दिवाकर के पिता एक किसान थे. लह सागनाहल्ली में अपने 7.5 एकड़ खेत में रागी, मक्का और तुअर दाल की खेती करते थे. दिवाकर अपनी मां के साथ बेंगलुरु में रहते थे. उनके पिता केमिकल उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते थे, और इस से अच्छी आय नहीं होती थी. दिवाकर कभी अपने पुश्तैनी खेत में नहीं गए क्योंकि उनके पिता कभी नहीं चाहते थे कि वह खेती करें.
विरोध के बावजूद चुनी खेती
दिवाकर के इस्तीफे का उनके माता-पिता ने कड़ा विरोध किया. लेकिन दिवाकर तय कर चुके थे और 2009 की शुरुआत में फार्म में शामिल हो गए. उनकी मां ने इसे उनके जीवन का 'सबसे मूर्खतापूर्ण निर्णय' कहा था. उन्होंने थर्टी स्टैड्स को बताया कि रसायनों का उपयोग करके रागी और तुअर की खेती शुरू की, जैसा कि उनके पिता जीवन भर करते रहे थे. पांच महीने और 25,000 रुपये खर्च करने के बाद, उन्होंने अपनी उपज से 33,000 रुपये कमाए.
सिर्फ 8,000 का मुनाफा, जो दिवाकर की सैलरी से बहुत कम था. साथ ही, उनका नाम भी खराब हो रहा था क्योंकि लोग उन पर हंस रहे थे. लेकिन दिवाकर ने हार नहीं मानी. उन्हें तमिलनाडु के एक किसान से खजूर के बारे में पता चला. 2009 में, उन्होंने अपनी बचत का उपयोग करके 3,000 रुपये प्रति पीस की दर से 150 खजूर के पौधे खरीदे और जैविक खेती करने का फैसला किया. दिवाकर ने बरही किस्म के खजूर के पौधे खरीदने के लिए 4.5 लाख रुपये का निवेश किया, जिसे उन्होंने 2.5 एकड़ में लगाया। बरही या बरही एक पीले रंग का मीठा और मलाईदार स्वाद वाला खजूर है। इसे ताज़ा खाया जाता है और यह फाइबर और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है.
मेहनत से मिली सफलता
दिवाकर का ढाई एकड़ से कुल उत्पादन 650 किलोग्राम था, जिसे 375 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा गया. दिवाकर की मुनाफे की खेती की और उन्हें सभी ने सराहा. उनके फार्म का नाम उपयुक्त रूप से मराली मन्निगे (Marali Mannige) है, जिसका कन्नड़ में अर्थ है 'मिट्टी की ओर वापस जाना.'
पिछले सीज़न में, अगस्त 2023 में, दिवाकर ने 4.2 टन (4,200 किलोग्राम) खजूर बेचे थे. आज वह अपनी एक एकड़ खजूर की खेती से लगभग छह लाख रुपए कमा रहे हैं. अब खजूर के साथ-साथ वह और भी चीजें उगा रहे हैं जिनमें जैविक रागी, तुअर दाल, मिलेट्स (फॉक्सटेल, कोदो), आम, अमरूद आदि भी शामिल हैं.