अपने अक्सर बाजार में कई प्रोडक्ट्स पर ‘Pure’, ‘Eco-Friendly’, Natural’, ‘Clean’, ‘Green’ जैसे शब्द लिखे हुए देखा होगा. इनको देखकर लोग अक्सर इन्हें इको-फ्रेंडली समझ बैठते हैं, कई बार ये झूठे या भ्रामक दावे भी होते हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. अब ऐसा लिखने से पहले कंपनियों को वैज्ञानिक प्रूफ देना होगा. केंद्र ने बुधवार को ग्रीनवॉशिंग को लेकर दिशानिर्देश जारी किए हैं.
ग्रीनवॉशिंग (Greenwashing) एक धोखाधड़ी वाली स्ट्रेटेजी है, जिसमें कंपनियां उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाती हैं कि उनका प्रोडक्ट पर्यावरण अनुकूल है यानि उनका प्रोडक्ट पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है.
ग्रीन प्रोडक्ट्स का चलन बढ़ा है
दरअसल, पिछले कुछ दशकों में, ग्रीन प्रोडक्ट्स का चलन बढ़ा है. Nielsen के एक सर्वे के अनुसार, 66% उपभोक्ता टिकाऊ ब्रांड के लिए ज्यादा पैसे देने को तैयार हैं. लोग आजकल ऐसे प्रोडक्ट्स चाहते हैं जो इको-फ्रेंडली हों, जिनसे प्रदूषण न फैलता हो या जिनसे हमें नुकसान न होता हो.
जैसे-जैसे लोग अपने द्वारा खरीदे जाने वाले प्रोडक्ट्स को लेकर ज्यादा सजग हो रहे हैं, वैसे-वैसे कंपनियां उनका फायदा उठा रही हैं. वे अपने ब्रांड के साथ “ग्रीन”, “नेचुरल” या "इको-फ्रेंडली” जैसे शब्द मार्केटिंग के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. इसका मकसद ऐसे लोगों को खरीदारी करवाना है जो पर्यावरण के प्रति जागरूक रहते हैं. ये वो लोग हैं जो इसके लिए डबल पैसे देने को भी तैयार हैं. बस कंपनी इसी का फायदा उठा रही है. यहीं पर ग्रीनवाशिंग की समस्या सामने आती है.
ग्रीनवाशिंग क्या है?
ग्रीनवाशिंग एक धोखाधड़ी भरा मार्केटिंग का तरीका है जो कंपनियां अपनाती हैं. इसमें वे अपनी एक ऐसी इमेज दिखाती हैं जो पर्यावरण को लेकर जिम्मेदार है. इसके लिए वे भ्रामक तस्वीरों से लेकर शब्दों का इस्तेमाल करती हैं. इस शब्द का जन्म 1980 के दशक के आखिर में हुआ. जब पर्यावरण को लेकर काम कर रहे लोगों ने देखा कि कंपनियां अपनी स्ट्रेटेजी बदल रही हैं. इसमें वे पर्यावरण से जुड़े शब्दों को जोड़ रही है.
जैसे-जैसे लोग पर्यावरण के प्रति ज्यादा जागरूक होते जाते हैं, वे उन प्रोडक्ट्स की तलाश करते हैं जो आगे चलकर उन्हें नुकसान न पहुंचाए. कंपनी इसी का फायदा उठती है. एक भीड़-भाड़ वाले बाजार में, एक ब्रांड खुद को दूसरों से अलग दिखाने के लिए “Green”, “नेचुरल”, “Pure” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करती है.
गाइडलाइन में क्या कहा गया है?
गाइडलाइन में कहा गया है कि कंपनी को उन डेटा और प्रोसेस की डिटेल में जानकारी देनी होगी, जिनका उपयोग प्रोडक्ट को बनाने में किया गया है. उदाहरण के लिए, अगर कोई प्रोडक्ट "बायोडिग्रेडेबल" के रूप में लेबल किया गया है, तो कंपनी को यह बताना होगा कि प्रोडक्ट किस तरह से बनाया गया है, ये कैसे डिस्पोज होगा और इसका साइंटिफिक प्रूफ भी दिखाना होगा.
दिशानिर्देशों में कहा गया है कि कंपनियों को "नेचुरल" या "ग्रीन" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए, इनसे उपभोक्ता आसानी से गुमराह हो सकते हैं.
कंपनियां अपने दावों को सपोर्ट करने वाले सर्टिफिकेट भी दिखा सकती है. साथ ही किस पहलू (प्रोडक्ट, प्रोडक्शन प्रोसेस, पैकेजिंग) का इस्तेमाल किया जा रहा है, इसकी भी जानकारी देनी होगी.
ग्रीनवाशिंग को लेकर आ चुके हैं कई बड़े मामले
ग्रीनवाशिंग को लेकर कई मामले सामने आ चुके हैं. ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) ने 2000 में खुद को "बियॉन्ड पेट्रोलियम” के रूप में रीब्रांड किया था. कंपनी का दावा था कि उन्होंने अब अपना पूरा काम ग्रीन या इको फ्रेंडली कर दिया है. लेकिन असल में ऐसा नहीं था.
ठीक ऐसे ही, 2015 में, Volkswagen को अपने डीजल व्हीकल्स में ऐसा सॉफ़्टवेयर लगाया था जो कार्बन एमिशन के रिजल्ट को बदल देता था. ये एक बहुत बड़ा स्कैंडल था, जिसके बाद कंपनी की काफी आलोचना हुई थी.
Coco-cola ने प्लास्टिक कचरे को कम करने के लिए कदम उठाया है. हालांकि, द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार कई एनवायरनमेंट एक्टिविस्ट कहते हैं कि कंपनी अब भी सिंगल यूज प्लास्टिक का प्रोडक्शन कर रही है.
कंपनी दिखाए दावों के पीछे के सबूत
हालांकि, गाइडलाइन में कहा गया है कि ये दिशा निर्देश कंपनियों को हतोत्साहित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए जारी किए गए हैं कि कंपनियां अपने दावों को लेकर पारदर्शी रहें. अगर ऐसे शब्द प्रोडक्ट पर लिखे जा रहे हैं तो उसके लिए सही डॉक्युमेंट और ठोस प्रमाण आपके पास होना चाहिए.
इन दिशानिर्देशों के माध्यम से, कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने एनवीरोंमेंट फ्रेंडली दावों का समर्थन करने के लिए पूरे सबूत दिखाएं.