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Gyanvapi Mosque Case: अयोध्या-बाबरी विवाद से ही चर्चा में है ‘द प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट', जानें कब हुआ था पारित 

कांग्रेस ने इसे अपने 1991 के घोषणापत्र में शामिल किया था. जिसके बाद इसे संसद में पेश किया गया और इसपर घंटों बहस की गई. तत्कालीन गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने बहस के दौरान कहा था कि मनुष्य और परमात्मा में कोई फर्क नहीं है. भगवान केवल मंदिर या मस्जिद में नहीं बल्कि इंसान के ह्रदय में वास करते हैं. 

Gyanvapi Mosque Case Gyanvapi Mosque Case
हाइलाइट्स
  • अयोध्या और बाबरी मस्जिद मुद्दे के समय में आया कानून 

  • संसद में की गई थी बिल पर बहस

ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद एक बार फिर से चर्चा में आ गया है. इसबार इससे जुड़ा एक कानून भी खबरों में है, ये है द प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट (स्पेशल प्रोविजन), 1991. दरअसल,   कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर सर्वे करने की इजाजत दी. इसके साथ कोर्ट ने एएसआई को मस्जिद के सर्वे का साथ वीडियोग्राफी करने के भी निर्देश दिए. द प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट, 1991 का हवाला देते हुए असदुद्दीन ओवैसी ने भी कोर्ट के इस फैसले को गलत बताया है. 

आपको बता दें, ज्ञानवापी मस्जिद सर्वे 16 मई को पूरा हुआ. मामले में हिंदू पक्ष ने दावा किया है कि सर्वे के दौरान मस्जिद परिसर में एक जलाशय के अंदर एक 'शिवलिंग' पाया गया है. हालांकि, मुस्लिम पक्ष ने इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि यह केवल एक फव्वारा है. ऐसे में मस्जिद समिति की दलील में इस कानून का जिक्र किया गया था. अब मंगलवार को हुई सुनवाई में हिंदू पक्ष ने एक बार फिर से सर्वे करवाने की मांग की है. चलिए जानते हैं कि आखिर ये एक्ट क्या है…. 

अयोध्या और बाबरी मस्जिद मुद्दे के समय में आया कानून 

आपको बता दें कि मुस्लिम पक्ष इसी कानून की दलीलें दे रहा है. इस कानून को 90 का दशक में पारित किया गया था. इसका उद्देश्य पूजा करने वाली जगहों को जबरन दूसरे स्थल में परिवर्तित करने पर रोक लगाना था. जब रामजन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था तब अयोध्या में बाबरी मस्जिद का साथ ही दूसरे मस्जिदों के परिवर्तन की भी बातें उठने लगी थीं. ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने एक इस कानून को बनाना जरूरी समझा.    

संसद में की गई थी बिल पर बहस

बता दें, इसे कानून का रूप देने के लिए खुद कांग्रेस ने इसे अपने 1991 के घोषणापत्र में शामिल किया था. जिसके बाद इसे संसद में पेश किया गया और इसपर घंटों बहस की गई. तत्कालीन गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने बहस के दौरान कहा कि अद्वैत दर्शन कहता है कि मनुष्य और परमात्मा में कोई फर्क नहीं है. भगवान केवल मंदिर या मस्जिद में नहीं बल्कि इंसान के ह्रदय में वास करते हैं. 

जब इसे पास किया गया तब कहा गया था कि हम एक तारीख तय कर देते हैं, जिसके बाद बनने वाले किसी भी धार्मिक स्थल के मूल स्वरूप को बदला नहीं जायेगा. कानून में ये तारीख 15 अगस्त 1947 तय की गयी. यानि 15 अगस्त 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को नहीं बदला जा सकेगा. 

क्या है धार्मिक स्थल?

आपको बताते चलें कि यहां धार्मिक स्थल का मतलब कोई भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ या कोई भी जन धार्मिक स्थल जो किसी धर्म या संप्रदाय का हो.

इस अधिनियम में केवल 7 धाराएं हैं. हालांकि मूल रूप से इसमें 8 धाराएं थीं, लाकिन इस आठवीं धारा को 2001 में हुए संशोधन में रद्द कर दिया गया था.

भारत का इतिहास और अप्रिय घटनाएं 

लाइव लॉ के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के बारे में कहा था कि "विधि का देश के इतिहास और भविष्य दोनों पर फर्क पड़ता है. देश के नागरिकों को अपने इतिहास को स्वीकार करने की जरूरत है, स्वतंत्रता का वो पल हमारे देश के इतिहास में एक अद्वितीय मोड़ जैसा था, जिसने हमारे पुराने सभी इतिहास के घाव भर दिए थे. अब हमें यह याद रखना जरूरी है कि ऐतिहासिक भूलों का परिहार जनता कानून को अपने हाथों में लेकर नहीं कर सकती. इतिहास और ऐतिहासिक भूलों के नाम पर किसी को भी इस देश के वर्तमान और भविष्य के साथ खिलवाड करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता. "

हम सभी जानते हैं कि भारत का इतिहास कई अप्रिय घटनाओं से भरा पड़ा है. जिसमें भेदभाव, दुराचार, अत्याचार, हत्याएं, दुश्मनी आदि शामिल हैं. लेकिन आजादी के बाद इस राष्ट्र का निर्माण समानता, पंथनिरपेक्षता, आधुनिकता और संविधानवाद जैसे सिद्धांतो पर हुआ है. ऐसे में ये कानून उन्हीं सिद्धांतों की दुहाई देने के लिए बनाया गया है. 

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