होली का नाम जब भी हमारे सामने आता है तो सबसे पहले दिमाग में रंग आते हैं. रंग और गलियों में रंगों से पुते हुए चेहरे. रंग उड़ेलते बच्चे-बड़े-बूढ़े और जोर से चिल्लाते हुए “बुरा न मानो होली है.” हालांकि, होली और रंगों के कनेक्शन के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते हैं. मान्यता है कि रंग लगाने की परंपरा भगवान कृष्ण से शुरू हुई थी.
कान्हा करते थे अपनी मां से शिकायत
जी हां, श्रीकृष्ण अक्सर अपनी मां यशोमति से शिकायत करते थे कि राधा गोरी क्यों है और वे खुद काले क्यों? ऐसे में उनकी मां अक्सर हंसकर बात को टाल देती थीं. एक दिन ऐसे ही जब कान्हा अपनी मैय्या से जिद करने लगे तो यशोमति मां ने उन्हें सुझाव दिया कि वे राधा के चेहरे पर रंग लगा देंगे तो राधा का रंग भी कान्हा जैसा हो जाएगा. इस सुझाव को सुनकर भगवान कृष्ण ने राधा को रंग लगा दिया. और कहते हैं तभी से होली पर रंग लगाने की परंपरा शुरू हो गई.
कैसे बनते हैं ये रंग
लेकिन अब लोग रंग लगाने और लगवाने से बचने लगे हैं. इसके पीछे की वजह है उनका बनना. दरअसल, होली के रंग अब शुद्ध नहीं रह गए हैं. उनमें केमिकल की मिलावट शुरू हो गई है. अध्ययनों से पता चलता है कि होली के रंगों में पीएम 10 होता है जो हमारे श्वसन तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है. सूखा रंग, या जिसे आमतौर पर गुलाल के रूप में जाना जाता है, आमतौर पर इसे कॉर्नस्टार्च का उपयोग करके बनाया जाता था. लेकिन अब इसमें भी केमिकल्स का इस्तेमाल होने लगा है. बाजार में मिलने वाले केमिकल वाले होली रंगों में PM10 होता है जो हमारे अंदर श्वसन से जुड़ी दिक्कत पैदा कर सकता है.
कौन सा रंग किससे बनता है?
हरा रंग कॉपर सल्फेट से आता है, जो एक सामान्य एग्रीकल्चर पाइजन यानि कृषि के लिए जहर कहा जाता है. वहीं बैंगनी रंग क्रोमियम और ब्रोमाइड कंपाउंड से बनता है, जो दोनों कार्सिनोजेनिक हैं. लाल रंग मर्करी सल्फाइट से प्राप्त होता है, जो स्किन के कैंसर का कारण बनता है और काला लेड ऑक्साइड से होता है. बता दें, हम जिन चमकदार रंगों का उपयोग करते हैं, वे पाउडर ग्लास से निर्मित होते हैं. कई पाउडर एस्बेस्टस, तालक, चाक या सिलिका को आधार के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं, जो सभी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं. इन सभी में एस्बेस्टस होता है जो विशेष रूप से कार्सिनोजेनिक है.