हाल ही में, Instagram पर दो लाइनें पढ़ीं- "दर्जी अब सलवारों में जेब लगाने लगे हैं... औरतों को यहां तक आने में जमाने लगे हैं." ये पंक्तियां आज की बेटियों और महिलाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं. और इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं को इस मुकाम पर पहुंचाने का श्रेय हर इस बेटी, लड़की और महिला को जाता है जिसने पुरुष प्रधान सोच से सालों तक लड़ाई लड़ी और हर क्षेत्र में लड़कियों को उनके हिस्से की जगह दिलवाई.
यह उन चंद महिलाओं के कारण ही है कि आज लगभग हर क्षेत्र में महिलाओं का बोलबाला है. जिन कामों को कभी सिर्फ पुरुष-प्रधान समझा जाता था, आज उन कामों में भी महिलाओं क भागीदारी न सिर्फ दिख रही है बल्कि सराही भी जा रही है. आज ऐसी ही एक नारी शक्ति के बारे में हम आपको बता रहे हैं जिन्होंने रूढ़ियों को तोड़कर एक अलग पहचान बनाई है.
यह कहानी है पारबती बरुआ की, जो देश की पहली महिला महावत हैं. हम सब जानते हैं कि हाथी को हांकने वाले या उनकी देख-रेख करने वाले इंसान को महावत कहा जाता है. ज्यादातर यह काम पुरुष करते हैं क्योंकि हाथी जैसे बड़े जानवर को संभालना बिल्कुल भी आसान नहीं है. लेकिन पार्बती ने यह साबित किया है कि इस काम भी महिलाएं किसी से कम नहीं हैं. उनके काम के लिए उन्हें साल 2024 में पद्मश्री से नवाजा गया.
हस्ती कन्या के नाम से हैं मशहूर
67 साल की पारबती को हस्ती कन्या के नाम से भी जाना जाता है. वह असम के गौरीपुर के रहने वाली हैं. उनके लिए हाथी कोई नई बात नहीं है. असमिया जमींदार परिवार में जन्मीं पारबती का हाथियों से बचपन से नाता रहा है. बचपन से वह हाथियों के साथ खेलते हुए बड़ी हुईं. उनके पिता, प्रकृतिश बरुआ एक हाथी विशेषज्ञ रहे हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता है.
बहुत पहले उनका परिवार हाथियों को पकड़ता और बेचता था. लेकिन फिर सरकार ने इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. ऐसा कहा जाता है कि उनके परिवार के कुछ ग्राहकों में भूटान, कूच बिहार और जयपुर के शाही परिवार शामिल थे.
14 साल की उम्र में पकड़ा हाथी
मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो 14 साल की उम्र में, पारबती ने कोकराझार जिले के कचुगांव जंगलों में पहली बार हाथी पकड़ा था. जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने यह काम कैसे पूरा किया तो उन्होंने कहा था कि हाथी को पकड़ना ताकत की बात नहीं है. यह सब दिमाग और कुछ हद तक भाग्य पर निर्भर करता है. इस घटना के बाद उन्हें लगा कि वह महावत बन सकती हैं. उन्होंने रूढ़िवादिता को तोड़कर साल 1972 में अपने इस सपने को पूरा किया. तब से, उन्होंने हाथी संरक्षण की दिशा में कई कार्य किए हैं.
पारबती का दिन शुरू भी हाथियों के साथ होता है और खत्म भी हाथियों को नहलाने, जंगलों में घुमाने और उन्हें प्रशिक्षण देने में समय बिताती हैं. वह उनके लिए चावल से हड़िया तैयार करती हैं, क्योंकि वे शराब के बहुत शौकीन हैं. और हाथियों के प्रति उनका प्रेम अद्वितीय है. 1970 के दशक में, उन्होंने एक बैंक कर्मचारी, पुलिन दास से शादी की. लेकिन वह उनके साथ ज्यादा समय तक नहीं रहीं. क्योंकि पुलिन को हाथियों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी और पारबती हाथियों से अलग नहीं हो सकती थी.
किए हैं कई कारनामें
बतौर महावत पारबती के कई ऐसे अनुभव हुए हैं जिनसे प्रेरित होकर उन्होंने मानव-हाथी संघर्ष को कम करने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया है. उन्होंने जंगली हाथियों से निपटने और उन्हें पकड़ने में तीन राज्य सरकारों की भी मदद की है. एक बार वह पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले भी गई जहां 50 से अधिक हाथियों का एक झुंड अपना रास्ता भटक गया था. जब राज्य अधिकारी उन्हें पकड़ने में असमर्थ रहे, तो उन्होंने पारबती बरुआ को बुलाया.
अपने चार हाथियों और अन्य महावतों और चारा इकट्ठा करने वालों की टीम के साथ, पारबती ने हाथियों के झुंड को ढूंढा और हाथी अपने सामान्य प्रवासी पथ पर वापस आ गए. उनका कहना रहा है, "मेरा काम मनुष्य को हाथियों से बचाना है, और हाथियों को मनुष्य से सुरक्षित रखना है. हाथी केवल शांति और सुरक्षा चाहता है.”
आज भी हैं हाथी की साथी
अब पारबती जलपाईगुड़ी में रहती हैं और उनका जीवन आधुनिक सुविधाओं से वंचित है. वह एक सादे तंबू में, गद्दे पर सोती हैं. बरुआ को जानने वाले लोग कहते हैं कि जब भी जंगली हाथी किसी चाय बागान में घुस जाते हैं या पागल हो जाते हैं, तो उन्हें मारने से पहले पारबती को बुलाया जाता है क्योंकि वह ही उन्हें वापिस ला पाती हैं.