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Vande Bharat Train Exclusive: स्पेन की टैल्गो लाने की हो रही थी बात, लेकिन भारतीय रेलवे ने आधी कीमत में बना दी Train-18, वंदे भारत के जनक सुधांशु मणि ने बताई इनसाइड स्टोरी

Making of Vande Bharat Express: वंदे भारत ट्रेन को बनाने के पीछे की अपनी कहानी है. कुल 18 महीने के भीतर तैयार हुई इस ट्रेन के जनक सुधांशु मणि को कहा जाता है. 2016 में चेन्नई की इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) में इसे बनाया गया था. सुधांशु मणि के नेतृत्व में कुल आधे समय में इस ट्रेन की डिजाइनिंग से लेकर इंजीनियरिंग, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस रोल-आउट का काम पूरा कर लिया गया था. वो भी महज 100 करोड़ से भी कम लागत में.

Vande Bharat Train Vande Bharat Train
हाइलाइट्स
  • टैल्गो ट्रेन से आधी कीमत में बना दी वंदे भारत 

  • अपनी आखिरी पोस्टिंग के वक्त दिया देश को तोहफा 

अपने कंधे पर ढेर सारा सामान लिए कुली, ट्रेन के लिए तेजी से दौड़ते हुए लोग, बगल से गुजरते हुए चाय-चिप्स बेचने वाले और ट्रैक पर दौड़ रही लोकोमोटिव ट्रेन… जब भी भारतीय रेलवे का नाम सुनते हैं तो कुछ ऐसा ही नजारा हमारे जेहन में आ जाता है. पिछले 100 साल से भी ज्यादा समय से ये नजारा ऐसा ही था. लेकिन धीरे-धीरे रेलवे की तस्वीर बदली और लोकोमोटिव ट्रेन के साथ ट्रैक पर एडवांस मॉडल वाली वंदे भारत (Train 18) ट्रेनें भी दिखने लगीं. फरवरी 2019 में लॉन्च हुई वंदे भारत ट्रेन की संख्या आज बढ़कर 14 हो गई हैं. 12 अप्रैल तक की बात करें तो देश को 14वीं वंदे भारत ट्रेन की सौगात पीएम मोदी ने दे दी है. हालांकि, वंदे भारत ट्रेन को बनाने के पीछे की अपनी कहानी है. कुल 18 महीने के भीतर तैयार हुई इस ट्रेन के जनक सुधांशु मणि को कहा जाता है. 2016 में चेन्नई  की इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) में इसे बनाया गया था. सुधांशु मणि के नेतृत्व में कुल आधे समय में इस ट्रेन की डिजाइनिंग से लेकर इंजीनियरिंग, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस रोल-आउट का काम पूरा कर लिया गया था. वो भी महज 100 करोड़ से भी कम लागत के साथ. 

अपनी आखिरी पोस्टिंग के वक्त दिया देश को तोहफा 

सुधांशु मणि की आखिरी पोस्टिंग 2016 में इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में हुई जहां उन्होंने जनरल मैनेजर नियुक्त किया गया था. वहीं रहकर उन्होंने अपनी टीम के साथ टी-18 बनाई. इस ट्रेन की सबसे खास बात है कि इसकी टेक्नोलॉजी भी स्वदेशी है. सुधांशु मणि ने GNT डिजिटल से बात करते हुए बताया कि ऐसी ट्रेन बनाने का उनका सालों से सपना था जो उनकी आखिरी पोस्टिंग में पूरा हो पाया. इसे लेकर वे कहते हैं, “पिछले 70 सालों में भारतीय रेलवे की ट्रेनों में कोई तब्दीली नहीं आई है. ट्रेन की इमेज लोकोमोटिव खींचती हुई ही दिखाई देगी. चूंकि मैं एक रेलवे फैमिली से ही ताल्लुक रखता हूं तो 60 से 70 के दशक में हमेशा मन में आया करता था कि आखिर हमारे यहां जापान जैसी ट्रेनें क्यों नहीं है. मेरा सपना तभी से था कि हमारे भी देश में कभी ऐसी ही ट्रेनें चलेंगी. जब रेलवे में नौकरी लगी तो तब भी ये सपना ही था. 2016 में जब इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में मेरी पोस्टिंग जनरल मैनेजर के रूप में हुई उससे करीब 25 साल पहले से ही बात हो रही थी कि कोई मॉडर्न ट्रेन इम्पोर्ट होनी चाहिए या बननी चाहिए. लेकिन वो केवल विचारों में बातचीत में था, कभी हो नहीं पाया. तब देखते हुए लगा कि इस सपने को हकीकत में बदला जाए. फिर जब मौका मिला और अच्छी टीम मिली तो ये सपना पूरा हो पाया और भारत को वंदे भारत ट्रेन मिली.”

(फोटो क्रेडिट- सुधांशु मणि)
(फोटो क्रेडिट- सुधांशु मणि)

क्या सच में पकड़े थे पोस्टिंग के लिए पैर?

आखिरी पोस्टिंग मिली थी या मांगी थी इसपर सुधांशु मणि कहते हैं, “सोशल मीडिया पर इसको लेकर कई बातें वायरल हो रही हैं, लेकिन ऐसा असल में नहीं था. अपनी इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में अगर आखिरी पोस्टिंग की बात करूं तो तब ये देखा जाता है कि कौन सी जगह या विभाग रेलवे में खाली है. उस वक्त कुछ पोजीशन जोनल रेलवे में भी खाली थी लेकिन चूंकि मेरा मन था कि मैं वंदे भारत या ऐसी ट्रेन को लेकर काम करूं, और इंटीग्रल कोच फैक्टरी खाली थी तो मैंने रिक्वेस्ट की कि मुझे वो जगह दे दें. मेरे मन में था कि अगर इतनी अच्छी जगह और रिसोर्सेस वाली मिल जाए तो कुछ नया किया जा सकता है और इसलिए 2016 में मैंने इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में पोस्टिंग ले ली.” 

टैल्गो ट्रेन से आधी कीमत में बना दी वंदे भारत 

दरअसल, 2015-16 में भारत में स्पेनिश ट्रेन टैल्गो (Spanish Talgo Train) का ट्रायल हुआ था. जिसके 10 से 12 डब्बों की कीमत करीब 200 करोड़ पड़ रही थी. भारत में इस ट्रेन को लाने की बात हो रही थी. लेकिन उस दौरान ही 2016 में वंदे भारत का आईडिया पिच किया गया और देश को टैल्गो ट्रेन से भी आधी कीमत में अपनी खुद की स्वदेशी ट्रेन 18 मिली. इस वाकया के बारे में बताते हुए सुधांशु कहते हैं, “दुनिया में अधिकतर विकसित देशों में रेलवे का ब्रॉड गेज (Broad Gauge Railway) 1676 मिलीमीटर का गेज होता है. इसके जितना गेज केवल स्पेन-पुर्तगाल में है, वो 1668 मिलीमीटर होता है. 2015-16 में इसी को देखते हुए टैल्गो ने भारत को अपने ट्रेन कोच ऑफर किए थे. उसका ट्रायल भी हुआ लेकिन गड़बड़ यहां हुई कि उसका हाइप बहुत ज्यादा हो गया. दुर्भाग्य की बात थी कि हमें ये नहीं पता था कि इसको खरीदें कैसे? और तब रेलवे बोर्ड समझ ही नहीं पाया कि इसको किस तरह से खरीदें. तब भारतीय रेलवे ने सोचा कि हम अपने आप अपनी तकनीक से खुद एडवांस कोच बनाएंगे. हमने उस वक्त केवल 2 ट्रेन का ही सैंक्शन (Sanctions) मांगा था. साथ में मैंने कहा कि आप जितने में भी कोई नई एडवांस ट्रेन बाहर के देश से इम्पोर्ट करके लाएंगे हम उससे एक तिहाई या आधी कीमत पर इसे बनाएंगे. क्योंकि हमने सबकुछ भारत में बनाया था इसलिए हमने कम दाम में ये ट्रेन बन गई. हमारा अनुमान 100 करोड़ का था लेकिन हमने इसे 98 करोड़ में तैयार कर लिया था.” 

क्यों बनाया गया ट्रेन के आगे का हिस्सा ऐसा? 

हालांकि, ट्रेन के शुरू होने के बाद समय-समय पर अपने दुर्घटनाग्रस्त होने की वजह से भी ये काफी चर्चा में आई है. लेकिन सुधांशु मणि का कहना है कि ट्रेन 18 को इसी तरह बनाया गया है. इसका दुर्घटनाग्रस्त होना नॉर्मल है. वे कहते हैं, “ये काफी दुख की बात है कि इसको एक राजनीतिक एंगल दे दिया गया. तब मैंने एक ब्लॉग भी लिखा था जिसका टाइटल मैंने 'ट्रेन बड़ी या भैंस' दिया था. 160 किलोमीटर पर चलाने के लिए ये ट्रेन डिज़ाइन की गई थी और 180 पाए ये टेस्ट होगी. 160 का ट्रैक हमारे पास बहुत कम है. इसमें से एक दिल्ली से आगरा का है. हमलोग भविष्य के लिए तैयार एक ट्रेन बनाना चाहते थे. ट्रेन को इतनी स्पीड से चलाने के लिए जरूरी होता है कि रेलवे ट्रैक पर फेंसिंग रहे. ये नियम होता है इसके बगैर रेलवे कमिश्नर आपको ट्रेन चलाने की अनुमति नहीं देंगे. तब हम ये मानकर चल रहे थे कि ऐसा होगा.. लेकिन हमें नहीं पता था कि इतनी जल्दी ये फेंसिंग नहीं होगी. इसलिए ये ट्रेन बिना फेंसिंग वाली ट्रैक पर 130 की स्पीड से चलेगी या और कम.”

दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद
दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद

इसी पर बात करते हुए सुधांशु मणि ने आगे बताया, “आमतौर पर भारतीय ट्रेनों में लोकोमोटिव के आगे एक स्ट्रक्चर होता है जिसे Cow Catcher कहा जाता है. जिससे कोई भी मवेशी आगे सामने आता है तो इससे ज्यादा नुकसान नहीं होता है ट्रेन को और अगर होता भी है तो हल्का-फुल्का होता है. लेकिन वंदे भारत ट्रेन की स्पीड ज्यादा होनी थी इसलिए इसकी एयरोडायनामिक प्रोफाइलिंग करनी थी ताकि हवा का रेसिस्टेंट कम से कम हो. इसलिए वो कैचर नहीं लगा सकते थे. तब भी हमने सोचा कि आगे कुछ ऐसा होता है तो इसका फ्रंट यानी आगे का ये हिस्सा ही डैमेज होगा पीछे के स्ट्रक्चर पर कुछ नहीं होगा, न ही ड्राइवर या यात्रियों की सुरक्षा पर इससे कोई असर पड़ेगा. इसे भी रिप्लेस भी किया जा सकेगा आसानी से. हर रोज 20-25 केस भारतीय रेलवे पर गाय-भैंस या किस भी मवेशी के कटने के होते हैं. लेकिन वो कभी खबरों में नहीं आते हैं क्योंकि उनका पता नहीं चलता है और ट्रेन की शक्ल पर कोई ऐसे नहीं पड़ता है. वंदे भारत में चूंकि डैमेज सामने दिख रहा था तो इसपर जमकर खबरें बनी. अब कोशिश है कि जितनी जल्दी फेंसिंग हो सके वो बेहतर है.”

टीम को नहीं मिला इतना सम्मान

हालांकि, वंदे भारत ट्रेन को बनाने के पीछे सुधांशु मणि के साथ एक पूरी टीम ने काम किया है. लेकिन उनका मानना है कि इस टीम को इतना सम्मान नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था. फैज अहमद फैज की शायरी ‘नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजु ही सही, नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही’ पढ़ते हुए सुधांशु कहते हैं कि ये केवल आरजू ही नहीं थी. कोच फैक्ट्री में पहुचकर मुझे पता लगा कि इस टीम में मुझसे भी ज्यादा जज्बा था. अगर आज भी मुझसे कोई कहे कि आप अपनी कोर टीम में से किसी को बदलना चाहेंगे तो मैं एक को भी नहीं बदलना चाहूंगा. डिजाइन से लेकर इंजीनियर, एकाउंट आदि सब में ये टीम परफेक्ट थी. ऐसी टीम मिलने के बाद भी अगर आप ऐसा काम न कर पाएं तो ये आपकी कमी कहलाएगी. हालांकि कई कारणों से मैं एक लीडर के तौर पर तो लाइमलाइट में आया लेकिन मेरी कोर टीम कहीं न कहीं गायब हो गए. कुछ पेपर्स में उनका जिक्र हुआ भी लेकिन कितना सम्मान उन्हें मिलना चाहिए था शायद वो नहीं मिल पाया. इसी को देखते हुए मैंने Train-18 किताब लिखी. जिसमें मैंने उन सभी का जिक्र किया है जिन्होंने इस वंदे भारत को बनाने में साथ दिया या जो इस पूरे सफर में मेरे साथ रहे.

वंदे भारत
वंदे भारत

क्या बदलाव होने चाहिए भारतीय रेलवे में?

भारतीय रेलवे और इसमें बदलाव को लेकर सुधांशु कहते हैं कि वंदे भारत के आ जाने से आने वाले सालों में भारतीय रेलवे की पूरी शक्ल बदलने वाली है. हालांकि इसका किराया अभी भी थोड़ा ज्यादा है. आम आदमी जब ट्रेन में ट्रेवल करता है तो वो बहुत सम्मान और डिग्निटी के साथ यात्रा नहीं करता है. हमें ये नहीं सोचना है कि ये गरीब आदमी है और किराया नहीं देता है तो इसे सम्मान के साथ यात्रा करने का हक नहीं है. ये किसी विकसित देश की निशानी नहीं होती है. ये भारतीय रेल की जिम्मेदारी है कि वंदे भारत और शताब्दी जिस ट्रेनों से पैसा कमाकर भारतीय रेलवे में सब्सिडी के साथ लोगों को इज्जत के साथ यात्रा करवाएं. 

सुधांशु आगे कहते हैं, “फ्रेट ट्रेन या जिसे हम माल गाड़ी भी कहते हैं उसमें काम करने की जरूरत है. उससे रेवेनुए भी ज्यादा मिलेगा. हमें 5-स्टार स्टेशन बनाने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए, हमें केवल फंक्शनल स्टेशन चाहिए, हां बेशक साफ-सुथरे होने चाहिए. एक समाज की पहचान उसके लोगों की गरिमा और आत्मसम्मान से होती है. इसके अलावा, पोर्टर को या जो हमारे ही देशवासी हैं उन्हें कुली बोलते हैं, जो हमें अंग्रेजों ने सिखाया. उनके बोझ को कम करने की जरूरत है. इसके अलावा ढेर सारा सामान एक रेढे पर ले जा रहे लोग और रेलवे में साफ सफाई कर रहे सफाईकर्मी के हालातों में सुधार लाने की जरूरत है. ये तीन जगह हैं जहां रेलवे को काम करने की जरूरत है.”