भारत की आबादी में लगभग सौ मिलियन आदिवासी शामिल हैं. इन लोगों की अपनी एक अनूठी जीवन शैली और रीति-रिवाजों के साथ समृद्ध परंपराएं, संस्कृतियां और विरासत है, जो इनकी असल पहचान है. लेकिन कई बार ये पहचान ही इन्हें आम जन से अलग बना देती है, जिसकी बदौलत इनको कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ट्राइफेड के मैनेजिंग डायरेक्टर प्रवीर कृष्ण करीब 15-20 सालों से आदिवासियों के बीच काम कर रहे हैं. उन्होंने अंबिकापुर, बस्तर जैसी जगहों पर काम किया है और अपने अनुभवों को किताब की शक्ल दी है. प्रवीर कृष्ण ने ‘ट्रिस्ट विद द ट्राइब्स’ (Tryst With The Tribes) नाम से किताब लिखी है. ये एक क्रॉनिकल है, जिसमें प्रवीर कृष्ण की 12 साल तक की आदिवासी इलाकों की यात्रा है. इसी किताब में क्या कुछ है और प्रवीर ने आदिवासियों के बीच रहकर कैसे काम किया, ये सबकुछ उन्होंने GNT की टीम से बातचीत में बताया.
प्रवीर कृष्ण बताते हैं कि बस्तर में जब वे कलेक्टर थे तब उन्होंने बहुत सारी चीजों को डॉक्यूमेंट किया था. उसमें दिन प्रतिदिन की जो घटनाएं होती थी, वे सब उनमें लिखा करते थे. ऐसे ही एक दिन वे हाट बाजार में गए, जहां आदिवासी अपना सामान बेचने के लिए लेकर आये थे. वो हैरान रह गए कि जो चिरौंजी 1000-1200 रुपये प्रति किलो के भाव से बिकती है, उसके बदले में आदिवासी 5 रुपये में बिकने वाला नमक ले रहे थे, क्योंकि उनको अपने सामान की असल कीमत पता नहीं थी. ये बात उन्हें बेहद अजीब लगी और उन्होंने इसके लिए काम करने का सोचा.
बिचौलियों के चंगुल में फंस जाते हैं आदिवासी
दरअसल, आदिवासियों की मार्केटिंग एबिलिटी बेहद कम होती है. गांवों और अपने इलाकों से बाहर न जाने के कारण वे बिचौलियों के चंगुल में फंस जाते हैं और उनका शोषण होता है.
आदिवासी लगभग 50,000 तरीकों की चीजें बनाते हैं, इसमें लकड़ी, मेटल, डोंगरा, ज्वैलरी, पेंटिंग, टेक्सटाइल्स, वुलेन, जंगल से उत्पादित होने वाले सामान समेत कई तरह की चीजें बनाते हैं. ये जंगलों से उत्पादित होती हैं. चूंकि उनकी मार्केटिंग अच्छी नहीं होती हैं इसलिए बिचौलियों के चंगुल में फंस जाते हैं, ऐसे में क्या किया जाए कि उनके सामान को बाजार तक लाया जाये और उन्हें इसका सीधा लाभ हो. इस पूरी किताब में वन के धन को आदिवासी के हित में किस तरह से टर्न किया जाए, बताया गया है.
जब इमली आंदोलन से 10 गुनी हुई आदिवासियों की आय....
दरअलस, प्रवीर कृष्ण को ख्याति तब मिली जब 1997-1998 में इमली आंदोलन शुरू हुआ. ये आंदोलन बस्तर से शुरू हुआ था, वहां उस वक्त 280 हाट बाजार थे, जहां आदिवासी अपना सामान लेकर बेचते थे, लेकिन इन हाट बाजारों में कोई रेगुलेशन नहीं था. इसलिए वहां कम कीमतों में आदिवासियों की सामग्री खरीदने के लिए बिचौलियों की एक प्रणाली थी, जहां आदिवासियों को उनके सामान का कम दाम मिलता था.
प्रवीर ने GNT से बातचीत में बताया कि "ये एक तरह से लूट की व्यवस्था थी. उस समय हमने वहां इमली और अन्य सामानों के लिए एक न्यूनतम दाम निर्धारित किया. उस वक्त जो इमली 2 रुपये में बिकती थी, उसका मूल्य 6.5 रुपये निर्धारित किया. जिसके बाद हमने आदिवासियों की 2400 क्रय समितियां बनाई और करीब 100 करोड़ रुपये की इमली इन 2400 समितियों के माध्यम से खरीदी. इससे ये फायदा हुआ कि आदिवासियों को जो इमली 50 पैसे प्रति किलो के हिसाब से मिल रही थी, उसके बदले उन्हें साढ़े 6 रुपये मिलने लगी. इससे उनकी आय लगभग 10 गुना बढ़ गई.
24 अधिकारियों का ट्रांसफर और रातों-रात मिला कलेक्टर का प्रभार
दरअसल, 1994 में मध्य प्रदेश में अम्बिकापुर के सरगुजा जिले से ऐसी सूचना आयी कि 8 महीने से लोगों में राशन वितरण नहीं हुआ है, जब पता लगाया गया तो सामने आया कि वहां के राशन दुकानदारों ने गलत वितरण बताकर सारी सामग्री अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर ली. तब वहां के 24 अधिकारियों का एक साथ ट्रांसफर कर दिया गया और रातों-रात प्रवीर कृष्ण को कलेक्टर के रूप में ज्वॉइनिंग का आदेश दिया गया.
वे बताते हैं कि "तभी से मेरा लगाव आदिवासियों से हो गया, ये जो मेरी आदिवासियों के साथ लव-स्टोरी थी, ये तभी से शुरू हो गयी. ऐसे में बहुत सारे चैलेंज आये. लेकिन हम काम करते चले गए. इस प्यारी सी लव-स्टोरी के कई किस्से हैं. 4 साल अम्बिकापुर और 4 साल बस्तर, इसके बाद तीसरा मौका मुझे तब मिला, जब ट्राइफेड का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. मुझे इस दौरान देश के 309 जिलों में काम करने का मौका मिला. इन जिलों में करीब 6 करोड़ आदिवासी रहते हैं."
देश में शुरू किए गए हैं 50 हजार ट्राइबल स्टार्टअप
प्रवीर बताते हैं कि अभी तक देश में 50,000 ट्राइबल स्टार्टअप स्थापित किये गए हैं, जिन्हें शुरुआती 25-25 लाख की रकम से शुरू किया गया है. वे कहते हैं, "जंगलों में सैंकड़ों आदिवासी रहते हैं, जो अपनी कलाओं में निपुण हैं, अगर हम इन्हें उनकी ही कलाओं में आगे बढ़ाएंगे, तो वे तरक्की करेंगे. देश में अभी 50,000 ट्राइबल स्टार्टअप स्थापित किये गए हैं. इनमें आदिवासियों द्वारा बनाए गए सामानों की पैकेजिंग, मार्केटिंग होती है. किताब बताया गया है कि ट्राइबल डेवलपमेंट केवल स्कूल, रोड, अस्पताल बनाने से नहीं, बल्कि उनके आय के साधनों और उनके रहन-सहन को बढ़ाने से होगा."
उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र की एक क्रय समिति ने हाल ही में डेढ़ करोड़ की गिलोय बेची है. 2 साल पहले जंगलों में जो लकड़ी तोड़ते थे, उन 300 लोगों ने ये करोड़ों की गिलोय बेची है. छत्तीसगढ़ में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्होंने इमली, मऊउआ, टोरा, खोसा और रेशम का काम करके 50-50 लाख तक का व्यवसाय किया है. इसके बारे में किताब में बताया गया है.
भविष्य में किन प्रोजेक्ट्स पर होगा काम?
प्रवीर कृष्ण बताते हैं कि आने वाले समय में वे ट्राइफूड के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. इसमें बस्तर में एक बहुत बड़े फूड पार्क का निर्माण हो रहा है. इसके अलावा लगभग 20 करोड़ की ट्राइबल प्रोडक्ट की इंडस्ट्री लग रही है, जिसकी उत्पादन क्षमता 100 टन प्रतिदिन होगी. साथ ही, जो हैंडलूम के सामान आदिवासी बनाते हैं, उसकी मार्केटिंग और प्रमोशन भी किया जा रहा है. उन्होंने हमें बताया कि नार्थ-ईस्ट में एक स्पेशल मार्केटिंग प्रोजेक्ट के तहत 1 हजार सिल्क उत्पादकों को एक साथ मिलाकर देश और विदेश में उनके सामानों को बेचने पर भी काम चल रहा है.
आपको बता दें, आदिवासियों को जंगलों के ओनर राइट्स मिले हुए हैं. ऐसे में इन्हें एंटरप्राइज से जोड़ने की जरूरत है, तभी जाकर इनकी आय में वृद्धि होगी.