

मद्रास हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है. इसमें यह कहा गया कि किसी व्यक्ति के जीवनसाथी को बिना उनकी सहमति के धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करना या धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करना मानसिक क्रूरता और हिंसा के बराबर है. इस निर्णय ने न केवल विवाह से संबंधित अधिकारों को साफ कर दिया है, बल्कि यह भी सवाल उठाया कि क्या किसी व्यक्ति को अपने जीवनसाथी के धर्म के अनुसार धर्म परिवर्तन करना अनिवार्य है? और अगर नहीं तो उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.
कोर्ट का आदेश
मद्रास हाई कोर्ट की एक बेंच ने इस बात का निर्णय लिया कि अगर किसी व्यक्ति को अपने जीवनसाथी को किसी अन्य धर्म में धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, खासकर उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का. कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर यह धर्म परिवर्तन बिना किसी सहमति के होता है, तो यह मानसिक हिंसा और क्रूरता के श्रेणी में आता है.
यह निर्णय उस मामले के संदर्भ में था, जिसमें एक मुस्लिम पति ने अपनी हिंदू पत्नी को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया था. पत्नी ने कोर्ट में यह आरोप लगाया था कि उसके पति ने उसे इस्लाम धर्म अपनाने के लिए बार-बार दबाव डाला, जिससे उसका मानसिक उत्पीड़न हुआ और उसकी निजी आस्था का उल्लंघन हुआ.
क्या था पूरा मामला?
यह मामला एक विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (Special Marriage Act) के तहत शादी किए गए हिंदू महिला और मुस्लिम पुरुष से संबंधित था. पत्नी ने आरोप लगाया कि पति ने न केवल उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया, बल्कि उसके धर्म और जाति पर ताने भी मारे. उसने यह भी दावा किया कि पति ने उसे इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया, और जब उसने ऐसा नहीं किया तो वह घर छोड़कर अपनी बहन के घर रहने चला गया.
कोर्ट ने इस बात को जरूरी माना कि इस प्रकार के दबाव ने पत्नी को मानसिक रूप से तोड़ दिया और उसकी आस्थाओं और विश्वासों को हानि पहुंचाई. कोर्ट ने यह माना कि एक व्यक्ति को अपनी आस्था और विश्वास के अनुसार जीवन जीने का पूरा अधिकार है, और इस अधिकार का उल्लंघन करना क्रूरता की श्रेणी में आता है.
धर्म परिवर्तन और विवाह
इस निर्णय ने यह सवाल उठाया कि क्या विवाह में एक धर्म के व्यक्ति को दूसरे धर्म में धर्म परिवर्तन करना अनिवार्य है. क्या यह एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है? क्या धर्म परिवर्तन न करने पर किसी व्यक्ति को कोई सजा या कठिनाई का सामना करना पड़ता है? इस मामले में कोर्ट ने यह साफ कहा कि धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डालना किसी भी स्थिति में सही नहीं है और यह केवल मानसिक और भावनात्मक अत्याचार का कारण बनता है.
क्या कहता है संविधान?
भारत का संविधान धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. अनुच्छेद 25 के तहत प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने, उसे बदलने और प्रचार करने का अधिकार है. इस अधिकार का उल्लंघन करना न केवल एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है, बल्कि यह समाज में असहमति और वैमनस्य को बढ़ावा देता है. कोर्ट ने यह माना कि किसी भी व्यक्ति को अपनी आस्था और विश्वास बदलने के लिए दबाव डालना, चाहे वह विवाह के कारण हो या किसी अन्य कारण से, संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का उल्लंघन है.
क्या धर्म परिवर्तन विवाह के लिए आवश्यक है?
बहुत से लोग यह मानते हैं कि अगर वे एक अंतरधार्मिक विवाह (Interfaith Marriage) करते हैं, तो उन्हें अपने पार्टनर के धर्म को अपनाना पड़ता है. हालांकि, यह विचार पूरी तरह से सही नहीं है. भारत में Interfaith Marriage को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अनुमति दी गई है, जो यह सुनिश्चित करता है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी आस्थाओं के साथ शादी कर सकते हैं, बिना किसी को मजबूर किए. इस प्रकार के विवाह में धर्म परिवर्तन को किसी भी तरह से अनिवार्य नहीं किया जा सकता है.
अगर एक व्यक्ति अपनी आस्था और विश्वास के अनुरूप धर्म परिवर्तन नहीं करता है, तो उसे इसके लिए कोई विशेष सजा नहीं दी जा सकती. ऐसे मामलों में जहां एक पक्ष दूसरे पक्ष को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करता है, यह मानसिक क्रूरता और हिंसा के रूप में देखा जाता है.
क्या धर्म परिवर्तन न करने के कारण कोई नुकसान होता है?
हालांकि, धर्म परिवर्तन न करने पर कुछ सामाजिक और पारिवारिक दबाव पैदा हो सकते हैं, लेकिन कानून के अनुसार किसी व्यक्ति को अपने धर्म को बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. एक व्यक्ति का व्यक्तिगत विश्वास और धर्म उनके लिए सर्वोपरि है. हालांकि, यह भी सच है कि कुछ समुदायों में Interfaith Marriage के कारण सामाजिक दबाव और परिवार से दूरियां आ सकती हैं.
इसलिए यह कहना कि धर्म परिवर्तन न करने पर व्यक्ति को कोई आधिकारिक नुकसान उठाना पड़ेगा, गलत है. अगर कोई अपने व्यक्तिगत विचार और विश्वासों को बनाए रखने का निर्णय लेता है, तो उसे इसके लिए किसी तरह की सजा नहीं दी जा सकती. भारतीय संविधान हर नागरिक को अपने धर्म को चुनने और उसे पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, और यह अधिकार किसी भी परिस्थिति में छीना नहीं जा सकता है.
मद्रास हाई कोर्ट का यह निर्णय एक बड़ा कदम है, जो न केवल अंतरधार्मिक विवाहों के अधिकारों को बताता है, बल्कि यह भी बताता है कि किसी व्यक्ति को अपनी आस्था और विश्वास के अनुसार जीवन जीने का पूरा अधिकार है. किसी को भी बिना उनकी सहमति के धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करना या उसे धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करना केवल मानसिक हिंसा और क्रूरता का कारण बनता है.
धर्म परिवर्तन न केवल व्यक्तिगत आस्था का मामला है, बल्कि यह एक संवैधानिक अधिकार भी है, और किसी को भी अपने धर्म के प्रति आस्थाओं को बदलने के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता. इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि हर व्यक्ति को अपने विश्वासों और धर्म को चुनने का अधिकार है, और यदि कोई अपने धर्म को बदलने का निर्णय नहीं लेता, तो उसे इसके लिए किसी प्रकार की सजा नहीं मिल सकती.