कश्मीर मुद्दे को हल करने की लगभग तमाम कोशिशें नाकाम रही थीं. साल 1963 की गर्मियों में स्वर्ण सिंह और ज़ुलफिकार अली भुट्टो के बीच हुई बैठकों का कोई नतीजा नहीं निकला था. साल के अंत तक ब्रिटेन और अमेरिका भी इस मुद्दे को हल करने के लिए संयुक्त रूप से कोशिश कर चुके थे. लेकिन तमाम कोशिशें बेअसर रही थीं.
पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने जीवन के आखिरी हिस्से में थे. और शायद वह भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे. नेहरू के कॉमनवेल्थ सेक्रेट्री वाई डी गुंडेविया अपनी किताब 'आउटसाइड दी आर्काइव्स' (Outside The Archives) में लिखते हैं कि नेहरू के एक करीबी दोस्त ने उन्हें पत्र लिखकर कश्मीर और चीन में से किसी एक मुद्दे को अपने जीवन में ही खत्म करने की सलाह दी थी. इस गुमनाम दोस्त के अनुसार नेहरू इन दोनों ही मुद्दों को आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़कर दुनिया से नहीं जा सकते थे.
जब नेहरू ने बुलाया अब्दुल्लाह को
नेहरू ने कश्मीर मुद्दा हल करने का फैसला किया. कुछ दस्तावेज बताते हैं कि इसके लिए नेहरू खुद पाकिस्तान जा सकते थे लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण वह ऐसा नहीं कर सके. उन्होंने इस काम के लिए कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह को चुना. शेख अब्दुल्लाह एक दशक से ज्यादा समय जेल में गुजारने के बाद बाहर आए थे. वह कश्मीर में घूम-घूमकर अपने राज्य के लोगों से संवाद कर ही रहे थे कि नेहरू ने उन्हें अपने तीन मूर्ति हाउस में तलब किया. जब शेख अब्दुल्लाह दिल्ली पहुंचे तो खुद इंदिरा गांधी उन्हें लेने पालम एयरपोर्ट आई थीं.
शेख अब्दुल्लाह जब एक दशक बाद नेहरू से मिले तो उनका चेहरा मुरझाया हुआ था और पीठ झुकी हुई थी. शेख अब्दुल्लाह अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चीनार में लिखते हैं कि नेहरू ने उनसे अतीत की घटनाओं के लिए माफी भी मांगी. नेहरू बस कश्मीर विवाद को खत्म करना चाहते थे.
दोनों नेताओं के बीच हुई चार दिन की बातचीत के बाद शेख अब्दुल्लाह को पाकिस्तान भेजने का फैसला किया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'भारत नेहरू के बाद' में लिखते हैं कि शेख अब्दुल्लाह भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के बीच एक 'परिसंघ' बनाना चाहते थे. इस परिसंघ में भारत, पाकिस्तान और कश्मीर तीन अलग-अलग देश हो सकते थे.
अपनी मृत्यु से एक हफ्ता पहले 20 मई 1964 को नेहरू ने कानून के जानकारों से इस संबंध में चर्चा भी की थी. हालांकि राजनीतिक विश्लेषक इंदर मल्होत्रा इंडियन एक्सप्रेस के लिए एक आर्टिकल में लिखते हैं कि नेहरू ने एक समय पर आकर इस विचार को अपने दिल से निकाल दिया था.
फिर हुआ पाकिस्तान दौरा
बहरहाल, तमाम अड़चनों और तर्क-वितर्क के बावजूद शेख अब्दुल्लाह 24 मई 1964 को पाकिस्तान पहुंच गए. रावलपिंडी से 13 किलोमीटर दूर चकलाला एयरबेस पर ज़ोरदार स्वागत हुआ. इस स्वागत पर 25 मई की न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में लिखा गया, "शेख अब्दुल्लाह को गले लगाने के लिए भीड़ ने एयरपोर्ट पर पुलिस की लाइनें तक तोड़ दीं. यह स्वागत इतना ज़ोरदार हुआ कि वह (अब्दुल्लाह) वहां मौजूद उच्चाधिकारियों से मिल भी नहीं सके और उन्हें एक गाड़ी में वहां से फौरन रवाना होना पड़ा." शेख अब्दुल्लाह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वह एक बंद गाड़ी में जा रहे थे लेकिन सड़क के दोनों ओर लोगों की भीड़ देखकर उन्होंने एक खुली हुई जीप में चलने का फैसला किया.
अगले दिन शेख अब्दुल्लाह ने बंद दरवाजों के पीछे पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अय्यूब खान के साथ बैठक की. इस बैठक में क्या बातें हुईं और क्या नतीजा निकला यह तो कहना मुश्किल है. लेकिन अगले दिन हुई चार घंटे की बैठक में शेख अब्दुल्लाह राष्ट्रपति खान को भारत दौरा करने के लिए मनाने में कामयाब रहे.
शेख अब्दुल्लाह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "फैसला हुआ था कि मैं रावलपिंडी जाऊं और जनरल अय्यूब खान को भारत आने के लिए मंजूर करूं. मुझे दोनों देशों के बीच एक पुल के तौर पर काम करना था."
लेकिन पहले दिन की बैठक का कोई नतीजा नहीं निकल सका था. बैठक के बाद दोनों देशों ने अधिक जानकारी दिए बिना शेख अब्दुल्लाह के दौरे को असफल करार दिया. शेख अब्दुल्लाह ने खुद भी इस बात को स्वीकार किया. कश्मीर विवाद को खत्म करने का नेहरू का सपना पूरा नहीं हो सका. अगले दिन जब शेख अब्दुल्लाह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) की राजधानी मुजफ्फराबाद जा रहे थे तब उन्हें नेहरू के निधन की खबर मिली. शेख अब्दुल्लाह वहीं रो पड़े मुजफ्फराबाद में लोगों से उनकी मुलाकात शोकसभा में बदल गई.
पाकिस्तान से खाली हाथ लौटे शेख अब्दुल्लाह ने जब तीन मुर्ति हाउस में नेहरू का बेजान शरीर देखा तो वह 'एक बच्चे की तरह रोने लगे.' शायद यहीं कश्मीर समस्या के हल होने की उम्मीद खत्म हो गई थी. कम से कम उस वक्त के लिए.
...और दोबारा जेल गए शेख अब्दुल्लाह
शेख अब्दुल्लाह अपने दोस्त और मेंटर नेहरू के अंतिम संस्कार में मौजूद रहे और कुछ दिन बाद उनकी अस्थियों को सिंध और झेलम में बहाने भी गए. नेहरू के बाद दिल्ली की लीडरशिप ने शांति समझौतों की कोशिश करने की बात कही तो जरूर लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अगले साल शेख अब्दुल्लाह अल्जीरिया दौरे पर गए जहां उन्होंने चीन के प्रधानमंत्री चुईन-लाई से मुलाकात की. हालांकि नेहरू के बाद दिल्ली में शेख अब्दुल्लाह के लिए बहुत समर्थन बाकी नहीं था.
दिल्ली को डर था कि अब्दुल्लाह कश्मीर में जनमत न करवा दें. भारत सरकार ने इस मुलाकात के बाद उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया. सऊदी अरब और पाकिस्तान ने उन्हें पासपोर्ट ऑफर किया लेकिन उन्होंने इन देशों में शरण लेने से इनकार कर दिया. जब शेख अब्दुल्लाह भारत लौटे तो उन्हें तमिलनाडु के कोडाइकनल में एक जेल में कैद कर दिया गया. यहां वह तीन साल तक बंद रहे.
जेल में शेख अब्दुल्लाह को राष्ट्रपति खान की किताब 'फ्रेंड्स, नॉट मास्टर्स' (Friends, not Masters) पढ़ने को मिली तो उन्होंने फौरन खान को पत्र लिखा. इस किताब में खान ने लिखा था, "शेख अब्दुल्लाह भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के बीच परिसंघ बनाने का 'बेतुका प्रस्ताव' लेकर आए थे. यह अजीब है कि जहां हम कश्मीरियों की आजादी की बात कर रहे हैं, वहीं उन्हें एक ऐसे खयाल की पैरवी करने के लिए मजबूर किया गया है जिसपर अमल करने पर हम ही गुलाम बन जाएंगे. जाहिर है कि पंडित नेहरू ने उन्हें यह प्रस्ताव हम तक पहुंचाने के लिए कहा था."
जब शेख अब्दुल्लाह को पता चला कि इस प्रस्ताव का इलजाम पंडित नेहरू के सिर मढ़ा जा रहा है, तो उन्होंने राष्ट्रपति खान को पत्र में लिखा, "यह प्रस्ताव न तो मेरा था और न ही नेहरू का. मैं सिर्फ दोनों देशों के बीच बात करवाना चाहता था. दिवंगत पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी भी हमें आपके सामने कोई प्रस्ताव रखने के लिए मजबूर नहीं किया. हम ऐसे लोग नहीं हैं."