जस्टिस संजीव खन्ना (Justice Sanjiv khanna) भारत के 51वें चीफ जस्टिस बनने वाले हैं. 11 नवंबर को वे CJI पद की शपथ लेने वाले हैं. भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने जस्टिस खन्ना को अपना उत्तराधिकारी नामित किया है. जस्टिस चंद्रचूड़ ने 8 नवंबर, 2022 को सीजेआई का पद संभाला था, वे 10 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं.
लेकिन ज्यादातर लोग ये नहीं जानते हैं कि आखिर भारत को चीफ जस्टिस कैसे मिलते हैं. क्या कोई प्रोसेस होता है? क्या कोई एग्जाम होता है या किसी तरह की वोट होती है?
दरअसल, कोर्ट में चीफ जस्टिस बनने के लिए एक प्रिंसिपल होता है जिसे सिनियोरिटी प्रिंसिपल (Seniority Principle) कहा जाता है. यह लंबे समय से चली आ रही परंपरा है, हालांकि इसके पीछे कोई औपचारिक नियम नहीं है.
51वें CJI होंगे जस्टिस संजीव खन्ना
जस्टिस संजीव खन्ना, भारत के 51वें चीफ जस्टिस के रूप में कार्यभार संभालेंगे. जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में नियुक्त किया गया था तब वे हाई कोर्ट के जजों की सिनियोरिटी लिस्ट में 33वें स्थान पर थे. उनकी इस नियुक्ति के समय तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने योग्यता और उनकी ईमानदारी के आधार पर जस्टिस खन्ना को दूसरे जजों पर तरजीह दी थी.
ये दिखाता है कि कभी-कभी योग्यता को प्राथमिकता दी जाती है और यही कारण है कि उनके CJI बनने को बहुत सम्मान से देखा जा रहा है. जस्टिस संजीव खन्ना का अपने निर्णयों और कानूनी समझ के लिए काफी नाम है. उन्होंने देश के कई बड़े फैसलों में भाग लिया है.
सिनियोरिटी प्रिंसिपल क्या है?
भारत में सिनियोरिटी प्रिंसिपल के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के सबसे सीनियर जज को मौजूदा चीफ जस्टिस के रिटायर होने पर ऑटोमेटिक रूप से चीफ जस्टिस बनाया जाता है. इस परंपरा का पालन इसलिए किया जाता है ताकि ज्यूडिशियरी में किसी भी तरह का कोई राजनीतिक हस्तक्षेप न हो.
हालांकि, इस प्रिंसिपल को लेकर कई बार आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. इसका सबसे बड़ा विवाद यह है कि इसमें योग्यता को नजरअंदाज कर दिया जाता है और सिर्फ सिनियोरिटी को प्राथमिकता दी जाती है. आलोचकों का तर्क है कि सबसे काबिल जज, हमेशा सीनियर हों, ऐसा नहीं होता है.
कब से शुरू हुआ है सिनियोरिटी प्रिंसिपल
भारत के कोर्ट सिस्टम में सिनियोरिटी प्रिंसिपल 1951 से शुरू हुआ. पहले चीफ जस्टिस एच.जे. कानिया की मृत्यु के बाद इसे शुरू किया गया था. उस समय, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बॉम्बे हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस एम.सी. छागला को भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की कोशिश की थी. हालांकि, कई सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इसका विरोध किया और जोर दिया कि सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज को जस्टिस एच.जे. कानिया के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए. उनके इस विरोध के कारण जस्टिस पतंजलि शास्त्री को CJI नियुक्त किया गया, और तब से सीनियोरिटी प्रिंसिपल देश में शुरू हुआ.
किन मामलों में नहीं किया गया था ये प्रिंसिपल फॉलो
हालांकि यह एक लंबे समय से चली आ रही परंपरा है, फिर भी कई बार ऐसा हुआ है जब सीनियोरिटी प्रिंसिपल का पालन नहीं किया गया. सबसे विवादास्पद उदाहरण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान सामने आया था. 1973 में, सरकार ने जस्टिस ए.एन. रे को भारत के चीफ जस्टिस के रूप में नियुक्त किया, जबकि जस्टिस जे.एम. शेलत, जो जस्टिस ए.एन. रे से सीनियर थे, और दो अन्य सीनियर जजों को नजरअंदाज कर दिया गया.
यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध केस केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के बाद आया, जिसमें अदालत ने यह फैसला सुनाया कि संसद संविधान के बुनियादी ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं रखती. इस मामले में जस्टिस रे ने अल्पमत में अपनी राय दी थी, जिससे यह अटकलें लगाई गईं कि उनकी नियुक्ति राजनीतिक रूप से प्रेरित थी.
दूसरी बड़ी घटना 1977 में हुई, जब जस्टिस एम.एच. बेग को CJI नियुक्त किया गया. जस्टिस एच.आर. खन्ना, जो प्रसिद्ध एडीएम जबलपुर मामले में अपने असहमति वाले फैसले के लिए जाने जाते थे, को नजरअंदाज कर दिया गया. जस्टिस खन्ना ने इस मामले में तर्क दिया था कि नेशनल इमरजेंसी के दौरान भी जीवन के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता. इस राय को लेकर तत्कालीन सरकार काफी नाराज थी, और इसी असहमति के चलते उन्हें दरकिनार कर दिया गया. .