जब भी मदर टेरेसा का नाम आता है तो हमारा मन कृतज्ञता से भर जाता है. मदर टेरेसा ने भारत में गरीब, बेघर और बेसहारा लोगों को लिए जो काम किया उसकी सराहना दुनियाभर में की जाती है. वह भले ही भारत में नहीं जन्मी थी लेकिन उन्होंने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया और उनके कामों के लिए ही उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.
मदर टेरेसा के बाद भारत को दूसरा नोबेल शांति पुरस्कार पाने के लिए 35 साल इंतजार करना पड़ा. भारत में दूसरा नोबेल शांति पुरस्कार चाइल्ड एक्टिविस्ट और सोशल वर्कर, कैलाश सत्यार्थी को मिला है. साल 2014 में उन्हें दुनियाभर के बच्चों के हित में किए जा रहे उनके कामों के लिए इस सम्मान से नवाजा गया. कई जानलेवा हमलों का सामना करने के बावजूद, कैलाश यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि हर बच्चा सुरक्षित, स्वस्थ और शिक्षित हो.
हर बच्चे को अपने बच्चे की तरह सुरक्षित रखने के उनके अथक प्रयासों के कारण उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. साल 2014 में, कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार जीतने वाले आठवें भारतीय बने और वह बाल अधिकारों और संरक्षण के लिए आज भी पूरे जुनून के साथ लड़ रहे हैं. उनका मानना है- "नोबेल शांति पुरस्कार सिर्फ एक अल्पविराम है, पूर्ण विराम नहीं."
बचपन की घटनाओं ने किया प्रभावित
मध्य प्रदेश के विदिशा में पले-बढ़े कैलाश के बचपन में ऐसी बहुत सी बातें हुई जो उनके इस राह को चुनने का कारण बनीं. अपने स्कूल के दिनों के दौरान उन्हें यह समझ में नहीं आया कि उनके घर के बगल में रहने वाले मोची का बेटा स्कूल जाने की बजाय काम क्यों करता है? इस बारे में उन्होंने अपने पिता, अपने स्कूल हेडमास्टर और फिर उस मोची से बात की और उन्हें आखिर में जवाब मिला कि गरीबी में बच्चे शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि काम करने के लिए पैदा होते हैं.
इस जवाब ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया और इसके बाद उन्होंने बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने की तरफ कदम बढ़ाना शुरू किया. उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि बच्चों के साथ गरिमा, सम्मान और करुणा के साथ व्यवहार किया जाए. सत्यार्थी बड़े होकर एक इंजीनियर बने लेकिन उन्होंने अपने आकर्षक करियर को छोड़ने का फैसला किया और 'संघर्ष जारी रहेगा' नामक पत्रिका लॉन्च की, जिसमें सामाजिक मुद्दों और वर्जित माने जाने वाले विषयों पर चर्चा की जाती थी.
बाल शोषण के खिलाफ संघर्ष
कैलाश अपनी पत्रिका चला रहे थे और उसी दौरान, पंजाब के एक ईंट भट्ठे में बंधुआ मजदूर वसल खान ने उनसे अपनी बेटी को बचाने की गुहार लगाई. वसल की बेटी को उनके मालिकों ने बेच दिया था. कैलाश का यह प्रारंभिक संघर्ष एक आजीवन संकल्प में बदल गया. और उन्होंने सभी प्रकार के बाल शोषण खत्म करने का सफर शुरू किया.
साल 1980 में, उन्होंने बच्चों और उनके परिवारों को गुलामी की बेड़ियों से बचाने के लिए बचपन बचाओ आंदोलन (बचपन बचाओ आंदोलन) शुरू किया. भारत में अपने निरंतर नीतिगत प्रयासों के माध्यम से उन्होंने साल 1986 में बाल श्रम अधिनियम (Child Labor Act) के पारित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज सत्यार्थी के नेतृत्व में बचपन बचाओ आंदोलन ने 90,000 से ज्यादा बच्चों को तस्करी और बाल श्रम से बचाया है.
बच्चों के लिए शुरू किया बाल आश्रम
इन बच्चों को पुनर्वासित करने के लिए उन्होंने साल 1991 में भारत का पहला शॉर्ट-टर्म ट्रांजिट रिहैबिलिटेशन सेंट, 'मुक्ति आश्रम' स्थापित किया. 1998 में, भारत में जयपुर के निकट विराट नगर में एक लॉन्ग-टर्म पुनर्वास केंद्र 'बाल आश्रम' की स्थापना की गई. ये पुनर्वास केंद्र अब भारत में बच्चों की देखभाल के लिए आदर्श संस्थान बन गए हैं. उन्होंने 1998 में बाल श्रम के खिलाफ सबसे बड़े नागरिक समाज आंदोलनों ग्लोबल मार्च अंगेस्ट चाइल्ड लेबर की शुरुआत की.
103 देशों में 80,000 किलोमीटर की यात्रा करते हुए, उन्होंने बाल श्रम के सबसे खराब रूपों पर एक अंतर्राष्ट्रीय कानून की मांग की. परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने बाल श्रम के सबसे खराब रूपों पर कन्वेंशन नंबर 182 को अपनाया, जिसे औपचारिक रूप से 1999 में पारित किया गया और यह ILO के इतिहास में सबसे तेजी से अनुसमर्थित कन्वेंशन बन गया.
ग्लोबल लेवल पर किया काम
सत्यार्थी को 1994 में गुड वीव (जिसे पहले रगमार्क के नाम से जाना जाता था) की स्थापना करके पहले सिविल सोसाइटी- बिजनेस कोइलिसन का श्रेय दिया जाता है, जो दक्षिण एशिया में बाल श्रम मुक्त कालीनों के लिए अपनी तरह का पहला सर्टिफिकेशन और सोशल लेबलिंग मैकेनिज्म था.
सत्यार्थी ग्लोबल कैंपेन फॉर एजुकेशन (जीसीई) के आर्किटेक्ट हैं, जो एक सिविल सोसाइटी आंदोलन है और यह ग्लोबल लेवल पर शिक्षा के संकट को समाप्त करने के लिए काम कर रहा है और यह सुनिश्चित कर रहा है कि राज्य हर बच्चे के लिए मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा का अधिकार प्रदान करें.
उन्होंने शिक्षा को संवैधानिक प्रावधान बनाने के लिए एक देशव्यापी आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया, जिसके कारण 2009 में भारत में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अस्तित्व में आया. तब से वह गारमेंट, माइका माइनिंग, कोको फार्मिंग, खेल के सामान के क्षेत्र में सीएसआर पहल को बढ़ावा दे रहे हैं. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की महासभा, अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग, यूनेस्को और अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, ब्राजील, पनामा, नेपाल, स्पेन, चिली में कई संसदीय सुनवाई और कुछ समितियों को संबोधित किया है.
साल 2014 में मिला नोबेल शांति पुरस्कार
साल 2014 में, कैलाश सत्यार्थी को "बच्चों और युवाओं के दमन के खिलाफ संघर्ष और उनकी शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष" के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. नोबेल पुरस्कार ने उन्हें अन्य वैश्विक पहलों की शुरुआत के लिए भी प्रेरित किया है. बाल दासता, तस्करी, जबरन श्रम और हिंसा को समाप्त करने के लिए सत्यार्थी के निरंतर प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिला है. वह सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में बाल संरक्षण और कल्याण संबंधी प्रावधानों को शामिल कराने में सफल रहे.
वह Parliamentarians without Borders के संस्थापक हैं - एक आंदोलन जो बच्चों के खिलाफ हिंसा को समाप्त करने के प्रयास में दुनिया भर के विधायकों को एकजुट करता है. श्री सत्यार्थी ने इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन (सभी संसदों का गठन करने वाली वैश्विक संस्था) की महासभा को भी संबोधित किया और बाल हितैषी नीतियों के लिए लॉ मेकर्स से समर्थन मांगा. साल 2016 में, उन्होंने पहला नैतिक मंच - लॉरेट्स एंड लीडर्स समिट फॉर चिल्ड्रन तैयार किया, जो दुनिया भर में बच्चों से संबंधित मुद्दों के लिए आवाज उठाने के लिए सबसे मजबूत मंच है.
कैलाश सत्यार्थी ने दिसंबर 2016 में एक वैश्विक पहल, 100 मिलियन फॉर 100 मिलियन अभियान शुरू किया, जिसका उद्देश्य 100 मिलियन युवाओं को ऐसे 100 मिलियन बच्चों के बेहतर भविष्य को आकार देने के लिए संगठित करना था, जो अपने अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित हैं. साल 2017 में, उन्होंने 12,000 किमी लंबी भारत यात्रा (कश्मीर से कन्याकुमारी तक) का नेतृत्व करके बाल यौन शोषण के खिलाफ हुंकार भरी. कैलाश सत्यार्थी लगातार बच्चों और युवाओं को बेहतर कल देने में जुटे हुए हैं. उनका संघर्ष लगातार जारी है.
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