15 अगस्त 1947 को हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए थे. तब से लेकर आज तक हम इस दिन को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते हैं. ये आजादी हमें अंग्रेजों से यूं ही नहीं मिली थी. इसके लिए लाखों वीर सपूतों ने अपने जान की कुर्बानी दी थी. देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए पुरुषों के साथ महिलाओं ने भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. आज हम एक ऐसी ही महिला क्रांतिकारी सुशीला मोहन उर्फ सुशीला दीदी की कहानी बता रहे हैं, जिन्होंने काकोरी कांड में फंसे क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अपनी शादी के लिए रखा गया गहना तक बेच दिया था. भगत सिंह की हमेशा मदद करती रहीं.
पिता ने ठुकरा दी थी राय साहब की उपाधि
सुशीला का जन्म 5 मार्च 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ गांव (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था. सुशीला जब किशोरावस्था में थीं तभी मां का देहावसान हो गया. पिता डॉक्टर करमचंद अंग्रेजों की सेना में मेडिकल अफसर थे. रिटायर होने के बाद अंग्रेजों ने उनके निस्वार्थ समाज सेवा भाव को देखकर उन्हें 'राय साहब' की उपाधि से सम्मानित करने की पेशकश की, जिसे करमचंद ने ठुकरा दिया. बेटी सुशीला थोड़ी बड़ी हुई तो करमचंद ने उनका एडमिशन डीएवी स्कूल में करवा दिया. उस वक्त डीएवी स्कूल को राष्ट्रवादी शिक्षा का केंद्र माना जाता था.
महात्मा गांधी की बातें सुनकर बनीं क्रांतिकारी
अमृतसर के जलियांवाला बाग की घटना ने सुशीला को अंदर से हिला दिया था. इस घटना के बाद अंग्रेजों के खिलाफ देशभर में आंदोलन शुरू हो गया. गुस्साए लोगों की भीड़ ने गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में एक रेलवे स्टेशन को आग के हवाले कर दिया. इसी वक्त महात्मा गांधी गुजरांवाला पहुंच गए. उनके जनसभा में हजारों की भीड़ उमड़ी. इसी तरह की एक जनसभा में गांधी को सुनने के लिए सुशीला भी पहुंची. गांधी के भाषण को सुनकर सुशीला इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसी समय अपनी सोने की अंगूठी देश के लिए दान कर दी और क्रांतिकारी बनने की ठान लीं.
क्रांतिकारियों की प्रेरणा बन गया था उनका पंजाबी गीत
लाला लाजपत राय की गिरफ्तारी से आक्रोशित होकर सुशीला ने एक पंजाबी गीत लिखा- गया ब्याहन आजादी लाडा भारत दा! यह गीत उस समय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत बन गया था. सुशीला मोहन पढ़ाई के साथ-साथ कई क्रांतिकारी संगठनों से भी जुड़ गईं. इनमें क्रांतिकारियों को गुप्त सूचनाएं पहुंचाना, क्रांति की ज्वाला जनमानस में जगाने के लिए पर्चे आदि बांटना जैसे कार्य शामिल थे.
सुशीला मोहन से सुशीला दीदी बनने की कहानी
सुशीला मोहन की देशभक्ति देखकर उनके स्कूल की प्राचार्य लज्जावती ने ही उनकी भेंट दुर्गा भाभी से कराई. धीरे-धीरे दोनों की घनिष्ठता इस कदर बढ़ी कि उनके बीच ननद-भाभी का रिश्ता बन गया. इसके पश्चात सभी क्रांतिकारियों के लिए सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी हो गईं.
कलकत्ता में की शिक्षिका की नौकरी
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात सुशीला कलकत्ता (अब कोलकाता) चली गईं. वहीं उन्होंने शिक्षिका की नौकरी भी कर ली, लेकिन कलकत्ता में रहते हुए भी वह देश प्रेम से विमुख न हुईं. वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की मदद करती रहीं.
क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुन हो गईं थी बेहोश
वर्ष 1926 में देहरादून में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पहली बार उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा (दुर्गा भाभी के पति) और बलदेव से हुई. काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को बचाने के लिए सुशीला दीदी ने मां द्वारा उनकी शादी के लिए रखा गया 10 तोला सोना मुकदमे की पैरवी के लिए दे दिया. हांलाकि उनका यह त्याग भी क्रांतिवीरों को फांसी के फंदे से न बचा सका. वर्ष 1927 में जब काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुशीला दीदी को लगी तो यह सुनकर ही वह बेहोश हो गई थीं.
जब भगत सिंह को अंग्रेजों से बचाया
30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में प्रदर्शन कर रहे थे. इसी वक्त वहां अंग्रेज अधिकारी सांडर्स और कुछ पुलिस वाले पहुंच गए. सांडर्स के आदेश पर पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं. 17 नवंबर को लाजपत राय की मौत हो गई. इसके ठीक एक महीने के भीतर 17 दिसंबर को देशभक्तों ने ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को बीच सड़क पर गोलियों से छलनी कर दिया. इस मामले में राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह के खिलाफ मुकदमा चला. अंग्रेज अधिकारी उन्हें पकड़ने के लिए उनके पीछे लगे हुए थे. भगत सिंह छिपने की जगह तलाश रहे थे. वो किसी तरह कोलकाता पहुंचने में कामयाब हो गए. यहां सुशीला अपना रूप बदल-बदल कर लंबे समय तक भगत सिंह को बचाती रहीं. कलकत्ता में उनके ठहरने का इंतजाम भी सुशीला दीदी ने ही किया. भगत सिंह सुशीला को अपनी बड़ी बहन मानते थे. वह उन्हें दीदी कहकर बुलाया करते थे.
असेंबली में बम फेंकने से पहले भगत सिंह ने की थी मुलाकात
सुशीला की मदद से भगत सिंह और उनके साथियों ने छिपे रहकर अपनी अगली योजना पर काम किया. 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट करने के लिए भेजने की योजना बनी. केंद्रीय असेंबली, दिल्ली में बम फेंकने से पहले भगत सिंह सुशीला से मिलने भी उनके पास गए. हालांकि, घटना को अंजाम देने के बाद इस मामले में भगत सिंह की गिरफ्तारी हो गई. अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों पर इस मामले में षड्यंत्र रचने का केस चलाया.
भगत सिंह को बचाने के लिए बापू के सामने रखा था प्रस्ताव
लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तारी के पश्चात भगत सिंह के मुकदमे की पैरवी के लिए फंड जुटाने के लिए सुशीला दीदी चंदा जमा करने कोलकाता पहुंचीं. भवानीपुर में भी एक सभा का आयोजन हुआ और जनता से भगत सिंह डिफेंस फंड के लिए धन देने की अपील की गई. अब सुशीला ने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरा समय क्रांतिकारी दल को देने लगीं. चंद्रशेखर आजाद की सलाह पर भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने के लिए गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की फांसी को कारावास में बदलने की शर्त लेकर सुशीला दीदी महात्मा गांधी से मिलने तक गईं, किंतु गांधी ने इस शर्त को समझौते में रखने से साफ इंकार कर दिया था.
जीवन भर देश की करती रहीं सेवा
आजादी के बाद भी सुशीला के अंदर से देशभक्ति की भावना कम नहीं हुई. हालांकि, देश के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया उसके बदले सरकार से किसी भी तरह की मदद या इनाम की उम्मीद नहीं रखी. यही वजह है कि सुशीला दीदी ने पुरानी दिल्ली में गुमनाम रहते हुए एक हैंडीक्राफ्ट स्कूल शुरू किया. दलित बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को भी हैंडीक्राफ्ट की ट्रेनिंग दी. वह दिल्ली नगर निगम की सदस्य भी रहीं. 3 जनवरी 1963 को देश की इस वीर क्रांतिकारी बेटी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. अभी पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में एक सड़क का नाम सुशीला मोहन मार्ग है.